मुनिराज के अंतिम समय में परिवार का क्या कर्तव्य है?

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शंका

मुनिराज के अंतिम समय में परिवार का क्या कर्तव्य है?

समाधान

किसी भी महाराज की मुनि दीक्षा होने के उपरांत वह परिवार के नहीं होते। उनका अपना एक संसार होता है जो गुरू के निर्देश अनुसार चलता है। घर परिवार को छोड़ते हैं तब तो साधु होते हैं। अगर कोई साधु बन गए तो उनके परिवार के लोगों को चाहिए कि उन्हें अपने से अलग माने और साधु को चाहिए कि वह अपने आपको परिवार से अलग रखें। दूसरी बात सेवा-वैयावृत्ति का जहां तक सवाल है तो सेवा-वैयावृत्ति निस्पृह भाव से करना चाहिए। इस ढंग से करना चाहिए जिससे जिस की सेवा की जा रही है उसका मन उन्नत हो सके, उसकी चर्या निर्मल बन सके और वह अपनी साधना को ठीक बना सके।

परिवार जन का मोह होता है तो उस मोह के परिणाम स्वरूप चर्या में शिथिलता आ जाती है और यदि उस शिथिलाचार से मूल चर्या खंडित हो गई तो मैं समझता हूं यह परिवार की सेवा नहीं अपितु एक बहुत बड़ा उपसर्ग है। परिवार को दूर रखने के बात मैं क्या कहूं! आगम में तो एक आचार्य के लिए कहा कि- “तुम्हारा आख़िरी समय हो और समाधि लेना हो तो अपना संघ छोड़कर किसी दूसरे संघ में जाओ” वहां तो संघा प्रवेश के लिए इतनी कटु बात कही है जिसको सुनकर आप आश्चर्य करोगे; वहां लिखा हुआ है – 

वरं गण प्रवेशादौ विवाहस्य प्रवेशणं

विवाहेऽरागोत्पत्ति गणौ दोषाणमागरौ:

“तुम्हें अपनी सल्लेखना समाधि चाहिए तो अपने संघ में रखकर समाधि करने से अच्छा है, शादी कर लो! शादी करोगे तो केवल राग होगा, संघ तो दोषों का आगर होगा।”

ऐसा मूलाचार में लिखा है। क्यों? “शिष्य तुम्हारी सेवा नहीं कर सकता; तुम्हारी थोड़ी सी पीड़ा देखेगा तो वह द्रवीभूत हो जाएगा; अथवा तुम पीड़ा झेलोगे, आँख दिखाओगे तो शिष्य डर जाएगा”। बहुत योग्य शिष्य ऐसा कर सकते हैं। इसलिए एक मुनि को भी, एक आचार्य को भी अपने संघ छोड़ने की बात की। जब संघ को छोड़ने की बात की और उसके बाद परिवार घेरे रहे तो बंटा-धार तो होना ही है।

यह साधु अवस्था बहुत कठिनाई से मिलती है, बहुत दुर्लभता से मिलती है, इसलिए साधु क्या; मैं तो आप सब से कहता हूं आपके घर में कोई वृती हो और वह अपने जीवन के अंतिम क्षणों में समाधि सल्लेखना की भावना कर रहा हो, चर्या कर रहा हो, तो आप उसमें पूरक बनें, प्रेरक बनें, बाधक न बनें। उनकी इस प्रकार से व्यवस्था करें जिससे वह अपनी आत्मा का ध्यान रखते हुए, आत्मा की भावना भाते हुए इस नश्वर शरीर को छोड़ सकें और अपने जीवन का कल्याण कर सकें। यदि मोह-वश आप बाधक बनते हैं तो उनका भी भव बढ़ेगा और आपका भी भव बढ़ेगा। इस बात का सदैव स्मरण रखना चाहिए।

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