सोलह कारण भावना में कहा गया है –
निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया..
क्या वैयावृत्य से ही सब हो जाएगा, हमें और कुछ नहीं करना होगा?
वैयावृत्य बहुत बड़ा तप है। सिर्फ हाथ पैर दबाना वैयावृत्य नहीं है, वैयावृत्य का मतलब है सेवा-सुश्रुषा और आन्तरिक अनुराग। साधु सन्तों के धर्म ध्यान में उनके अनुकूल बनना, उनकी सहायता करना, उनके प्रति समर्पण का भाव रखना, ग्लानि से रहित होकर जरूरत पड़ने पर मल – मूत्र तक साफ़ करना, ये सब वैयावृत्य है। ये अन्तरंग तप की श्रेणी में आता है। तो जो वैयावृत्य करता है वह अपने जीवन को धन्य करता है।
भगवान महावीर ने कहा है – “जे गिलानम परिहरे ते धन्ना।” जो गिलान यानि रोगियों का सत्कार करते है, सेवा सुश्रुषा करते है वे धन्य हैं। वैयावृत्य करने का तात्पर्य ये है, शरीर की नश्वरता और आत्मा की अमरता को समझ कर शरीर के ग्लानि जनित रूप को देख कर अनदेखा करना और उनकी सेवा सुश्रुषा करते हुए आत्मा के गुणों का आदर करना। इसलिए सब तप अपने आप में सार्थक हैं पर वैयावृत्य की बड़ी महिमा बताई है।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भगवती आराधना में मुनि के लिए लिखा है कि जो वैयावृत्य नहीं करता, वह जैन धर्म से बहिर्भूत है, जिन-आज्ञा का भंग उसके द्वारा होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने वैयावृत्य को जिनेन्द्र भगवान की भक्ति का एक रूप बताया है।
सेवा सुश्रुषा सभी बीमार रोगियों की करनी चाहिए और घर में जरुर करनी चाहिए। किसी बीमार को नर्स के भरोसे छोड़ने की जगह अपना जीवन समर्पित करके उद्धार करो, उनका भी भला होगा और आपका भी भला होगा।
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