जैन धर्म में पितृ-दोष का क्या महत्त्व है?
जैन धर्म के अनुसार कोई पितृ-दोष नहीं होता।
जैन धर्म के अनुसार किसी को श्राद्ध-तर्पण की ज़रूरत नहीं है। मैं तो कहता हूँ, जीते जी अपने बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा पूर्वक व्यवहार करो, कभी श्राद्ध-तर्पण की जरूरत ही नहीं होगी। मुझे उन लोगों की बुद्धि पर तरस आता है जो जीते जी माँ-बाप की उपेक्षा करते हैं, मर जाने के बाद श्राद्ध अर्पित करने के लिए गया जाते हैं।
हमारा गया में चातुर्मास हुआ, वहाँ हमसे एक सज्जन जुड़े, वहाँ के बड़े लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति, अखोरी गोपाल! उन्होंने एक दिन आ करके कहा, ‘महाराज जी! आज मैं थोड़ी देर के लिए जैन बन गया तो मेरे बीस-पच्चीस हजार रुपये बच गए। जैन बनने से बहुत फायदा होता है। रेलवे स्टेशन पर उतरा, इन दिनों स्टेशन पर उतरते ही बहुत सारे पंडे लग जाते हैं। मेरे आगे दो जैन बन्धु उतरे, जैसे ही उन्होंने कहा हम जैन हैं, तो उन्होंने उनको छोड़ दिया। उन से बचने के लिए हमने भी कह दिया हम जैन हैं तो हमको भी छोड़ दिया। हमने अपना असली परिचय दिया होता तो हमारे स्टेटस के हिसाब से २०– २५ हजार तो लग ही जाते, हम जैन बोलने से बच गए।’
ये एक तरह का अन्धविश्वास है। राख को सींचने पर बीज अंकुरित नहीं होता, बीज धरती पर बोओगे और सींचोगे तब अंकुरित होगा। जिसके लिए लोग पितर मान रहे हैं वह तो जा चुका, अपनी पर्याय बदल चुका होगा। वो तो अपनी जगह मग्न है, कभी याद भी नहीं करता। ये एक प्रकार का भ्रम है और इस तरह की भ्रमणा से सबको बचना चाहिए।
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