पूजा से पहले स्थापना की क्या महत्ता है?

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शंका

पूजा श्रावक का पहला अंग है, कर्त्तव्य है। कहीं-कहीं पर ऐसा देखने में आता है कि लोग पूजा में स्थापना करने का निषेध करते हैं। महाराजश्री! पूजा से पहले स्थापना की क्या महत्ता है?

समाधान

पूजा के विषय में जब हम शास्त्रों में पढ़ते हैं तो अभिषेक के बाद पूजा के पाँच अंग मिलते हैं – आह्वानन्, स्थापना, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन! ये आह्वानन्, स्थापना, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन पूर्ण करने के उपरान्त ही आपकी पूजा सच्चे अर्थों में परिपूर्ण होती है। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो वह पूजा के मान्य अंगों के विरुद्ध होती है। 

पूजा के आह्वानन्, स्थापना, सन्निधीकरण, पूजन और विसर्जन- ये जो पाँच अंग हैं इनको ठीक से समझिए। जो लोग इनके अर्थ को नहीं समझते, वे इसका निषेध कर देते हैं। क्या है आह्वानन्? हम पूजा में किसका आह्वान करते हैं? इससे थोड़ा और पीछे चलते हैं। जब पूजा शुरू करते हैं, तो आप विनय पाठ पढ़ते हैं। विनय पाठ पढ़ने के बाद पूजा की पीठिका पढ़ते हैं। फिर भगवान के आह्वानन् की प्रक्रिया में जुटते हैं। इसका मतलब पूजा में अगर अपने आपको सम्मिलित करना चाहते हैं, तो पहले आपको अपनी भाव दशा बनानी आवश्यक है। हम लोगों का मन २४ घण्टे इधर-उधर भागता रहता है, व्यग्र होता है और मन में उद्वेग बना रहता है। तो इधर-उधर भागते हुए मन को हमें स्थिर करने के लिए, भगवान से जोड़ने के लिए कुछ विशेष उपक्रम करना होता है और इसलिए ये विनय पाठ और विनय पाठ के बाद पूजा पीठिकाI 

पीठिका मतलब? जैसे- भगवान की वेदी के नीचे एक पीठ होती है। वेदी बनेगी, तभी भगवान को विराजमान किया जा सकता है। तो ऐसे ही यह पूजा की पीठिका है। पीठिका पर भगवान को विराजमान करो। तो अपनी भाव दशा उसमें जोड़ो और पूजा की पीठिका में जो परमर्षि मंगल है। वो बहुत मांगलिक है। समस्त ऋद्धिधारी, मुनीराजों का स्मरण है। इस परमर्षि मंगल को जैन परम्परा में बहुत महत्त्व दिया गया है और ऐसा विधान मिलता है, कि हर मांगलिक क्रिया के पूर्व इनका स्मरण करना चाहिए। हम लोगों का जो पाक्षिक प्रतिक्रमण होता है उसमें भी हम परमर्षि मंगल पढ़ते हैं और णमो जिणाणं आदि मन्त्र पढ़ते हैं। मुनियों की दीक्षा से पूर्व गणधर वलय विधान का बताया गया है। जो हमारे भीतर ऐसे शुभ भाव उत्पन्न करते हैं। तो ये परमर्षि मंगल के पाठ से आपके भीतर के जो सारे नकारात्मक विचार हैं, वह दूर हो जाते हैं। अमंगल दूर होता है। मंगल का मतलब सकारात्मकता और अमंगल का मतलब नकारात्मकता। तो अपनी नकारात्मकता को खत्म करने के लिए आप इस मंगल को धारण करें। इस मंगल से सारे काम होंगे। इसलिए इसको ध्यान में रखकर कार्य करना चाहिए। 

परमर्षि मंगल पढ़ने के बाद आप आह्वान करते हैं, किसका? कई लोग तर्क देते हैं कि सिद्धालय से तो भगवान आयेंगे नहीं। हम आह्वान किसका करें? स्थापना किसकी करें? सन्निधीकरण किसका करें? भगवान कहीं भी हों जब तक हम उन्हें अपने हृदय की वेदी में प्रतिष्ष्ठापित नहीं करते हैं, तब तक पूजा किसकी करेंगे? तो जो आह्वान होता है वो भगवान को अपने हृदय में विराजमान करने के लिए आह्वान होता है। अपनी भाव दशा को भगवान के साथ जोड़ने के लिए आह्वानन् होता है और आप लोग श्लोक पढ़ते हैं! यही बोलते हैं न? मुझे पूजा करते हुए बहुत वर्ष हो गये। मेरे भीतर आएँ-आएँ-आएँ, इसमें तो बीजमन्त्र है, इसका उपयोग सदैव आमन्त्रण के लिए किया जाता है। हम किसी को आहूत करें तो इस मन्त्र का प्रयोग किया जाता है और इसी भाव से इस मन्त्र का प्रयोग करके हम उनको बुलाते हैं। भगवान को अपने हृदय में बुलाते हैं। बुला तो लिया, किसी को घर में बुलाओगे तो आसन दोगे कि नहीं? बुलाने पर आसन नहीं दिया तो, अच्छी बात नहीं मानी जाती तो श्लोक आइए यहीं-यहीं-यहीं विराजिए- विराजिए, ये स्थापना है। इस श्लोक में इसी अर्थ में इसका उपयोग होता है। 

फिर, यहाँ मेरे साथ आपका सन्निधीकरण हो, मेरे साथ निकटता बने। ये सन्निधीकरण का मतलब क्या है? ये साक्षात् समवसरण है, उसमें भगवान हैं। मैं साक्षात् इन्द्र हूँ। इस प्रकार स्वयं को इन्द्र, भगवान का पुजारी और सामने विराजमान भगवान को समवसरण में विराजित भगवान के साथ भावों के सन्निधीकरण की स्थापना का नाम सन्निधीकरण है, ये है सन्निधीकरण। ‘वषट्’ ये भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है। फिर रहा सवाल ये स्थापना कहाँ करें? ठौने में। ठौने में भगवान की स्थापना नहीं होती। भगवान की स्थापना हृदय में होती हैं। फिर ठौने में क्यों रखते हैं? ठौना केवल एक प्रतीक है कि हमने भगवान को अपने हृदय में विराजमान किया। उस संकल्प की पुष्टि के लिए ठौने में हम प्रतीक के रूप में पुंज अर्पित करते हैं। अब सवाल ये भी है कि ठौने में क्या बनायें और कितने चावल चढ़ायें? इस बात पर जितने त्यागी और जितने पण्डित, उतने विचार हैं। सब अपनी-अपनी राय व्यक्त करते हैं। मैंने विभिन्न प्रतिष्ठाचार्यों के माध्यम से सभी प्रतिष्ठापाठों का अवलोकन किया। किसी भी प्रतिष्ठा पाठ में इस विषय पर स्पष्ट बात नहीं मिलीI केवल एकमात्र आचार्य जयसेन प्रतिष्ठा पाठ में इसका उल्लेख मिला और उसमें स्पष्ट शब्दों में लिखा- ठौने में क्या बनाना है और क्या छोड़ना है। आप लोग चावल ही गिनते-गिनते समय निकाल देते हैं। पूर्ण क्रिया करके ‘पुष्पांजलि क्षिपेत’ आप लोग तो चुटकी चढ़ाते हो। पुष्प की पुष्पांजली दोनों हाथों से पुष्पांजली क्षिपेत्। पुष्प यानि अपने पीले चावल I पं. आशाधर जी ने अपने प्रतिष्ठा पाठ में ऐसा उल्लेख किया है। पुष्प कहाँ है? कुमकुम यानि केशर से चर्चित जो चावल हैंI कई लोग बोलते हैं कि पीले चावल को पुष्प मानना कहाँ तक उचित है? उन्हें पं. आशाधर जी द्वारा रचित प्रतिष्ठा पाठ देखना चाहिए। आह्वानन्, स्थापना, सन्निधीकरण यही है।

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