जैन धर्म में प्रेम का क्या स्थान है?

150 150 admin
शंका

सभी धर्मों के अन्दर प्रेम को बड़ा महत्त्व दिया गया है। हिंदू धर्म में राधा कृष्ण के प्रेम को, ईसाई धर्म में ईसा मसीह और मरियम के प्रेम को लेकिन हमारे धर्म में प्रेम को कोई स्थान नहीं दिया गया है जबकि शादियाँ तो हमारे भगवानों की भी हुई है। एक शिष्य का अपने गुरु के प्रति राग कल्याणकारी होगा, कृपया मार्ग दर्शन दीजिये।

समाधान

सभी धर्मों में प्रेम को महत्त्व दिया गया और ये आपसे किसने बात कह दी कि जैन धर्म में प्रेम को महत्त्व नहीं दिया, मैं कहता हूँ जैन धर्म में प्रेम को जितना महत्त्व दिया गया उतना कहीं नहीं दिया गया। आप मेरी भावना में पंक्ति पढ़ते हैं – फैले प्रेम परस्पर जग में, मोह दूर ही रहा करे। 

जैन धर्म में प्रेम और मोह दोनों को अलग-अलग कहा गया। प्रेम और मोह को जब हम एक मानते हैं वह अलग चीज होती है। हम किसी की बात करें, राधा-कृष्ण की बात करें, सीता-राम की बात करें, वहाँ एक से प्रेम की बात है। जैन धर्म कहता है एक से प्रेम मत करो, सब प्राणी के साथ प्रेम करो, सबसे मैत्रीपूर्ण व्यवहार करो, हमारा किसी के प्रति द्वेष हो ही नहीं और जैन धर्म में सम्यक् दर्शन को धर्म का महत्त्वपूर्ण अंग माना गया और उसमें वात्सल्य को सम्यक् दर्शन का ह्रदय माना गया। बिना वात्सल्य यानि प्रेम से हमारा जीवन आगे बढ़ नहीं सकता इसलिए प्रेम करें पर मोह नहीं करें। प्रेम और मोह में क्या अन्तर है? प्रेम और मोह में बहुत अन्तर है, प्रेम का मतलब है एक- दूसरे का साथ निभाना, एक- दूसरे के प्रति सद्भावना रखना, एक दूसरे के सुख-दुःख में काम आना, यह प्रेम है। मोह एक दूसरे के पीछे पागल हो जाना और उनमें मुग्ध हो जाना, उनके बिछोह में व्याकुल हो जाना, यह मोह है। तो कहते है न, जब तक रहो हिल-मिलकर रहो, साथ निभाओ, सद्भावना रखो लेकिन किसी से मोह मत करो। आपने पूछा गुरु शिष्य का राग, प्रशस्त राग है, राग हो भक्ति मूलक वो मोह मूलक नहीं, गुरु से दूर रहने पर भी यदि हमारे हृदय में गुरु के प्रति भक्ति रूप प्रेम है, तो हम उनकी दूरी का अनुभव नहीं करेंगे और यदि हमारे मन में मोह होगा तो कभी गुरु के चरण छोड़ने की इच्छा नहीं होगी। हमें याद है जब हम संघ में थे, गुरु चरणों में ही हमारा विश्राम होता था और गुरुदेव की वैयावृत्ति किए बिना मैं कभी विश्राम नहीं करता था। कभी-कभी ऐसा होता है कि गुरुदेव लंबे समय तक सामायिक करते और हमारा अन्तराय वगैरह हो जाता या और कोई कारण हो तो झपकी लग जाए और बाद में गुरुजी लेट गए, ११-११:३० बज गए, तो मेरी आदत हो गई थी कि ११-११:३० बजे भी अचानक मेरी नींद खुलती और मैं जब तक गुरु के चरण नहीं दबा लूँ तो मुझे तब तक नींद नहीं आती। एक दिन गुरुदेव ने बहुत बड़ी बात कही, नैनागिर की बात है- १९८७ की, उन्होंने मुझे अकेले में बुलाया और कहा देखो, जैसे परिवार का मोह संसार में बाधक है वैसे गुरु का मोह भी बाधक है। गुरु के प्रति भक्ति होनी चाहिए, मोह नहीं होना चाहिए। यदि हमारे अन्दर विवेक हो तो हम अपने जीवन को आगे बढ़ा सकते हैं।

Share
1 comment

Leave a Reply