राजनीति में धर्म का क्या स्थान है?

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शंका

हमारे भारत के संविधान में secular (धर्म निरपेक्ष) शब्द पर ज़ोर दिया है और हर चुनाव में हर जगह सेकुलरिज्म का नारा देते हुए कहते हैं कि “धर्म की बात न करें!”, राजनीति में धर्म का क्या स्थान है?

समाधान

आपने पूछा है secularism (धर्म निरपेक्षता) का। धर्म निरपेक्ष राजनीति की बात जो की जाती है वो सरासर गलत है। राजनीति को धर्म से निरपेक्ष नहीं सम्प्रदाय से निरपेक्ष होना चाहिए। दरअसल हमने उन लोगों का अनुभव किया जिन्होंने भार की आत्मा को नहीं पहचाना। धर्म के लिए Religion शब्द आ गया। Religion और धर्म में बहुत अन्तर है। रिलीजन एक सम्प्रदाय है, धर्म के बिना तो किसी का कल्याण हो ही नहीं सकता है। जैसे प्रवाह-शून्य नदी की कोई शोभा और उपयोगिता नहीं होती है, वैसे ही धर्म शून्य मनुष्य या देश की कोई शोभा नहीं होती है, कोई उपयोगिता नहीं है। तो सेक्युलिरिज्म का जहाँ तक सवाल है, सम्प्रदाय निरपेक्ष होना चाहिए, धर्म निरपेक्ष नहीं। क्योंकि धर्म के बिना देश तो चल ही नहीं सकता। हमारे देश में गाँधीजी ने ‘अहिंसा परमो धर्म:’ कहा और उसी के बल पर हमारे देश को आजादी मिली। भारत के संविधान में ‘अहिंसा परमो धर्मः’ है तो हम धर्म निरपेक्ष की बात कैसे करेंगे? सम्प्रदाय निरपेक्षता की बात होनी चाहिए। 

जहाँ तक धर्म और राजनीति की बात है मैं कहता हूँ धर्म जब राजनीति से जुड़ता है, तो राजनीति का शुद्धिकरण होता है। लेकिन जब राजनीति धर्म में घुस जाती है, तो धर्म का पतन होना शुरू हो जाता है। एक ही वाक्य में से राजनीति और धर्म के इस गठजोड़ को स्पष्ट करना चाहता हूँ ‘जब राजनीति से धर्म जुड़ता है तब रामायण की रचना होती है और जब धर्म में राजनीति घुस जाती है, तो महाभारत रच जाता है।’

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