आप से सुना है कि ज्ञान का प्रारम्भ पुस्तक से होता है। जब हम पुस्तक पढ़कर स्वाध्याय करते हैं तो उसकी सही विधि क्या है?
स्वाध्याय की विधि का सवाल है, तो आप जिस भी ग्रन्थ को स्वाध्याय के लिए लें, सबसे पहले ये संकल्प लें कि मैं इसे पूर्ण करूँ, और जब तक उसे पूर्ण न करूँ तब तक के लिए कोई नियम लें। जिसको उपधान या बहुमान बोलते हैं, त्याग करें। ये नित्य स्वाध्याय की बात है। जब आप किसी जिनालय में गये हैं, कोई ग्रन्थ घंटे-आधे घंटे के लिए पढ़ रहे हैं, तो वो बात अलग है। उसमें भी आप जितनी देर के लिए पढ़ रहे हैं उतनी देर के लिए संकल्प लें।
पहले क्रम में संकल्प पूर्वक स्वाध्याय करें। दूसरे क्रम में जब आप स्वाध्याय के लिए बैठें तो स्वाध्याय में बैठते समय ग्रन्थ को अपनी नाभि से ऊपर लें। बिस्तर के कपड़ों में, बाथरूम के कपड़ों में आप स्वाध्याय कभी न करें। आपके वस्त्र धुले हों, साफ-सुथरे हों, सोला न हो तो कम से कम शुद्ध हों। चटाई पर बैठ कर या शुद्ध आसन पर बैठ कर आप स्वाध्याय करें। स्थिर आसन रखें। स्वाध्याय करते समय अपने अंगोपांग का ज्यादा स्पर्श न करें, हलन-चलन न करें।
स्थिरता पूर्वक कायोत्सर्ग करके मंगलाचरण के साथ स्वाध्याय प्रारम्भ करें। प्रारंभ करने के बाद जब आप का स्वाध्याय पूर्ण हो तो विनय के साथ पहले ग्रन्थ बंद करें, उन्हें प्रणाम करें, फिर कायोत्सर्ग के साथ स्वाध्याय की पूर्णता करके जिनवाणी को नमन करें, जिनवाणी का वंदन करें, जिनवाणी की स्तुति करें। जो आप पढ़ रहे हैं, उसे केवल पढ़े नहीं, बल्कि क्या लिखा है उसे ध्यान से समझने की कोशिश करें। तब आपको स्वाध्याय का वास्तविक लाभ होगा। आप जितनी जिनवाणी की विनय करोगे, ज्ञान का उतना क्षयोपशम बढ़ेगा। विनय और बहुमान के साथ किया गया अध्ययन ही जीवन के लिए कल्याणकारी है।
ज्ञान बढ़ाने के लिए आप स्वाध्याय मत करो, मन रमाने के लिए स्वाध्याय करो। अपने मन को रमाओ। स्वाध्याय का मूल प्रयोजन यही है। इस भाव धारा के साथ यदि आप स्वाध्याय करेंगे तो निश्चित वह आपके लिए लाभकारी / गुणकारी होगा।
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