सर्जरी से हुए बच्चों की जन्मकुंडली क्या प्रासंगिक है? नाम का क्या प्रभाव होता है?

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शंका

ऑपरेशन से हुए बच्चों की जन्म कुण्डली क्या सही होती है? जैन धर्म कर्म-सिद्धान्तवादी है, तो बच्चे का नामकरण कलश की जगह कैलास रखें या कैलास की जगह कलश रखें तो क्या उसकी तकदीर का परिर्वतन हो सकता है?

समाधान

जहाँ तक जन्म कुण्डली का सवाल है, तो अब समय बदल गया है; पहले तो जन्म होने के बाद जन्मपत्री बनती थी आजकल लोग पत्र पहले बना लेते हैं जन्म बाद में होता है, ये तो सीजेरियन (caesarean) का हाल है। मैंने पहले भी कहा है कि आज की व्यवस्था के अनुसार जन्मपत्री अप्रासंगिक सी हो गयी क्योंकि अब किसी का जन्म नैसर्गिक है ही नहीं। आदमी किसी गाँव का रहने वाला है और उसका जन्म हो रहा है कलकत्ता में, मुंबई में, बड़े-बड़े शहरों में, १००, २००, ५०० किलो.मी. दूरी पर। अब कुण्डली बनेगी तो जिस स्थान पर उसने जन्म लिया है वहाँ के अक्षांश और देशांश के हिसाब से बनेगी। यदि एक शहर के एक अस्पताल में एक साथ दस बच्चों का जन्म एक समय में हुआ है, तो  जब आप गोचर के हिसाब से जन्म पत्री बनाओगे तो सबकी एक ही जन्मपत्री बनेगी। पर क्या सबका भाग्य एक जैसा होगा? इसलिए जन्मपत्री के सन्दर्भ में इतना ही कहना चाहता हूँ कि जन्मपत्री को मानना है तो मानो, लेकिन लकीर के फ़कीर मत बनो, ये बहुत ज़्यादा प्रासंगिक नहीं है। 

अब सवाल है कि शादी-विवाह में क्या करें? जन्मपत्री मिलायें या न मिलायें? यदि मिलाना है, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं लेकिन जन्मपत्री से ज़्यादा mental vibration के मिलने की ज़रूरत है। सारी पत्री मिलाने के बाद भी तो अनर्थ हुए। रामचन्द्र जी की शादी कुण्डली मिलाकर के शादी की गई थी, लेकिन वह सफल थी। क्योंकि सीता ने उनको वन में भी नहीं छोड़ा। यदि कुण्डली नहीं मिली होती और आज की सीता होती और उसके राम को वनवास जाना होता तो मामला गड़बड़ हो जाता। जब रामचंद्र जी का वनवास हुआ तो सीता जी उनके साथ जाने को तैयार हो गईं तो रामचंद्रजी ने कहा कि ‘तुम्हारे पाँव इतने कोमल हैं, तुम जंगलों के कंकड़ों वाले मार्ग पर कैसे चलोगी?’ तो उसने कहा कि ‘प्रभु! आप क्या कह रहे हो? यदि मेरे मेरे पाँव कोमल हैं तो क्या हुआ, मैं आपके आगे-आगे चलकर अपने इन कोमल पैरों से तीक्ष्ण कंकड़ों को मृदु बनाती हुई चलूंगी।’ ये सीता का मनोभाव था, कुण्डली मिली, इसीलिए। आज की सीता ऐसा नहीं बोलती।

एक बार ऐसा हुआ कि मैंने रामायण की चर्चा की और मेरे पास कुछ महिलायें बैठी हुई थीं। तो मैंने ऐसे ही पूछा कि सीता की जगह आप होती तो आप क्या करतीं? तो महिला ने कहा कि मैं भी वन को जाती। मैंने कहा कि ‘अच्छा! सीता के चरित्र से आप ऐसी प्रभावित हो गईं?’ उसने कहा कि ‘महाराज! प्रभावित होने की बात छोड़ो, तीन-तीन सासुओं के नियंत्रण में रहने से अच्छा है कि पति के साथ जंगल में अकेले रहो।’ 

आपने नाम के विषय में पूछा? नाम तो केवल एक व्यवहार चलाने का साधन है। नाम रखने मात्र से काम नहीं होता है। कई ‘फकीरचंदों’ को हमने करोड़पति देखा है और ‘करोड़ीलाल’ फ़कीर बने हुए है। जहाँ तक हो सके आप जन्मपत्री के हिसाब से नाम रखो कोई बुराई नहीं है, रखना अच्छा होता है। लेकिन ऐसा मत सोचना कि हमने जन्मपत्री के हिसाब से नाम रखा है, तो काम हो जायेगा। काम तो हमारे अन्तरंग और बहिरंग निमित्त के हिसाब से होता है। 

एक व्यक्ति का नाम ठनठन पाल था। उस बड़ा अखरता था कि मेरा नाम ठनठन पाल है। वो सोचता था कि कोई अच्छा नाम रखवाऊँ, ये नाम ठीक नहीं लगता। तो वो कोई अच्छे नाम की खोज में निकला। तो देखता क्या है कि एक महिला है जो साड़ी के नाम पर चीथड़े पहने हुई है, पचास जगह पैबंद लगे हैं और वो खेत में कंड़े बीन रही है। उसने उससे पूछा कि ‘बहन जी! आप का नाम क्या है?’ तो उसने कहा कि ‘लक्ष्मी’ उसको बड़ा आश्चर्य हुआ। आगे बढ़ा, एक व्यक्ति खेत में हल जोत रहा था। और बड़ी दीन हीन अवस्था में था। उसके तन पर एक गमछा मात्र था। उसने पूछा कि ‘भाई! तुम्हारा नाम क्या है?’ उसने कहा ‘धनपाल’। एक शव यात्रा चल रही थी। उसने उसको देखा और पूछा कि ‘भाई क्या बात है? कौन मर गये?’ तो जवाब मिला ‘अमर सिंह’। तब उसने सोचा कि 

लक्ष्मी कंडा बीनती, हल हाँके धनपाल 

अमर सिंह भी मर गये, हम नोने ठनठन पाल।”

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