किसी बच्चे में शुरू से इतने संस्कार डालते हैं, उसको पहले भाग से लेकर छहढाला तक पढ़ाते हैं। उसके बाद भी वह मन्दिर नहीं जाता, माँ बाप के लिए गाली निकालता है, ब्लैकमेल करता है। अगर यह पाप-पुण्य का उदय है, तो संस्कार का क्या महत्व है?
अच्छे संस्कार का ही अच्छा परिणाम होता है पर संस्कार क्या है? पहले इसे समझें। धार्मिक शिक्षा पढ़ाने मात्र का नाम संस्कार नहीं है। संस्कार का तात्पर्य है, उसके मन में धर्म के प्रति निष्ठा उत्पन्न करना और पाप से डर प्रकट करना।
यदि बच्चे के मन में प्रारंभ से संस्कार भर दिया जाए तो बच्चा कहीं डगमगाएगा नहीं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि माँ-बाप प्रारंभ में अपने बच्चों पर जब ऐसे संस्कार डालते हैं, थोड़े समय तक ठीक ठाक रहता है। बच्चा बड़ा होता है, बाहर पढ़ने लिखने जाता है या और कोई दूसरे प्रसंग उसके साथ जुड़ जाते हैं तो धीरे-धीरे उसकी चर्या क्रिया में अन्तर आ जाता है। एक उम्र तक बच्चा माँ बाप की बात मानता है बड़ा हो जाने के बाद वह अपनी माँ बाप की अवहेलना करने लगता है।
अब इसके पीछे कारण क्या है, संस्कार के साथ संगति का भी बहुत बड़ा योग होता है। अच्छे संस्कार से संपन्न व्यक्ति भी गलत संगति में पड़ जाने के कारण भटक जाता है। संगति से संस्कार प्रभावित होते हैं इसलिए हमारे आचार्यों ने मुनियों तक को अच्छी संगति में रहने की प्रेरणा दी है। तुम अच्छी संगति में, अच्छे मुनि के साथ रहो क्योंकि संगति का हमारे मन पर गहरा असर पड़ता है।
कई बार ऐसा देखने में आता है कि अच्छे संस्कार संयुक्त व्यक्ति भी गलत संगति के शिकार होने के कारण भटक जाते हैं, उनके साथ जैसा आपने कहा उस तरह की दुर्बलताएँ आ जाती है पर घबराएँ नहीं, यदि प्रारम्भ के संस्कार मजबूत हो, तो मेरा अनुभव यह बताता है कि संस्कार धूमिल भले हो जाए, विनष्ट नहीं होते। मन में भाव जगने के बाद परिवर्तन आता ही है।
इसलिए यदि किसी की सन्तान गलत रास्ते पर चले जाए, गलत व्यवहार करने लगे, तो भी उसको कोसो मत, उसकी दूसरी जगह आलोचना मत करो, शिकायत मत करो। उसके इस व्यवहार को अपने कर्म का उदय मान करके स्वीकार करो और योग्य अवसर की प्रतीक्षा करो। हमेशा भावना भाओ, भगवान से प्रार्थना करो, “हे भगवान! उसको ऐसी सदबुद्धि मिले जिससे मेरी कोख कृतार्थ हो और मेरा कुल गौरवान्वित हो”, उसका जीवन उच्च होगा।
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