आपने प्रवचन में कहा था कि जब भी धरती पर मूक जानवरों का वध होगा, तब पृथ्वी पर कंपन होगा, भूकंप आएगा। रामचरितमानस में भी तुलसीदास जी ने दो-तीन दोहे इसी प्रकार के लिखे हैं कि गाय पर जब-जब अत्याचार होगा, तब-तब भूकंप आएँगे और जब गाय का वंश समाप्त हो जाएगा, पूरी पृथ्वी रसातल में चली जाएगी। अब प्रश्न यह है कि किस तरह हम इन जीवोंं को बचा सकें और किस प्रकार छोटे-से-छोटे जीवोंं की रक्षा कर सकें?
रमेश जैन, जयपुर
इसका एक ही उपाय है – प्राणी मात्र के प्रति हर व्यक्ति के हृदय में संवेदना जगाएँ। आज मनुष्य की संवेदनाएँ क्षीण होती जा रही हैं। अन्य प्राणियों की बात तो जाने दो, आदमी, आदमी के प्रति क्रूर होता जा रहा है और ऐसी क्रूरता का परिणाम बहुत भयानक निकल रहा है। हमें चाहिए हम लोगों के भीतर की संवेदना को जगाएँ, यह जानें कि जीव का कितना महत्त्व है। जैसे हमारे प्राण हैं वैसे अन्य प्राणियों के भी प्राण हैं। अगर मनुष्य के हृदय में संवेदना जग जाएँ तो क्रूर से क्रूर प्राणी का भी हृदय परिवर्तित हो सकता है।
मैं दो घटना सुनाना चाहता हूँँ- भगवान महावीर के काल में एक बड़ा क्रूर कसाई था, काल सौकरिक। वह 500 भैंसों का प्रतिदिन वध किया करता था। उसका बेटा था सुलस। काल सौकरिक जितना क्रूर था, सुलस उतना ही दयालु था। काल सौकरिक रोज अपने बच्चे को अपने हिंसा के दर्शन का बारे में बताता। अपने कुलधर्म की दुहाइयाँ देता, लेकिन सुलस के मन में इसका विपरीत असर पड़ता। उसे जितना हिंसा के लिए प्रेरित किया जाता, उसकी अहिंसा की आस्था उतनी मजबूत होती जाती। कल सौकरिक सोचता “पता नहीं कौवे के घर में यह हंस कैसे पैदा हो गया?” एक दिन काल सौकरिक मर गया और उसके मरणोपरांत उसके परिजनों ने सुलस से आकर कहा कि, “तुम्हें बाकी दिन जो कुछ करना हो तो करना, पर कम से कम आज के दिन नेक (शगुन) के रूप में तो कम से कम भैंसे को मारो, अन्यथा तुम्हारे पिता को शांति नहीं मिलेगी। आज के दिन तलवार चलाना तुम्हारा धर्म है।” इतना कहकर लोगों ने सुलस के हाथ में तलवार पकड़ा दी। सुलस ने हाथ में तलवार ली। एक तरफ अपने परिजनों को देखा और दूसरी तरफ उस भैंसे की आँखों को देखा जो बड़ी कातर दृष्टि से सुलस की ओर निहार रहा था। सुलस ने तलवार को अपने हाथ में लिया और कहा कि, “ठीक है, कुल धर्म की रक्षा के लिए यदि मुझे तलवार चलाना ही है तो लो मैं तलवार चलाता हूँँ। पर इस भैंसे पर नहीं, अपने पाँव पर।” वह अपने पाँव पर तलवार का प्रहार करने ही वाला था कि उसके परिजनों ने लपककर उसके हाथ पकड़ लिए। बोले, “ये क्या किया? अभी थोड़ी-सी चूक होती तो हमेशा के लिए अपंग हो जाता। मारना तो भैंसे को था”। वह बोला, “नहीं, जैसे मेरे प्राण हैं वैसे इस भैंसे के प्राण हैं। अन्तर केवल इतना है कि मैं और मुझ जैसे प्राणी बोल सकते हैं। ये बोल नहीं सकता, ये मूक है, बेजुबान है, पर बेजान नहीं। जान तो हमारी और इसकी दोनों की समान है। मैं क्या कर सकता हूँँ?” उसके हाथ से तलवार छूटकर नीचे गिर गई और उसने कभी जीवन में हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया। यह तो भगवान महावीर के युग की बात है।
कलयुग में भी, मैंने सुना मुंबई में एक व्यक्ति जो किसी कसाई के घर में जन्मा, लंबे समय तक कसाई का व्यवसाय भी किया। उसका हृदय परिवर्तित हुआ और आज वह गौ रक्षा के अभियान में लगा हुआ है। आज हजारों गायों की रक्षा करता है। इंडिया टुडे में उसका नाम भी छपा है। नाम तो मुझे नहीं मालूम। उसके बारे में दो बार इंडिया टुडे में यह बात आ गई है। तो एक कसाई के घर में जन्म लेने वाले व्यक्ति के हृदय में भी संवेदना जगने पर दया के स्वर फूटते हैं, करुणा मुखरित होती है। हमारी एक ही कोशिश होनी चाहिए हर व्यक्ति के हृदय में संवेदना जगाने की।
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