संयोग और वियोग की हमारे जीवन में क्या भूमिका है?

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शंका

संयोग और वियोग कर्म के अधीन है, तो इसमें पुरुषार्थ की क्या भूमिका है?

समाधान

पुरुषार्थ के माध्यम से संयोगो को बदला भी जा सकता है, संयोग बढ़ाया भी जा सकता है इसके लिए अनेकांतात्मक दृष्टिकोण रखो। जब कोई कर्म करना हो तो इस विश्वास के साथ करो कि जैसा मैं कर्म करूँगा, वैसा परिणाम होगा, अपना शत-प्रतिशत उसमें समर्पित करो। संयोग की बात तब स्वीकारो जब खूब करने के बाद भी परिणाम अनुकूल न हो या कोई अगर अघट घट जाएँ तो मानो भाई ऐसा ही संयोग था। यह हमारे चित्त के समाधान की एक विधि है। आपने बोला कि सब कर्म के अनुकूल होता है। निश्चित ही कर्म के अनुकूल होता है पर जैन कर्म सिद्धान्त में एक सुविधा है कि हम कर्म की धारा को मोड़ सकते हैं क्योंकि कर्म अपना फल देने में पूरी तरह स्वतंत्र नहीं है। हम कर्म से परतंत्र है, तो कहीं कर्म भी हमसे परतंत्र है। कर्म अपना फल धर्म, क्षेत्र, काल, भाव के हिसाब से देता है। जैसे अभी आप यहाँ हैं यदि आपको कोई गाली देगा तो गुस्सा आएगा? आएगा, लेकिन कितना आएगा? हल्का आएगा हो सकता है आप प्रकट भी न करो। अभी मैं आप पर कोई आक्षेप करूँ, आप को खराब तो लगेगा लेकिन चलो महाराज का आक्षेप भी मेरे लिए आशीर्वाद है, शान्त रह जाओगे। दरवाजे के बाहर अगर आपका कोई दुश्मन { जिसे आप मानते हो, भगवान न करे आपका कोई दुश्मन हो } लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जिससे आपकी अनबन चल रही हो वह आपके लिए कुछ कहे तो क्या आपको बर्दाश्त होगा? क्यों नहीं हुआ? जो कर्म यहाँ है वही कर्म वहाँ है लेकिन यहाँ का धर्म, क्षेत्र, काल, भाव अलग है, वहाँ का धर्म, क्षेत्र, काल, भाव अलग है। यहाँ रहे तो आपका गुस्सा शान्त हो गया, वहाँ रहे तो गडबड है। दूसरा उदाहरण दे देता हूँ- आप की कपड़ों की दुकान है और दुकान में ग्राहक 1 घंटे से माथापच्ची कर रहा है। किसी की साडी की दुकान हो और कोई महिला आई है और एक घंटा तक 50 प्रकार की साड़ियाँ देखी और एक भी पसन्द नहीं की, ऊपर से यह और कह दिया आपकी दुकान में तो कुछ है ही नहीं। आप बताइएगा, लोभ के वशीभूत अच्छा बोलना पड़ेगा- हाँ बहन जी, दो दिन बाद नया स्टॉक आने वाला है। यही बात आपकी घरवाली आपके साथ करे तो क्या इतना पेशेंस रखोगे? माथा मत खाओ, एक घंटा से दिमाग चाट जा रहे हो, इसी लिए बुलाया था क्या? क्या हुआ? द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के परिवर्तन से कर्म में परिवर्तन आ जाता है। इसलिए जब तक हमारे हाथ में वश है तब तक परिवर्तन करे, बाद में संयोग को स्वीकार करे।

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