मौन की जीवन में क्या सार्थकता है? मौन रहने वाले व्यक्ति के जीवन में क्या उसके जीवन, स्मरण और वाक् शक्ति प्रभावित होती है? मौन रहने के क्या अनुकूल और प्रतिकूल प्रमाण आते हैं और क्या हर वक्त व्यक्ति को मौन रहना चाहिए या कभी उसका प्रतिकार भी करना चाहिये?
मौन एक बड़ी साधना है, हमने कहावत सुना है-‘व्हेन स्पीच इज गोल्ड देन साइलेंस इज गोल्डन’ (WHEN SPEECH IS GOLD THEN SILENCE IS GOLDEN) बहुत पुरानी कहावत है। जीवन में कई बार ऐसा अनुभव आपने भी किया होगा, सबने किया होगा, जो बातें हम अपने वचनों से व्यक्त नहीं कर पाते हैं, उनकी अभिव्यक्ति हमारे मौन से हो जाती है, तो मौन की अपनी महिमा है। जहाँ तक मौन साधना का सवाल है, तो मौन साधना से हमारी हमारी प्रवृत्तियाँ नियंत्रित होती हैं, विकल्प शान्त होते हैं और जब हम मौन धारते हैं तो हमारा स्वयं के साथ संवाद जुड़ता है। अक्सर जब हम बोलते-चालते रहते हैं तो हमारा कम्युनिकेशन औरों से होता है, हम अपने साथ नहीं जुड़ पाते। जब हम मौन हो जाते हैं तो हमारे साथ हमारा अपना संवाद जुड़ पाता है। जब स्वयं के साथ स्वयं का संवाद जुड़ता है, तो हमारे अन्दर की शक्तियाँ स्वत: उद्घाटित होने लगती हैं। इसलिए अपने विकल्पों के शमन के लिए, वृत्तियों के शोधन के लिए और अपनी शक्ति के व्यर्थ बर्बादी से बचने के लिए मौन धारण करना चाहिए। जहाँ तक मौन रखने से वाक शक्ति का सवाल है मुझे यह अनुभव नहीं कि मौन रखने से व्यक्ति की वाक शक्ति प्रखर होती है पर मुझे इतना पता है कि मौन रखने से बोलने की ताकत जरूर आ जाती है।
सन २००४ में मुझे लैरिंजाइटिस हुआ। एक रात क्रशर पर रुक गया, गिट्टी वाली क्रशर होती है, पूरा एरिया क्रशर का था। रात भर डस्ट से बड़ा गहरा इंफेक्शन हो गया। अब उससे मेरे गले में बड़ा ज़्यादा इंफेक्शन हो गया, बोलना मुश्किल। अब उस समय मुझे प्रवचन भी करना था क्योंकि उस समय मेरे साथ कोई नहीं था, सन २००४ की बात है, मैं जबलपुर में था तो डाक्टरों ने कहा आपको मौन रहना होगा। मैंने तय किया कि प्रवचन में जाने के २ मिनट पहले मौन खोलूंगा, प्रवचन करते ही मौन हो जाऊँगा। आप सबको यह बताऊँ, २३ घंटे का मौन रहता था मेरा, एक घंटा मैं प्रवचन करता था लेकिन उस २३ घंटे के मौन का परिणाम यह निकला कि मैं एक घंटा धाराप्रवाह बोलने में समर्थ हो जाता था। ये इस बात का द्योतक है कि मौन रहने से बोलने की ताकत तो आती है। आप लोगों को भी अनुभव होगा जब गले में तकलीफ होती है, तो डाक्टर बोलता है ‘भैया थोड़ा मौन हो जाओ यानि अपना गला व्यर्थ में मत थकाओ!’ तो मौन एक साधना है और हमारे सामने कुछ ऐसे भी उदाहरण आते हैं कि जो नियमित मौन होता है वो यदि अपने मुख से कुछ उच्चारित करता है, तो कहते हैं, जो वह बोलता है वह घट जाता है- ऐसा मैंने सुना है, पढ़ा है, अनुभव नहीं किया। आपने पूछा- ‘ क्या हर स्थिति में मौन रहना उपयुक्त है या कभी बोलना भी उचित है?’ हमारे शास्त्रों में कहा कि ‘स्वयं पर यदि कोई विपत्ति आए तो मौन हो, जहाँ पाप की सम्भावना हो वहाँ मौन हो लेकिन’
धर्मनाशे क्रिया ध्वनसे संवितत्वों तत विप्लवे, अपृष्टये रपि वक्तव्यं जिन सिद्धान्त सुरक्षितं।
‘जब धर्म का नाश होता दिखे, क्रियाओं का ध्वंस होता दिखे, तत्त्व का विप्लव होता दिखे तो बिना पूछे भी बोलना चाहिए क्योंकि उसके बिना हम धर्म की रक्षा नहीं कर सकते, संस्कृति की रक्षा नहीं करते, राष्ट्र की रक्षा नहीं कर सकते, समाज की रक्षा नहीं कर सकते’- तो ये एक सीमा है। जब हमारे मौन रहने से किसी का अहित हो तो वहाँ बोल देना चाहिए। जब हमारे बोलने से किसी का अहित हो वहाँ मौन रहना चाहिए।
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