मन्दिर जी अपने आप में एक पवित्र स्थान है और अनेक दोषों का निवारण करने वाला है, तो फिर उसमें वास्तु दोष का क्या महत्त्व होता है?
मन्दिर से दोषों का निवारण होता है, पर मन्दिर में दोषों का निवारण कब होता है जब वहाँ हम ऊर्जा का संचय करें। ऊर्जा है, ऊर्जा का प्रवाह आता है और जाता है। नकारात्मक ऊर्जा भी होती, सकारात्मक ऊर्जा भी होती है। जहाँ सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है, वो हमें ज़्यादा प्रभावित करता है। और नकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह बढ़ जाता है, तो वो हमें कम प्रभावित करता है। कभी-कभी नकारात्मक ऊर्जा के बढ़े हुए प्रवाह से उसका नकारात्मक असर भी हम पर पड़ जाता है। तो मन्दिर को हमने बनाया, भगवान की प्रतिष्ठा की और उस प्रतिष्ठा के माध्यम से हमने सकारात्मक ऊर्जा का आरोपण किया। सकारात्मक ऊर्जा का आरोपण करने के उपरान्त भी यदि वहाँ वास्तु की अशुद्धि से कुछ नकारात्मकता बढ़ रही है, तो हमारे द्वारा आरोपित ऊर्जा का प्रभाव कम हो जाता है और बाहर से आयातित ऊर्जा का प्रभाव बढ़ जाता है, तो बहुत सारे दोष बढ़ जाते हैं। अगर हम वास्तु के सिद्धान्त के अनुसार उसमें थोड़ा बहुत परिवर्तन करते हैं और वहाँ की उस नकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को अवरुद्ध कर देते, रोक देते हैं तो इसका फल दिखता है।
ये एक वैज्ञानिक बात है, उसको उसी दृष्टि से देखना चाहिए। मन्दिर बिल्कुल ऊर्जा का केंद्र है, लेकिन उस ऊर्जा के केंद्र को हम तभी तक जीवित रख सकते हैं जब वहाँ उस प्रकार की पवित्रता हो।
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