शास्त्र पढ़ते समय यदि त्रुटि हो जाय तो क्या करना चाहिए?

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शंका

हम गाजियाबाद में कईं धार्मिक संस्थाओं से, समितियों से जुड़े हुए हैं। उसमें बहुत पठन-पाठन का कार्यक्रम कर रहे हैं। २५ साल हो गए हमारी संस्था को। उसमें हमने भक्तामर जी, तत्वार्थसूत्र, सहस्त्रनाम। आजकल हमारे यहाँ रत्नकरण्ड श्रावकाचार और रयणसार चल रहा है।

लेकिन गुरुवर पढ़ाते-पढ़ाते मन में एक शंका-सी हो जाती है – कहीं मुझसे कहीं त्रुटि न हो जाए, कहीं पापाश्रव न हो जाए, मेरे ज्ञान बहुत अल्प क्यों है। मुझे क्या करना चाहिए?

समाधान

कोई कितना भी ज्ञानी क्यों न हो, प्रतिपादन में चूक होने की सम्भावनाएँ हमेशा होती हैं। और हम लोग जब भी शास्त्र को पढ़ते हैं, तो एक अन्त में एक आलोचना करते हैं। – 

यदर्थ मात्रा-पद-वाक्य हीनं, 

अक्षर-मात्र-पद-स्वरहीनं, व्यंजन-संधि-विवर्जित रेफम, 

साधुभिरत्र मम क्षमितव्यम, को न विमुह्रति शास्त्र समुद्रायै

अक्षर-पद-मात्रा से दूषित जो कुछ कहा गया मुझसे, 

क्षमा करो — करुणा कर बहुत दुःख से 

हम लोग बोलते हैं 

यदर्थ मात्रा-पद-वाक्य हीनं 

मैंने मात्रा-पद-वाक्य से हीन यदि कुछ कहा है, तो हे भगवन, हे जिनवाणी माँ आपकी कृपा से, वह सब शुद्ध हो। 

तो मैं आपसे और आप जैसे उन तमाम लोगों से, बहुत लोगों के साथ ऐसी दुविधा होती होगी। मैं औरों की बात क्या कहूँ खुद भी, जब भी किसी शास्त्र के प्रतिपादन में, मैं तत्पर होता हूँ और मुझे रंच मात्र भी संदेह दिखता है, तो उस घड़ी में मैं सबसे पहले भगवान को याद करता हूँ और कहता हूँ – हे भगवन! आपकी देशना के अनुसार मैं इस आसन पर बैठा हूँ। मुझे ऐसी शक्ति दें कि मेरे मुख से एक शब्द भी आपके कथन के विरुद्ध न हो। और अन्त में जब मेरा स्वाध्याय पूर्ण होता है, तो मैं यह प्रार्थना करता हूँ, जिनवाणी से क्षमा माँगता हूँ कि मैंने अपनी बुद्धि के अनुरूप जो सम्भव हुआ सो बोला। प्रयास किया पूर्ण अप्रमत्तता से बोलने की। लेकिन फिर भी मेरे प्रमाद, अज्ञानता या अल्पज्ञता के कारण मेरे प्रतिपादन में कोई चूक हो गई हो तो मुझे उसके लिए क्षमा करो। यह प्रार्थना आप कर लेंगे तो आपकी कोई दुविधा नहीं बचेगी और आप धर्म की प्रभावना में ज्ञान के प्रसार में एक अच्छे निमित्त बनेंगे।

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