अनुकूलताएँ और प्रतिकूलताएँ -दोनों जीवन को बहुत ज़्यादा प्रभावित करती हैं। अनुकूलताएँ, सारे मार्ग प्रशस्त कर देती हैं और प्रतिकूलताएँ सारे मार्ग बाधित कर देती हैं। इस यात्रा में जिन को अनुकूलताएँ मिली, वो यात्रा के साथ आ गए, बहुत आनन्द लिया और जिनको अनुकूलता नहीं मिली, वो यात्रा से वंचित रह गए। मेरे बेटे ने दिल्ली से पूछा कि मुझे अनुकूलता क्यों नहीं मिली? ऐसा क्या करें कि इस प्रकार की यात्राओं में आने की अनुकूलता प्रत्येक व्यक्ति को मिले?
अनुकूलताएँ मिलती नहीं, अनुकूलताएँ बनाई जाती हैं। आप सोचोगे कि “जब अनुकूलता मिलेगी तब मैं ऐसा करूँगा”, न भूतो न भविष्यति। अनुकूलता बनाने से होता है, आप अनुकूलता बनायें कि “मुझे करना है” और इसके लिए चाहिए प्रायोरिटी(प्राथमिकता)। अनुकूलता तो सबको थी। प्रतिकूलता उन्हें थी जो बीमार थे; प्रतिकूलता उन्हें थी जिन्हें छुट्टी नहीं मिल रही थी; प्रतिकूलता उन्हें थी जिनके यहाँ सूतक हुआ था; प्रतिकूलता उन्हें थी जिनके घर में कोई शादी-ब्याह था। जिनके घर में ये सब कुछ नहीं था, उनके पास सब प्रकार की अनुकूलता थी, लेकिन फिर भी नहीं आ पाए क्योंकि उनकी प्राथमिकता कुछ और थी। उनके लिए उनकी दुकान प्राथमिकता थी, उनका ऑफिस उनकी प्राथमिकता थी, उनका दफ्तर उनकी प्राथमिकता में था, इसलिए वो नहीं आ पाए। आप लोग आ गए क्योंकि आपकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी, “कुछ भी हो मुझे तो जाना है, मुझे जाना है” और आपने देखा अनेक लोग प्रतिकूलता में भी चले, जिनके पाँव छिल गए, छाले पड़ गए, फफोले आ गए, पर पाँव में छाले और चेहरे में मुस्कान, यही तो है प्रतिकूलता में अनुकूलता का विधान।
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