मन्दिरों में महिलाओं की वेशभूषा कैसी हो?

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शंका

वर्तमान में हमारे उच्च कुलों में जो हमारे बालक बालिकाएँ हैं वह सभी पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंगते जा रहे हैं। विशेष रूप से हमारी बालिकाएँ अपने पहनावे को इस प्रकार बदल चुकी हैं कि हमें नारी जाति को भी उसके लिए शर्म आती है। हमने इसके लिए बहुत बार प्रयास किए लेकिन हमारी प्रयास और आपके मार्गदर्शन में बहुत फर्क है। आपके मार्गदर्शन से हो सकता है कि हमारी बालिकाओं पर कुछ असर हो। मेरा यह भी अर्थ नहीं है कि वे बालिकाएँ धर्म से विमुख हो जायें, हम उनको बंधित कर दें कि- “आप इस वेषभूषा में मंदिर नहीं आएँगे” तो वे कहीं मंदिर आना ही न छोड़ दें। गुरुवर! मेरा निवेदन है कि हमें कोई ऐसा मार्गदर्शन दें कि हमारे बालक बालिकाएँ उसे समझें और देव, शास्त्र, गुरु के स्थान पर जब वो आएँ तो मर्यादित रूप से आएँ और हमे शर्मिंदा होना पड़ें।

समाधान

कुरल काव्य में बहुत अच्छी बात लिखी है कि – 

भूमि की उर्वरता का पता उसमें बोये गये बीज से लगता है, जब वह अंकुरित होकर फलता है, वैसे ही मनुष्य के आचरण से उसकी कुलीनता का पता लगता है।

आपका कैसा आचार-विचार, कैसा चाल-ढाल, कैसा रहन-सहन यह सब आप के कुल को बताते हैं। हमारी संस्कृति में सात्विकता को, संयम को और सादगी को प्रमुखता दी गयी है, तो वह कभी खोना नहीं चाहिए।

आपने जो बात उठाई है पहनावे की, मैं एक ही सवाल पूछता हूँ, आप लोग वस्त्र तन को ढकने के लिए पहनते हो कि तन को दिखाने के लिए? अपने मन से पूछो! तन ढकने के लिए वस्त्र पहना जाता है, तन दिखाने के लिए नहीं। मैं आजकल देखता हूँ कि लड़कों के कपड़े तो बड़े होते जा रहे हैं और लड़कियों के कपड़े छोटे होते जा रहें हैं। यह फैशन का अंधानुकरण है। कई बार लोग तर्क देते हैं कि “लोग अपनी नज़रों को ठीक रखें, हमारे पहनावे को क्यों रोकते हैं?” बिल्कुल, मैं नहीं रोकता! आपको जो पहनना हैं पहनें, मुझे उससे कोई आपत्ति नहीं। मैं केवल एक ही बात कहता हूँ “जिस घर में बिल्लियाँ हो उस घर में दूध को सदैव ढक करके रखा जाता है।” चारों तरफ बिल्लियों की आने की संभावना हो और दूध का बर्तन खुला होगा, तो वह दूध का क्या हाल होगा वह घर वाले जानते हैं। अपने दूध को सुरक्षित रखना है, बिल्लियों से बचाना हैं, तो बर्तन को ढक के रखो। मेरा इशारा समझ गये होंगे। ऐसे ही वस्तु को पहनो, जिससे आपके अंदर सात्विकता झलके। कम से कम धर्म के स्थानों में, गुरुओं के समागम में आप अपनी मर्यादा का परिचय दें। जिससे हम कुछ अच्छा आदर्श पा सकें, प्रेरणा पा सकें। 

मेरे पास अमेरिका से एक लड़की आई थी, अनु जैन। वह पिछले बीस सालों से अमेरिका में है, दस साल पुरानी बात कर रहा हूँ। उस समय वो समाजशास्त्र से पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही थी। मैंने उससे पूछा कि “अमेरिका में रहकर के तुम क्या अनुभव करती हो?” उसके जवाब जो थे, मैं आपको बताना चाहता हूँ। वह बोली, “महाराज जी, वहाँ जाकर हम लोग विशुद्ध भारतीय बन गये। अगर कोई अमेरिका प्रवासी यहाँ बैठे होंगे तो शायद मेरी बातों से सहमत होंगे। हमने पूछा “वहाँ की young generation क्या सोचती है?” उसने कहा कि “महाराज जी, जैसा यहाँ के लोग पचास बरस पहले सोचते थे। वहाँ हम लोग अपनी मर्यादाओं का बहुत अच्छे से पालन करते हैं। भले हम पन्द्रह दिन में एक बार मंदिर जाएँगे लेकिन महिलाएँ या तो साड़ी पहन कर के जाएँगी या सूट पहनकर जाएँगी, सिर ढक करके जाएँगी।” यह मर्यादा है। आज भी बड़ों का पैर छूना, बड़ों की इज़्ज़त करना हम लोगों के लिए बहुत अच्छा माना जाता है। उसको देख कर हम लोगों गौरव होता है। और हम से अमेरिकन inspired होते हैं, उनको प्रेरणा मिलती है।” 

तो वहाँ जाकर के वे अपनी संस्कृति के मूल्य को महत्व को समझ रहे हैं और यहाँ वाले लोग उसका अंधानुकरण कर रहे हैं। यह चीजें ठीक नहीं। मैं तो एक ही बात कहता हूँ, जब कोई स्त्री भारतीय परिधान पहन कर प्रस्तुत होती है, तो उसमें माँ और देवी का रूप दिखाई पड़ता है और वही विदेशी परिधान में आती है, तो वह एक भोग की वस्तु बनकर के रह जाती है, उसमें वह पवित्रता और सात्विकता प्रकट होती। तो कम से कम मैं यह कहना चाहूँगा, कानून बनाने की बात तो मैं नहीं कहूँगा, क्योंकि जैन धर्म में सख़्ती से इस तरह की बातों को लागू करने की परिपाटी नहीं है, कि मैं कोई फतवा जारी कर दूँ और लोग follow कर दें। यह समाज के अपने विवेक की बात है। पर आप लोग खुद अपने विवेक से करें। 

मैं एक घटना सुनाता हूँ। सेठ सुगनदास जी जैन जगत के एक महान श्रेष्ठी, बड़े उदार, धर्मनिष्ठ; जिन्होनें हस्तिनापुर का मंदिर बनाया। उन्होंने देखा कि गाँव के एक धनाढय परिवार के घर में बहू आई। जब वह मंदिर आती तो कुछ ज्यादा सज धज कर के आती थी। गाँव में आयें उस नववधू के ज्यादा सज धज के आने से सेठ साहब को ऐसा लगा कि इस से मर्यादा टूटेगी, और हमारी अन्य बहन, बेटियाँ, बहुएँ भी ऐसा ही करने लगेंगी। पर पराई बहू को टोकें कैसे? घर आकर के उन्होंने अपनी पत्नी से कहा “कल तुम ठीक इतने बजे मंदिर जाना और जितना ज्यादा साज श्रृंगार करके आ सको, आना!” फिर क्या, नगर सेठ की पत्नी और सेठ का आदेश! सोलह श्रृंगार करके मंदिर पहुँची। सेठ जी मंदिर के बाहर के दालान में स्वाध्याय के लिए बैठे थे और उनकी पत्नी और वह नववधू दोनों के पैर एक साथ मंदिर में पड़ें। जैसे ही पाँव पड़ें, सेठ जी ने कड़कते हुये कहा “यह मंदिर है कि वेश्या का दरबार?” सब एकदम सन्न; सेठानी को तो लगा जैसे उसके ऊपर कई घड़े पानी डाल दिया। दोनों उल्टे पाँव वापस लौट गईं। सेठानी एकदम गुस्से में, सेठजी अपना स्वाध्याय पूरा कर के घर गए और सीधे सेठानी के कक्ष में गए और कहा “क्षमा करना!” वह तो पूरे तेवर में थी, बोलीं- “क्या इसी अपमान के लिए आपने ऐसा कहा था?”, वे बोले – “नहीं प्रिय! तेरा अपमान तो मैं सपने में भी कभी नहीं कर सकता, आज तुझे अपमानित जैसा होना पड़ा, इसके लिए मैं तुमसे क्षमा माँगता हूँ।” पत्नी बोली – “आपने ही तो कहा था कि तुम सज धज के आना, मैंने अपनी तरफ से क्या किया।” “बिल्कुल ठीक! मैंने कहा था, तुम्हारी कोई गलती नहीं, मेरी गलती है।” उन्होंने बात खोलते हुए कहा “बात ऐसी थी, एक नई बहू को मन्दिर में मैं पिछले चार रोज से देख रहा हूँ, बहुत सज धज कर आ रही है, मर्यादा का हनन हो रहा है, मैंने सोचा उसको बोलूँगा तो मामला गड़बड़ हो जाएगा। उस पर मेरा कोई अधिकार नहीं, तुम्हें बोलने का मैं अधिकार रख सकता हूँ क्योंकि तुम हमारी धर्म-पत्नी हो। मैंने तुम्हें नहीं बोला तुम्हारे माध्यम से उसको बोला। अब पूरे गाँव में ऐसा संदेश जाएगा और कोई ऐसा कर पाएगा।” यह सेठ साहब की दूर दृष्टि थी। उसके बाद उस मंदिर में कोई अव्यवस्था नहीं हुई।

मैं आपसे कहता हूँ अच्छा आदर्श उपस्थित करो! यह नियम लो, धर्म स्थान में हम सात्विकता का परिचय देंगे। मैं तो कभी ध्यान नहीं देता, एक स्थान पर शंका समाधान में एक बहन जी आई, उन्होंने कुछ छोटे कपड़े पहने हुए थे। प्रश्न पूछ कर चली गईं, ना तो मुझे पता न ही वहाँ प्रश्न के लिए बुलाने वाले को पता। कार्यक्रम संचालकों के पास कई जगह से लोगों के फोन आ गए कि- ‘थोड़ा ध्यान रखो’, ये कन्नौज की बात है। तो मैं उन बहनों से कहना चाहता हूँ, अपना।तो कम से कम मेरा ख्याल ज़रुर रखना! इसलिए जो भी आए सात्विकता का परिचय दें, सहजता से आए।

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