पति के वियोग के बाद स्त्री का जीवन कैसा होना चाहिए?

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शंका

एक औरत जिसके साथ कोई दुर्घटना हो जाती है, या फिर वो अपने पति को खो दे, या ऐसा कोई भी व्यक्ति जो जीवन की इच्छा छोड़ दे तो उनके लिए आपका क्या मार्गदर्शन हो सकता है?

समाधान

मनुष्य को जीवन से कभी हारना नहीं चाहिए। मनुष्य जीवन हमें बहुत दुर्लभता से मिला है। ये सही बात है कि मनुष्य जीवन पाकर भी व्यक्ति को सदैव सब प्रकार की अनुकूलताएँ मिलें इसकी कोई गारंटी नहीं है। ये तो संसार है। संसार में संयोग-वियोग का क्रम तो चलता ही रहता है। लेकिन जो इस वास्तविकता को समझता है, वो इनसे ज़्यादा प्रभावित नहीं होता। 

यदि किसी औरत का पति अकारण चला गया उस समय में वो एकदम एकाकी, लाचार हो जाती है, आज ऐसी स्थितियाँ बनती हैं। पहले ही मैंने कहा कि मनुष्य को जीवन से कभी हार नहीं माननी चाहिए। ये मानकर चलें कि ‘सुख-दुःख, जीवन मरण, हानि-लाभ ये मेरे हाथ में नहीं है, ये सब कर्मों के अधीन हैं।’ इस पर कर्मों का नियंत्रण है, हमारा अपना नियंत्रण नहीं है। ये चलता रहता है। पहले तो प्रकृति की कोई भी मार हो, हम उसको स्वीकार करें। ये मानकर चलें कि समय घाव करता है और समय ही घाव भरता है। हर ज़ख्म का मरहम समय के पास है। यदि मनुष्य का मन जागृत है, तो विषमतम परिस्थिति में भी वो अपनी स्थिरता बना सकता है। विसंगतियों के बीच भी संगति बिठा सकता है, विसंगति में हमारी कोशिश होनी चाहिए। यदि किसी के पति का वियोग हो गया, वो एकाकीपन में क्या करें? ध्यान रखें मनुष्य के पास भी इतनी ताकत है कि वो अकेले भी अपनी सारी जिंदगी बिता सकता है।

हमारे पुराणों में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिसमें स्त्रियों ने वो कार्य किया है जो बड़े बड़े पुरुषों ने नहीं किया जिनके पास बहुत अवसर थे। यदि कोई स्त्री असमय में अपने पति को खोती है, तो मैं कहता हूँ कि सबसे पहले यदि उसके बच्चे हैं तो वो बच्चों की परवरिश करे। अपने आप को इतना मजबूत बनाएं कि अपने बच्चों को माँ और पिता दोनों का प्यार दे सकें। दोनों जिम्मेदारियों को बराबरी से निभा सकें। स्त्रियों के पढ़ने लिखने का यही उद्देश्य है। उसे इसलिए पढ़ना-लिखना चाहिए कि जीवन में कभी कोई ऐसी स्थिति आए तो कभी परमुखापेक्षी न बने, बच्चों को इतना मजबूत बनाएं। उसके लिए उसे खुद को मजबूत होना पड़ेगा। ऐसे विषम परिस्थितियों में उसके धैर्य की, उसकी बुद्धि की, उसकी समझदारी की, उसकी सहनशीलता की परीक्षा होती है। आप अपने बच्चों को मजबूत करें। 

दूसरी बात शील संयम का पालन करें। जो स्त्री शील का पालन करती है, ब्रह्मचर्य का पालन करती है उसके अन्दर आत्मा शक्तियाँ स्वतः विकसित होती हैं। भोग शक्ति से मनुष्य की आध्यात्मिक शक्तियाँ विनष्ट हो जाती है। शील, संयम और सदाचार अपनाएँ तो उसकी आत्म शक्ति बढ़ती है, और उस बढ़ी हुई आत्मशक्ति के बल पर बहुत कुछ करने की क्षमता प्राप्त कर लेती है। 

कहते हैं उन्हें असीम शक्तियाँ प्राप्त हो जाती है। तो शील, संयम और सदाचार का पालन करें, धर्म की शरण में जाएँ। अगर कोई स्त्री ऐसी स्थिति में धर्म की शरण में चली जाती है, तो वह अपने पाप को पुण्य में परिवर्तित करने में सक्षम हो जाती है। मेरे सम्पर्क में ऐसी बहुत सारी महिलाएँ है जिन्होंने जीवन के प्रारंभिक चरण में अपने पति को खोया लेकिन आज बहुत मज़े की जिंदगी जी रही हैं। ध्यान रखना पति खो जाए लेकिन अपने मन निष्ठा को कभी खोने मत देना। यदि तुम्हारी निष्ठा जीवित है, तो सब कुछ खोने के बाद भी तुम सब कुछ पा जाओगे और निष्ठा के अभाव में सब कुछ खोने के बाद भी कुछ नहीं पा सकोगे। इसलिए मैं कहता हूँ कभी अपने आप को एकाकी महसूस न करें, ‘सेल्फ कॉन्फिडन्स’ रखें। संयम का पालन करें, और किसी की कोई परवाह न करें। बस खुद के हाथों कोई ऐसा कार्य न करें जो लोक मर्यादा के विरुद्ध होता हो, लेकिन जो आवश्यकता हो अपने जीवन के निर्वाह के लिए उसमें बिना किसी संकोच के सभी चीजें स्वीकार करें। जवाबदारियाँ पूरी करें और ज़िम्मेदारी पूरी हो जाने के उपरान्त स्वयं को धर्म के मार्ग में लगा दें। जीवन का कल्याण होगा। 

यही सार संक्षेप में मेरा संदेश हैं, मैं एक बात और कहना चाहता हूँ कि समाज को अपनी मानसिकता बदलनी चाहिए। समाज में अभी भी तथाकथित रूढ़िवादी लोग ऐसे हैं जब कोई स्त्री अपने पति को खोने के बाद शील संयम सदाचार का पालन करती हैं तो वैधव्य पूर्ण स्थिति में समाज के कुछ लोग उसे अमंगल की दृष्टि से देखते हैं। वो जो दूसरे से शादी करके एक प्रकार का पाप कार्य कर रही हैं, उसको आदर देते हैं। एकदम गलत अवधारणा है। उसे एकदम बदल देना चाहिए। मैं तो कहता हूँ कि जो स्त्री अपने पति को खोने के बाद शील का, संयम का नियम लेकर ब्रह्मचर्य का पालन कर रही हैं उसे मांगलिक मानना चाहिए। वो ब्रह्मचारिणी है, पूज्य है, समाज के लिए आदरणीय है और धर्म के कार्य में उसे आगे लाना चाहिए। 

मेरे पास एक महिला एक बार आई बड़ी ही धर्मात्मा महिला थी। विवाह के १० वर्ष बाद उसके पति का वियोग हुआ, उसने न चाहते हुए एक से शादी कर ली और आहार देना चाहा, चूंकि हमारे गुरू की आज्ञा नहीं है कि शास्त्र के विधानानुसार जोड़े से आहार लेना। तो हमने कहा ‘हम आहार तो नहीं ले सकते हैं किन्तु ये निर्णय लिया क्यों?’ बोली-‘महाराज क्या कहूँ, मैं नहीं चाहती थी लेकिन जहाँ जाती थी लोग मुझे अमंगल की दृष्टि से देखते थे, शंका रखते थे। मैंने सोचा जीवन में कोई एक संबल तो चाहिए। मैं इससे बन्ध गई सोचा सुरक्षित रहूँगी। मैंने परिस्थिति से विवश होकर ये कार्य किया।’ तुम्हारी ये धारणा अनेक को पाप के मार्ग में ढकेल देती हैं। इस धारणा को बदल देनी चाहिए।

ये संसार है। किसकी आयु कितनी है, कौन जानता है? समाज को उसके साहस की, उसके पराक्रम की, उसके पुरूषार्थ की सराहना करनी चाहिए। उसे संबल देना चाहिए। संयम मार्ग में बढ़िया और हर अच्छे कार्य में ऐसे लोगों को आगे करना चाहिए। शास्त्र में उसका कोई निषेध नहीं है। यही विधान है और ऐसे कार्यों में जब समाज की ऐसी महिलाओं को आगे बढ़ाया जाएगा, समाज की ऐसी व्यवस्था की शुरूआत होगी तो अनेक बच्चों का भविष्य सुरक्षित होगा, क्योंकि जो महिलाएँ या पुरूष ऐसी स्थिति में किसी दूसरे से शादी कर लेते हैं तो उसमें उन दोनों का जीवन तो फिर भी चाहे कैसे खिच जाता है, पर ऐसे नन्हे मुन्ने बच्चों का जीवन ऐसे अन्धकार में हो जाता है। न इधर के रहते हैं और न उधर के रहते हैं। यदि उनको धर्म का मार्ग दिखाया जाए तो इससे अच्छा उनके लिए कोई मार्ग नहीं है।

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