सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए ग्रहस्थ क्या करें?

150 150 admin
शंका

सम्यक् दर्शन प्राप्त करने के लिए एक गृहस्थ को क्या करना चाहिए?

समाधान

सम्यक् दर्शन की प्राप्ति के लिए गृहस्थ को सबसे पहली आवश्यकता है गृहीत मिथ्यात्त्व के परित्याग की। मिथ्यात्त्व के निमित्त से जुड़े रहोगे तो निमित्त कभी प्राप्त नहीं होगा। गृहीत मिथ्यात्त्व के अन्तर्गत उपासना और अवधारणा दोनों ठीक करनी है। वीतराग की उपासना करना है; रागी-द्वेषी की उपासना नहीं करना। अवधारणा में कोई एकांती की अवधारणा मत बनाना, जो मूल तत्त्व का स्वरूप है उसके समझना। एकान्तवाद के पोषक बनोगे, गृहीत मिथ्यात्त्वी बन जाओगे तो कभी अपने जीवन का कल्याण नहीं कर सकते। 

एक बात और मैं कहता हूँ कि हमें ये मनुष्य जीवन बहुत दुर्लभता से मिला है और इस मनुष्य जीवन को हम पन्थवाद, सम्प्रदायवाद या जातिवाद में न खपाएँ। इस दुर्लभ मनुष्य जीवन को पाकर यदि हमे धर्म की सच्ची समझ मिली है, तो धर्म को अवधारित करें और भवसागर से उतरने का रास्ता प्रशस्त करें। 

दूसरी बात सम्यक् दर्शन को प्राप्त करने के लिए तीन निमित्त आचार्य कुन्दकुन्द ने बताये हैं। सम्यक्त्व के बाह्य निमित्त में जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्रतिपादित सूत्र तत्त्व का चिंतन करें, शास्त्रों का अध्ययन करें इससे सम्यक् दर्शन पुष्ट होता है। दूसरे क्रम में उसके ज्ञाता पुरूषों का समागम करें वीतराग निर्ग्रन्थ मुनिराजों का समागम प्राप्त करें। उनके समागम, संसर्ग और सानिध्य में रहने से हमारे जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन आता है। मैं तो ये बोलता हूँ कि जो बातें बड़े-बड़े शास्त्रों को पढ़ने से प्राप्त नहीं होती वो बात एक दिगम्बर मुनिराज के दर्शन मात्र से ही सीखने में आ जाती है। मैं औरों की बात नहीं जानता, मैं अपना अनुभव बोलता हूँ। मुझसे किसी ने एक बार पूछा ‘महाराज अपको वैराग्य कैसे हुआ?’ मैंने कहा ‘मुझे तो वैराग्य हुआ ही नहीं मुझे तो राग हुआ।’ वैराग्य के कारण लोग निकलें होंगे मैं तो राग के वशीभूत होकर निकला हूँ। परम पूज्य गुरूदेव की मुद्रा को मैंने देखा तो मुझे लगा कि जीवन का इससे उत्कृष्ट कोई रूप ही नहीं है। और मन की मन ये तय कर लिया कि अपने जीवन को इनके चरणों में समर्पित कर दो, तो तर जाओगे और मैं समर्पित हो गया। सच बताऊँ जिस क्षण में गुरू चरणों में समर्पित हुआ था न सम्यक्त्व जानता था, न मिथ्यात्त्व जानता था, न राग जानता था, न वैराग्य जानता था, कछ भी नहीं जानता था। मुझे वे गुरू, गुरू के रूप में नहीं दिखे भगवान के रूप में दिखे। मैंने उनकी शरण में अपने आप को समर्पित कर दिया और समर्पित कर दिया तो बस आज जो हूँ उनकी कृपा से हूँ। बाद में जब उनके चरण छाया में आया तब ये मालूम पड़ा आत्मा अनात्मा क्या होता है, तत्त्व अतत्त्व क्या होता है, धर्म अधर्म क्या होता है, भेद विज्ञान क्या होता है, सम्यक् दर्शन, मिथ्या दर्शन क्या होता है। आज वो मैंने केवल जाना ही नहीं उसका अनुभव भी किया और कर रहा हूँ और उनकी कृपा से मुझे केवल सम्यक् दर्शन नहीं रत्नत्रय की प्राप्ति हुई है जो आज फल रहा है और फूल रहा है। तो ये मार्ग सम्यक्त्व कहलाता है। 

दस प्रकार के सम्यक् दर्शन के जो भेद हैं उसमें एक भेद है मार्ग सम्यक्त्व, निर्ग्रन्थ गुरू का समागम, सच्चे गुरू के सानिध्य में रहने से ज्ञान वैराग्य सब बढ़ना है। वो तुम्हें अपने आप उल्लास जगाएगा। तो जिनसूत्र का अध्ययन, अनुशीलन और उनके ज्ञाता पुरूषों का समागम। सच्चे अर्थों में ज्ञाता वो नहीं जिसे शब्द ज्ञान है। सच्चे अर्थों में ज्ञाता वो है जिसे अर्थ ज्ञान है, जो भाव प्रत्यय को जीता है और वो वही होता है जिसके आचरण में वो ढलता है। 

मैं आपको इतना ही कहूँगा कि दो पकड़ लो, और दो में भी सब छोड़ दो किसी गुरू के सच्चे स्वरूप को समझकर उनकी चरण पकड लो और उनकी शरण में चले जाओ सम्यक्त्व क्या रत्नत्रय की प्राप्ति हो जाएगी और जीवन निहाल हो जायेगा।

Share

Leave a Reply