आज आहार चर्या के समय से ही मन में प्रश्न आ रहा है, वैसे तो बहुत दिन से आहार दे रहे थे। आज जब आपको ग्रास दिया तब आपने ग्रास का शोधन करके अन्दर डालते ही आँखें बंद कर लीं। आप पता नहीं कहाँ चले गए, थोड़ी सी देर के लिए मन में विकल्प भी आया। आप क्या सोच रहे थे? क्योंकि हम लोग भी भोजन तो करते ही हैं, यदि पता लगे तो हम भी वह चिन्तन करते हुए भोजन कर सकें और उस बन्ध से छूट जायें?
मुझे पता ही नहीं कि मैंने कब आंखें बंद कीं और मैं कब आँख खोलता हूँ? पर मैं जो करता हूँ, सहज करता हूँ। यह बात मान करके चलो, जब भी हाथ आप लोगों के आगे फैलाता हूँ उस समय मन में एक ख्याल आता है, देखो, तन के आगे हाथ फैलाना पड़ रहा है और मुँह में डालता हूँ उसी घड़ी अपने मन में कहता हूँ, शरीर के लिए ले रहा हूँ, स्वाद के लिए नहीं। जीभ से कह देता हूँ, स्वाद मत लेना। इसका ये परिणाम है कि मुझे स्वाद नहीं आता। क्या दे देते हो मुझे पता नहीं चलता और उसके कारण कभी-कभी आप लोगों की मिलावट भी नहीं पकड़ पाता। मुझे जब तक शंका (doubt) न हो, जानबूझ कर (intentionally) मैं अपना ध्यान न लगाऊँ, तब तक मुझे पता नहीं चलता। यही तो साधु की साधना है। भुँजन अपि न भवते, खाते हुये भी न खायें। उस घड़ी भी बस मेरे मन में एक ही बात, शरीर के लिए ले रहा हूँ, जीभ के लिए नहीं, मन के लिए नहीं।
Leave a Reply