किसी कार्यक्रम के सफल आयोजन के लिए क्या करें?

150 150 admin
शंका

२००१ में कुण्डलपुर में महामस्तकाभिषेक हुआ था। जिसमें १५ लाख आदमियों ने भाग लिया था। उसकी सारी व्यवस्थाएँ आचार्यश्री ने आपको सौंपी थीं। कार्यक्रम अत्यन्त सफल हुआ था। हम लोग ये मार्गदर्शन चाहते हैं कि हम लोग जब छोटे-छोटे से कार्यक्रम करते हैं तो हम लोगों से बहुत सी त्रुटियाँ और बहुत सी अव्यवस्थाएँ हो जाती हैं, तो उन्हें कैसे सम्भालें?

समाधान

किसी भी कार्य की सफलता के लिए एक शब्द आता है, well planning! प्लॅनिंग अच्छी होनी चाहिए। मैं कोई भी कार्य करता हूँ तो इस पर हमेशा ध्यान देता हूँ। इसकी मुझे प्रेरणा मिली कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर के एक लेख से। मैनेजमेंट से जुड़े हर व्यक्ति को उसे समझना चाहिए।

अयोध्या प्रसाद गोयलीय एक शादी के समारोह में गये हुए थे। वे अपनी अटैची को थोड़ा सा खोलते और जिस वक्त जो ड्रेस पहनना होता वही ड्रेस पहनने निकालते और वो एकदम फिट बैठता था। उनसे बातचीत में पूछा गया कि ‘आप जब जो चाहें ऐसे ही बिना खोले अटैची में दो ऊँगली घुसाते हैं और ड्रेस निकल आती है, ये मामला क्या है?’ तो बोले ‘भाई! मैं डबल जलसा करता हूँ। मैंने घर से निकलते समय ये बात अपने मन में बैठायी कि मैं वहाँ जाऊँगा, द्वारचार के समय मुझे कौन से कपड़े पहनने हैं, फेरे के समय मुझे कौन से कपड़े पहनने हैं, और रिसेप्शन के समय मुझे कौन से कपड़े पहनने हैं और मैंने उसी हिसाब से अपनी अटैची तह की, मेरा माइंड सेट होता है, मेरा टाइम बचता है।’ तो कन्हैया लाल प्रभाकर ने कहा कि ‘आप डबल जलसा करते हो, मैं डबल यात्रा करता हूँ’ और उन्होंने दूसरा सन्दर्भ सुनाया। बोले कि ‘आजादी से पहले की बात है एक चुनाव था और उस चुनाव प्रचार में जवाहरलाल नेहरू जी को सहारनपुर के इर्द गिर्द कई सभाएँ करनी थी। उनका कार्यक्रम था कि ३ बजे वो सहारनपुर के स्टेशन पर आयेंगे और देवबन्द जायेंगे और वापिस सहारनपुर आकर फिर लौटेंगे उनका कुछ कार्यक्रम था। उस कार्यक्रम में वो लेट हो गये। वो लेट हो गये तो जैसे-तैसे उन्होंने ट्रेन को तो रोक लिया। नेहरू जी को चाय पीने की आदत थी और वो ट्रेन में बैठकर कुछ लिख रहे थे, चाय नहीं मिली, तो थोड़ी बहुत तकलीफ तो थी। तो प्रभाकरजी ने धीरे से कहा कि सीट के नीचे चाय रखी है। नेहरूजी अपने हाथ से चाय बनाते थे। उन्होंने सीट के नीचे से टी सेट निकाला और उसमें से चाय बनाकर पी ली। बहुत अच्छा लगा। ट्रेन के बाद आगे तांगे से जाना था। तांगे में एक झंडा लगाना था। अब झंडा लगाने के लिए रस्सी चाहिए, तो प्रभाकर जी के थैले में रस्सी भी रखी हुई थी। उन्होंने रस्सी भी बाँध दी। नेहरूजी को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये मामला क्या है? बोले कि पंण्डित जी मैं हर यात्रा से पहले एक यात्रा और करता हूँ। जब मेरे जिम्मे ये सारी जिम्मेदारी सौंपी गयी तो मैंने सोच लिया था कि कहीं ट्रेन लेट हो जाये तो चाय की व्यवस्था कैसे होगी? मैंने अपने साथ चाय रख ली। मुझे पता था कि झंडा तांगे में बाँधना है, तो रस्सी रख ली। मैं जो भी काम करता हूँ तो उससे पहले प्रारम्भ से अन्त तक सोच लेता हूँ, तो वो मेरी ‘डबल यात्रा’ नहीं, सफल यात्रा हो जाती है। इसलिए कोई भी अच्छा कार्य करना है, तो डबल यात्रा करो तभी सफल यात्रा होगी।

Share

Leave a Reply