महिलाओं को अभिषेक करने का अवसर मिले तो क्या करना चाहिए?

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शंका

महिलाओं को अभिषेक करने का अवसर मिले तो क्या करना चाहिए?

समाधान

आपने एक बहुत ही संवेदनशील प्रश्न खड़ा किया है। अभिषेक, हमारी समाज में एक परम्परा है, जो स्त्री अभिषेक की हिमायत करती है और एक परम्परा है जो स्त्रियों के द्वारा अभिषेक का निषेध करती है। आप पूछोगे ‘महाराज! आप क्या कहते हैं?’ मैं तो आपको एक ही बात कहूँगा-इस पचड़े में ज़्यादा मत पड़ो? आपने आज तक नहीं किया है, तो मत करो। क्योंकि हमारे किसी भी मूल संघ के आचार्य के द्वारा प्रतिपादित किसी भी ग्रन्थ में स्त्रियों के द्वारा अभिषेक का कोई विधान हमें देखने को नहीं मिला। 

आपके चिंतन के लिए दो-तीन बातें मैं कहना चाहता हूँ। आगम में तीर्थंकरो के जन्म-कल्याणकों की जहाँ तक बात आई, उस समय भगवान का अभिषेक इंद्रों ने किया, इंद्राणियों ने भगवान का अभिषेक नहीं किया। उनके लिए कहा-

मंगलपात्राणि पुनस्तद्देव्यो बिभ्रतिस्म शुभ्रगुणाढ्या:

अप्सरसो कर्तक्य: शेषसुरास्तत्र लोकनव्यग्रघिय:।।।

अर्थात:- सौधर्मेन्द्र अभिषेक करता है और उनकी देवियाँ मंगल पात्र धारण करती हैं।

चाहे आचार्य जिनसेन हों आदि पुराण के कर्ता, या आचार्य पूज्यपाद हों, भगवान के जन्म अभिषेक के समय में उन्होंने किसी भी देवी से अभिषेक नहीं कराया। नंदीश्वर द्वीप में अष्टानिक के दिनों में देवता लोग ८ दिन तक अभिषेक करते हैं, पूजन करते हैं। वहाँ देवों के द्वारा अभिषेक का विधान आया, देवियों के द्वारा अभिषेक का कोई उल्लेख नहीं है। तिलोई पण्णत्ति इत्यादि ग्रन्थों में स्वर्ग में उत्पन्न होने वाले देवों के सन्दर्भ में ऐसा मिलता है कि कोई भी देव जब स्वर्ग में उत्पन्न होता है, तो भगवान का अभिषेक-पूजन ज़रूर करता है। देवों के द्वारा वहाँ अभिषेक कराया, देवियों के द्वारा अभिषेक का कोई विधान देखने को नहीं मिला। यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे मूल संघ की परिपाटी नहीं है। 

अब रहा सवाल-लोग करते हैं तो क्या करें? जो करते हैं उनको करने दो, आप उलझो मत। आपने आज तक नहीं किया, अनुमोदना करके भी अपने जीवन को धन्य कर लें। बहुत सारी ऐसी धार्मिक क्रियाएँ है जो आपने आज तक नहीं की, आपको उसका मलाल तो नहीं है। मान लीजिए आप व्रती नहीं बने, ठीक है भावना भाओ, बनने की अनुकूलता नहीं थी तो नहीं बने। हर कोई दीक्षा नहीं ले लेता लेकिन दीक्षा की भावना भाकर भी अपना काम चलाता है। ऐसी बहुत सारी क्रियाएँ हैं जो आप अगर साक्षात नहीं कर पाते और उसके प्रति भावना और अनुमोदना का भाव रखते हैं तो उसका भी लाभ आप ले सकते हैं। इन बातों में उलझने से कोई लाभ नहीं है। 

मैंने पहले भी इस पर प्रकाश डाला है इसलिए आप इन प्रश्नों को बार-बार उठाने का भी औचित्य नहीं। एक पंक्ति में मैं सभी लोगों से कह देता हूँ- धार्मिक क्रियाओं के सन्दर्भ में आप एक ही बात रखिये, आपने आज तक जो किया वह करते रहे, जो नहीं किया उसकी तरफ झुकाव मत बढ़ाइए, चाहे मेरे जैसा कोई मुनि भी आपसे क्यों न कहे। आप उनसे बहस मत कीजिए। आपको वो कुछ भी बोलें, कहिए- ‘महाराज आप सही, आपकी बातें सही, आप तो हमको ऐसा आशीर्वाद दो कि हम जितना कर रहे हैं वह करते रहें, इतने में भी मेरा बेड़ा पार हो जाएगा।’ उलझने की जरूरत नहीं है, भटकने की जरूरत नहीं है। जैन साहित्य के इतिहास को जब आप पढ़ेंगे तब आपको समझ में आएगा कि हमारे इतिहास में, साहित्य में समय-समय पर कितना परिवर्तन आया है।

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