आजकल जैसे ही एग्जाम टाइम खत्म होता है, तो माता-पिता अपने बच्चों का एडमिशन किसी न किसी समर कैंप में या स्किल डेवलपमेंट क्लासेस या किसी ट्यूशन क्लास में कराने के लिए भागमभाग करने लगते हैं। उन माता-पिताओं की तुलना उस व्यापारी से की गई है जो आम और पपीते सीजन से पहले ही कार्बाइड से पका देते हैं। वे फल समय से पहले पक तो जाते हैं लेकिन मिठास नहीं होती। ऐसे माता-पिता के लिए क्या मार्गदर्शन होना चाहिए?
कार्बाइड से पके आम और पपीता खाने का जो परिणाम होता है वही परिणाम ऐसी सन्तान का होगा, कार्बाइड उसे जहरीला बना देता है, उसकी गुणवत्ता को खत्म कर देता है। हम ऐसा करके जब बच्चों के ऊपर बहुत सारी चीजें थोपने लगते हैं और समय से पूर्व उन्हें आगे बढ़ाने की कोशिश करने लगते हैं, तो बच्चे अपरिपक्व मानसिकता के शिकार होते हैं। उनमें जैसा भावनात्मक विकास होना चाहिए, वह नहीं होता।
आजकल की जो पढ़ाई की पद्धति है इसने बच्चों के बचपन को छीन लिया है, घर-परिवार के साथ उनका कोई अटैचमेंट नहीं रहता। सब self-centered (आत्म केंद्रित) होते जा रहे हैं, नतीजे बड़े खराब हो रहे हैं। अपने माँ-बाप से, अपने परिवार से, परिजन से कोई प्यार नहीं रहता, स्नेह नहीं रहता। भावनात्मक रूप से वे सब के सब रुग्ण होते हैं। होना यह चाहिए कि बच्चे ने पढ़ाई कर ली, अब छुट्टियाँ है, तो उसे थोड़ी मस्ती करने का मौका मिले, खेलने- कूदने का मौका मिले, घूमने-फिरने का अवसर मिले, परिवार-परिजनों के साथ मिलने-मिलाने का मौका मिले जो हम लोगों के युग में होता था। हम लोग कम पढ़ कर के भी ज़्यादा सीखते थे। आज के बच्चे ज़्यादा पढ़ने के बाद भी डब्बा रहते हैं। स्थिति अलग है, उनको अपने कोर्स के अलावा बाकी चीजों का कोई ज्ञान नहीं है, तो व्यावहारिक पक्ष को भी देखना चाहिए, भावनात्मक पक्ष को भी देखना चाहिए और हर चीज में होड़ नहीं लगाना चाहिए कि यह भी सीख ले, यह भी सीख ले।
मैं आपको एक बात जरुर कहना चाहूँगा कि कोई भी बच्चा क्यों न हो, कितना भी अच्छा प्रतिभावान क्यों न हो, हर बच्चा हरफनमौला नहीं हो सकता। उसमें जो अच्छाई दिखे आप उस गुण को उद्घाटित करने के लिए प्रोत्साहित कीजिए। उसे किसी एक क्षेत्र में एक डायरेक्शन में बढ़ाएं जहाँ उसकी नैसर्गिक प्रतिभा हो। आपलोग कहते हैं ‘ये कोर्स भी कर लो, यह कोर्स भी कर लो, यह भी कर लो’ आप देखते है कि ‘मेरी देवरानी का बेटा कौन सा कोर्स कर रहा है, मेरी पड़ोसन का बेटा कौन सा कोर्स कर रहा है, तो यह कोर्स हमको भी कराना है या टीवी पर आपने एक एड देखा या कोई नया विज्ञापन दूसरे माध्यमों से देखा, बस ये करना है’ इस चक्कर में बच्चा कहीं का नहीं रहता। उसका बचपन समाप्त हो जाता है, ऐसा करके आप अपने बच्चों के साथ भी अन्याय कर रहे हैं, खुद के साथ भी अन्याय कर रहें हैं।
आपने बहुत सटीक उदाहरण दिया, यह सब कार्बाइड से पके आम और पपीते की तरह है जिनमें पक्कापन तो आ जाता है पर मिठास नहीं आती। यही हमें सोचनीय है, जीवन में माधुर्य प्रकट हो, मिठास प्रकट हो। हमें चाहिए कि हम सब कुछ वैसे ही करें जैसा कि अपेक्षित है।
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