जब सब कुछ हमारे कर्म और पुरुषार्थ पर ही निर्भर है, तो ऐसे में भगवान की क्या भूमिका है? उनका क्या महत्त्व है हमारे जीवन में?
भगवान न हमसे कुछ लेते हैं, न देते हैं। पर भगवान के माध्यम से हम बहुत कुछ ले लेते हैं और बहुत कुछ दे देते हैं। एक बार ऐसी ही बात हुई, एक प्रोफ़ेसर (professor) थी दर्शनशास्त्र की; उन्होंने मुझसे कहा, “महाराज जी, मुझे जैन दर्शन की बाकी बातें बहुत अच्छी लगती हैं लेकिन आपके यहाँ ईश्वर कृतित्ववाद नहीं माना जाता, ये नहीं जंचता। देखिए ना, ईश्वर ने हम पर कितनी बड़ी कृपा की, मेरे पति की दोनों किडनी (kidney) खराब हो गई थीं। ईश्वर ने उसे ठीक कर दीं।” मैंने कहा, “मैडम, यदि ऐसी बात है, तो मुझे आपके ईश्वर पर संदेह है।” बोलीं, “क्या मामला है?” मैंने कहा, “अगर आपके ईश्वर को किडनियाँ ठीक ही करनी थीं तो खराब क्यों की? अगर ठीक उसने की तो खराब भी उसी ने की।” फिर बोलीं, “तो महाराज आपके यहाँ ईश्वर की उपासना क्यों की जाती है?” मैंने कहा, “आप दर्पण देखती हो?” बोलीं, “देखते हैं।” मैंने पूछा, “क्यों देखते हो?” फिर बोलीं, “इसलिए कि कोई चेहरे में दाग धब्बा न लगा हो।” फिर मैंने पूछा, “तो क्या दर्पण आपके चेहरे के दाग को साफ कर देता है?” फिर वें बोलीं, “नहीं नहीं महाराज, दर्पण हमारे चेहरे को साफ नहीं करता। दर्पण में हम अपने चेहरे के दाग को देखकर खुद साफ कर लेते हैं।” हमने कहा, “बस यही स्थिति हमारे भगवान की है; भगवान एक दर्पण हैं, जिनमें हम अपने दाग धब्बे को देखते हैं और खुद उसे साफ कर लेते हैं। इसलिए भगवान न देते हुए भी हमें सब कुछ दे देते हैं।”
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