जब हम कर्मों का फल यहीं भोगते हैं तो फिर स्वर्ग-नरक क्यों हैं?
हम लोग जो कर्म करते हैं, उसका पूरा फल यहीं नहीं भोगते हैं। कुछ फल यहाँ भोगते हैं और जो शेष रह जाता है, उसको भोगने के लिए अगर अच्छा होता है, तो स्वर्ग जाना पड़ता है और बुरा होता है, तो नरक जाना पड़ता है।
इसको ऐसे समझो, जैसे किसी लोहे को गलाना होता है, तो क्या करना पड़ता है? लोहा २००० डिग्री सेंटीग्रेड पर गलता है। उसको गलाने के लिए जो उसका घरिया होता है, जिसमें लोहे को गलाया जाता है, वह ऐसे आइटम से बनाया जाता है जो ३००० डिग्री तक न गले। क्वार्ट्ज के पाउडर से उसका पूरा प्लेट बनाया जाता है, जो ३००० डिग्री तक नहीं गलता, तब वो लोहा उसमें गलेगा। ऐसे ही यहाँ पर हम लोग उतने ही दुःख भोगते हैं जितनी यहाँ की लिमिट है। उतनी लिमिट तक का तो काम यहाँ हो गया, अब इससे ऊँचे लेवल का काम होगा तो उसके लिए वैसा घरिया चाहिए। वो घरिया नरक में है, तो उसे भोगने के लिए नरक जाना पड़ता है। बुरे के लिए नरक में जाना पड़ता है; अच्छे के लिए स्वर्ग में जाना पड़ता है क्योंकि कर्म को भोगने के लिए भी वैसा द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव चाहिए। दुःख भोगने का सबसे अच्छा स्थान नरक है और सुख भोगने का सबसे श्रेष्ठ स्थान स्वर्ग है, इसलिए हमारा वहाँ ट्रान्सफर हो जाता है।
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