दान कहाँ करें?

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शंका

दान कहाँ करें?

समाधान

दान  का उद्देश्य क्या है? 

अनुग्रहार्थम स्वस्याति र्सवो दानं!

स्व-पर के  उपकार के लिए अपने धन का त्याग का नाम दान है। दान का उद्देश्य स्व-पर का उपकार है। अतः जिसमें स्व और पर का उपकार हो, वहां दान दें।

स्व का उपकार क्या ? दान करने से हमारे परिणाम निर्मल होते हैं और पुण्य की प्राप्ति होती है यह स्व-उपकार है। पर उपकार क्या है? पर के दुख की निर्वॄति होती है, पर को सहयोग मिलता है, यह पर-उपकार है। तो स्व और पर के उपकार के लिए दान करते हैं।

कई बार प्रश्न आता है,मेरे पास कई युवकों ने हमारे कक्ष में भी पूछा, पहले शंका समाधान में भी चर्चा आयी कि-“मंदिर बनाया जाता है, अन्य अन्य धार्मिक प्रोजेक्ट चलाए जाते हैं, इनमें रुपया लगाने की अपेक्षा हम मेडिकल कॉलेज खोलें, हॉस्पिटल खोलें, स्कूल खोलें इस तरह के अन्य समाज कल्याणकारी कार्यक्रमों को संचालित करें तो क्या अच्छा हो !” मैं समझता हूं आप सबके मन में भी इस तरह के प्रश्न उठते होंगे। निश्चित समाज-कल्याणकारी कार्य करना चाहिए, उसका निषेध नहीं है, पर आप यह बताइए, आपने एक व्यक्ति के लिए मेडिकल कॉलेज खोलकर चिकित्सा करा दी, उसके ऊपर कितना बड़ा उपकार किया, उसका जीवन को बचा दिया। आपने किसी व्यक्ति के लिए आजीविका दिला दी, आपने उसके परिवार की भरण-पोषण की व्यवस्था कर दी। एक साधन हीन बच्चे को पढ़ा-लिखा दिया, आपने एक व्यक्ति की जिंदगी बना दी। आपने किसी भूखे को रोटी खिला दी, कितना बड़ा उपकार किया! आपने उस भूखे व्यक्ति की भूख  को मिटा दिया दो चार दिन के लिए। ये सारा उपकार है, लेकिन कितने दिन का? एक दिन से लेकर एक जीवन तक का! इससे ज्यादा है क्या? लेकिन आप के द्रव्य से किसी जीव को सम्यक दर्शन की प्राप्ति हो गई। उस का कितना बड़ा दुख दूर हुआ? भव-भव के दुखों का निवारण हो गया। इसलिए धर्मायतानों के निर्माण में जो धन लगता है, स्व-परोपकारी है।

मैं आपसे कहता हूं, किसी मंदिर में आप जाते आपकी भाव विशुद्धि होती है। एक बार मंदिर को बना दिया वहां इन लोगों की भाव विशुद्धि से जीवन का कल्याण होता है। जीवन का सच्चा कल्याण इसी भाव विशुद्धि से होता है। ये  स्व-पर के उपकार के लिए किया जाता है, जिसके निमित्त से स्वपर का उपकार हो। हमारे ऐसे धर्म स्थलों के निर्माण से पीढ़ीयो का उद्धार होता है। चामुंड राय ने एक बाहुबली भगवान की प्रतिमा स्थापित की हजारों साल से ऊपर हो गए और आज भी लोग दिगंबरत्व के गीत गा रहे हैं। उसको देखते ही सब का मन आनंदित होता है, विश्व के सात आश्चर्य में एक जो शामिल हो गया; कितना पुण्य का कार्य किया! चामुंड राय ने उस समय औषधालय आदि कई चीज़ें बनाई होंगी, उनका कोई अता-पता नहीं। 

एक लौकिक दान है, एक परमार्थिक दान है, हमें दोनों क्षेत्रों में दान देना चाहिए। परमार्थिक दान, परम दान है और लौकिक दान, एक तरह का सामाजिक दान है, जो हमें शक्ति और परिस्थिति के अनुरूप, जहां जैसी आवश्यकता हो, देना चाहिए। लेकिन हमारे धर्म की प्रभावना, हमारे संस्कृति की रक्षा और लाखों लोगों का जीवनोद्धार धर्म- आयतनों के निर्माण से ही हो सकता है, इसलिए इसे वरीयता देनी चाहिये। यह एक मार्ग है, तो  ऐसे कार्यों में दान दें। 

हमारे यहां चार प्रकार की दत्ति बताई गई है  समदत्ति, दयादत्ति, पात्रदत्ति और सकलदत्ति। समदत्ति, अपने साथर्मी जनों के विकास के लिए आप जो ,कन्या आदि देते हैं, वह समदत्ति है। आप अपने दायित्व को पूर्ण करने के उपरांत अपने पुत्र को और पुत्र के अभाव में दत्तक पुत्र को जो धन देते हैं, तो उसका नाम है सकलदत्ति। जब आप अपना सब कुछ छोड़ रहे हैं, दीक्षा लेना है तो संतान को सौंप करके छोड़ रहे हैं इसको बोलते हैं सकलदत्ति। दयादत्ति, दीन दुखी जीवो के लिए उनके कल्याण के लिए जो दान दिया  जाता है, उसका नाम है दयादत्ति। चतुरविद संघ, धर्म, प्रभावना और संस्कृति के उत्थान के लिए जो दान दिया जाता है वह सब पात्रदत्ति है। बाकी दत्ति से पुण्य है और पात्रदत्ति परम पुण्य है।

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