वृद्धावस्था में व्यक्ति जब अपने घर की ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है, तो उसे व्रत-अभ्यास के लिए किस आश्रम का सहारा लेना चाहिए, वह स्थान कौन सा है?
गृहस्थ यदि अपनी ग्राहस्थिक ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो जाए तो उसे वानप्रस्थी बनना चाहिए।
ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और आखिरी में है सन्यास आश्रम! वानप्रस्थ आश्रम का मतलब किसी बाहर के संस्थान में जाना नहीं। आश्रम का मतलब है- गृहस्थाचार की अवस्थाएँ! गृहस्थों की जो धार्मिक जीवन की अवस्थाएँ होती हैं उसको आश्रम बोलते हैं। तो जब तक विवाह न हो तब तक ब्रह्मचर्य और जब विवाह करके गृहस्थ धर्म में बन्ध जाए, गृहस्थ धर्म का पालन करते हुए रहे तो गृहस्थाश्रम।
ग्राहस्थिक दायित्व का निर्वाह कर लेने के बाद, उसे पूर्ण कर लेने के बाद उसे वानप्रस्थी होना चाहिए। वानप्रस्थी होने का मतलब है- घर में रहते हुए भी न रहने जैसा होना। उदासीनता पूर्वक घर में रहना, अपने आप को घर के कार्यों में ज्यादा Involve (संलिप्त) नहीं करना, घर में मालिक की भांति न रहकर मेहमान की भांति रहना शुरू कर देना। घर के मामले में ज़रूरत पड़े तो मार्गदर्शन दें, मार्ग निर्णायक न बनें- ‘अब जो करना है तुम करो।’ अपना अधिकतम समय पूजा-पाठ, स्वाध्याय, सामायिक और धर्म ध्यान में लगाएँ। घर की बातों में Involve (संलिप्त) न हों, अपने आपको उनसे अप्रभावित रखें। जितना बने व्रत, संयम, साधना में अपने आप को आगे बढ़ाएँ। यह आपका वानप्रस्थी जीवन है, घर में रहते हुए भी न रहने जैसा। इस समय साधु-सन्तों के संपर्क, सानिध्य में भी अपना समय अच्छे से बिताया जा सकता है, उनसे प्रेरणा पाई जा सकती है।
जैसे-जैसे शरीर में शिथिलता आए अपनी साधना को प्रखर से प्रखरतर बनाया जाए और जब शरीर एकदम शिथिल हो जाए तब गुरु चरणों में जाकर सन्यास की भावना रखें और अपने जीवन के चरम लक्ष्य- सल्लेखना-समाधि की तैयारी शुरू करें, भावना भाएँ और क्रम से अपनी साधना को बढ़ाते हुए इस दुनिया से सल्लेखना के साथ विदा हों।
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