ब्रह्मांड की रचना किसने की है?
अगर मैं कहूँ ‘किसी’ ने की तो एक दूसरा सवाल आएगा ‘क्यों की?’ और फिर ‘जिसने की उसकी रचना किसने की?’ हम कहेंगे ईश्वर ने की, ईश्वर ने क्यों की? ईश्वर ने की, अपनी मर्जी से की तो अपनी मर्जी से ऐसी रचना क्यों की? किसी को सुखी, किसी को दुखी, किसी को बड़ा, किसी को छोटा, किसी को मनुष्य, किसी को कीट, किसी को पतंग, फिर किसी का जीवन, किसी का मरण, कहीं संयोग कही वियोग ये सब क्यों किया?
जैन दर्शन कहता है यह ब्रह्मांड अनादि से है, इसका न कोई कर्ता है, न कोई हर्ता है। यह स्वाभाविक रूप से है और अनन्त काल तक बना रहेगा। न तो यह उत्पन्न हुआ है और न ही इसे कोई नष्ट कर सकता है, सदा से है, सदा ही बना रहेगा। इसलिए जैन धर्म में सृष्टि को अनादि कहा गया है।
‘तो सृष्टि में परिवर्तन कैसे होता है?’ सृष्टि में परिवर्तन का मूल कारण जगत में रहने वाले पदार्थ हैं। उन पदार्थों में अपना स्वभाव है- उत्पन्न होना, विनष्ट होना और स्थिर होना। हर पदार्थ में प्रतिपल नई-नई अवस्थाओं की उत्पत्ति होती है और नई-नई अवस्थाओं की उत्पत्ति के साथ-साथ ही पुरानी अवस्थाओं का विनाश होता है। नई अवस्था की उत्पत्ति और पुरानी अवस्था के विनाश के साथ ही उसका मौलिक स्वरूप ज्यों का त्यों बना रहता है, ये है स्थिरता। जैन धर्म में इसको बोलते हैं -उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता, -उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य- जो प्रत्येक वस्तु में प्रति समय में होता है, यह चलता रहता है। इसी कारण वस्तु का अपना परिणमन होता है, स्वाभाविक परिवर्तन होता है, स्वाभाविक परिणमन होता है और यही सृष्टि के परिवर्तन का आधार है।
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