डॉक्टर की लापरवाही से मरीज जान गंवाए तो दोष किसका?

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शंका

ऐसा कहते हैं कि डॉक्टर भगवान स्वरूप होता है। हम डॉक्टर को मरीज की जिंदगी सौंप देते हैं। यदि डॉक्टर को मरीज की बीमारी समझ न आने के बाद भी उसके द्वारा दी गई दवा से मरीज की मौत हो जाती है, तो इसमें मरीज को दोष है या डॉक्टर का? किसका निमित्त है इसमें?

समाधान

भारतीय संस्कृति में चिकित्सक को भगवान की तरह बताया गया है, क्योंकि वो मरीज को जीवन दान देता है। वर्तमान में चिकित्सा और चिकित्सक दोनों का स्तर बिगड़ गया है। चिकित्सा पद्धति आज बहुत आगे बढ़ी है लेकिन चिकित्सक बहुत नीचे आ गए। पुराने जमाने में चिकित्सा को एक सेवा माना जाता था। आज के युग में चिकित्सा एक व्यवसाय बन गया है, और इस व्यावसायिक मानसिकता के कारण चिकित्सक को सामने वाला मरीज, मरीज नहीं दिखता, वो उसको उसका client (ग्राहक) दिखता है। वो उससे भिन्न-भिन्न प्रकार से पैसा निकालने की कोशिश करता है। इसके पीछे कई कारण हैं। आज चिकित्सा की शिक्षा बहुत महँगी हो गई है। एक व्यक्ति को यदि मेडिकल की पढ़ाई करनी है, तो कम से कम ४० से ५० लाख रुपये लगते हैं, पूरी पढ़ाई समाप्त होने तक। फिर वो व्यक्ति ५-७ लाख रुपये लगाकर एक नर्सिंग होम खोलता है। जितना रुपया लगाया तो उसका ब्याज तो उसको पहले लेना है। उसके पीछे वो कई तरह की जांच और चाही-अनचाही दवाईयाँ और व्यक्ति के लिए गैर जरूरी ऑपरेशन तक कर देता है। मेरे सम्पर्क में एक व्यक्ति है, उसने कहा ‘महाराज! मेरे मित्र का एक हॉस्पिटल है। ५५ हजार रुपये प्रतिदिन की तो हमें बैंक की किस्त (emi) और वेतन देना पड़ता है। सुबह से जब तक दो ऑपरेशन नहीं कर लेता हूँ तब तक चैन नहीं पड़ता।’ ये जो चीज बन गई, ये बहुत विकृत हो गई। इससे बहुत सारे मरीज़ों के साथ अन्याय हो रहा है। डॉक्टर लापरवाही कर रहे हैं, और इसका ही नतीजा है कि अब लोगों में डॉक्टरों के लिए वो दृष्टि नहीं रही, जो पहले थी। पहले डॉक्टरों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है था। डॉक्टरों की छवि बहुत गंदी बन गई है। सारे चिकित्सकों को इस विषय में सोचना चाहिए। मैं मानता हूँ कि इसमें चिकित्सक भी पूरी तरह से दोषी नहीं है। ये व्यवस्था का दोष है। सबसे उत्तम तो यही है कि एक उपाय होना चाहिए कि सारे देश के नागरिकों का भारत सरकार द्वारा चिकित्सा बीमा (medical insurance) करा देना चाहिए, ताकि डॉक्टरों को लाभ भी मिलता रहे और मरीज पर भार भी न पड़े, जैसे भारत के अलावा अन्य कई देशों में है। 

 चिकित्सकों के इस गिरते स्तर को ठीक करना चाहिए। उन्हें कमाई के लिए अनैतिक रास्तों को अपनाने की छूट नहीं देनी चाहिए। गैर जरूरी जाँचें और गैर जरूरी इलाज के लिए डॉक्टरों को दण्डित करना चाहिए। उन्हें प्रोत्साहन नहीं देना चाहिए। अनावश्यक किसी की जान से खेलना अच्छी बात नहीं है। बहुत सारे मरीज़ों के साथ ऐसा हो जाता है। यह भी देखा गया है कि मरीज मर गया है। उसके बाद भी उसको वेंटीलेटर लगाए हुए हैं, उसे छोड़ते नहीं। ये अमानवीय कृत्य है। जो भी चिकित्सक, चिकित्सक के भेष में ऐसा कार्य करता है, चिकित्सक के पेशे में रहकर ऐसा कार्य करता है, महापाप करता है।

 कोई लुटेरा यदि किसी को लूटता है, तो वो केवल लुटेरा है। उसमें आदमी फंसता है, लूटा जाता है। कोई हत्यारा यदि किसी की हत्या करता है, आदमी की हत्या करता है, तो वो हत्यारा है। लोग उसको स्वीकार लेते हैं। लेकिन जिसकी शरण में गया है, अपनी सुरक्षा के लिए, अपने जीवन की रक्षा के लिए, वही व्यक्ति उसके जीवन से खिलवाड़ करे, और वही व्यक्ति उसे लूटे तो इसे अक्षम्य अपराध समझना चाहिए। महान पाप का बन्ध होता है। जितने भी चिकित्सक मेरी बात को सुन रहे हैं, आप अपने चिकित्सा के पेशे में ऐसे अनैतिक कर्म कभी मत करना। यदि तुम्हें दिख रहा है कि यह मेरे लायक है, तो ही उसकी चिकित्सा करना, और यदि नहीं दिख रहा है है, तो उसको कहीं refer (दूसरे अस्पताल में संदर्भित) कर दो। गैर जरूरी जाँचें और अनावश्यक बोझ मरीज पर डालना बिल्कुल भी उचित नहीं है। 

ये तो है एक पहलू, परन्तु हर तरह से डॉक्टर ही दोषी है ऐसा मैं नहीं मानता। बहुत से चिकित्सक मेरे सम्पर्क में ऐसे हैं, जो कभी भी ऐसा गैर ज़रूरी काम नहीं करते हैं, लेकिन उन लोगों का कहना है कि ‘आजकल कन्ज्यूमर फोरम (ग्राहक मन्च) के कारण हम लोगों के ऊपर इतना अधिक दबाव होता है कि हम न चाहते हुए भी जाँचें लिखने के लिए बाध्य रहते हैं। हमने अपने क्लिनिकल एक्सपीरियंस के कारण कुछ दे दिया और by chance वो मरीज को सूट नहीं किया तो कोर्ट में चले जाते हैं। तब हम लोगों को एक बहुत बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता है।’ 

 इन सब चीजों के बीच आपस में समन्वय होना चाहिए, विश्वास होना चाहिए तब जाकर कहीं काम होता है। बहुत से ऐसे चिकित्सक हैं जो बहुत ही अच्छे ढंग से लोगों की चिकित्सा करते हैं, फीस (शुल्क) भी बहुत हिसाब से लेते हैं। अच्छी चिकित्सा करने के उपरान्त भी कभी-कभी मरीज का भाग्य अनुकूल नहीं होता तो उसे नहीं बचा सकते। इसमें हम डॉक्टर को दोषी नहीं कह सकते। ध्यान रखना डॉक्टर एक बहिरंग निमित्त है। जीवों के स्वास्थ्य और प्राण रक्षा का आधार एक तो पुण्य का कर्म है, और दूसरा आयु कर्म का सद्भाव। पुण्य के योग और आयु के सद्भाव के साथ ही हम किसी के स्वास्थ्य की सुरक्षा कर सकते हैं, या जीवन की रक्षा कर सकते हैं। यदि आयुकर्म खत्म होने को आ जाए तो कुछ भी नहीं कर सकते। 

 इसलिए मैं कह रहा हूँ कि जब भी किसी की चिकित्सा कराने के लिए जाओ, सोच समझकर जाओ। डॉक्टर की शरण में अच्छी से अच्छी चिकित्सा करो और उसके बाद यदि अच्छा हो जाए, तो बहुत अच्छी बात है, और यदि बुरा हो जाए, तो होनी मानकर स्वीकार कर लो। आजकल बहुत गड़बड़ियाँ भी होने लगी हैं और उसके बड़े दुष्परिणाम आने लगे हैं। इनको कर्त्तव्य मानकर करते हैं। मैं एक ऐसे चिकित्सक को जानता हूँ जिन्होंने एक मरीज की सर्जरी का दिन तय कर रखा था। सर्जरी के लिए मरीज पहुंचा, और उसी दिन उसका बेटा मर गया। धन्य है वह डॉक्टर जिसने अपने बेटे की मृत्यु के बाद भी उस मरीज की सर्जरी की, और कहा- ‘यह मेरी ड्यूटी है, मेरा बेटा तो चला गया, यदि मैं इसमें कोई अवहेलना करूँगा तो ये मरीज भी चला जाएगा।’ और वो आदमी बच गया। ऐसे डॉक्टर को मसीहा नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? अच्छाइयाँ और अपवाद दोनों चीजें है। अच्छाइयों को प्रोत्साहित करें, अपवादों को नहीं।

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