जमीकंद का निषेध क्यों और कितना?

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शंका

जमीकंद का निषेध क्यों और कितना?

समाधान

जमीकंद निश्चित रूप से एक सब्ज़ी या वनस्पति है और जो सब्ज़ी या वनस्पति का प्रयोग करते हैं, उनके लिए यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब हम अन्य वनस्पतियों का प्रयोग करते हैं तो जमीकंद के सेवन में क्या हानि है? जैन धर्म की यही सूक्ष्मता है। जैन धर्म के अनुसार वनस्पति मात्र वनस्पति है और उनमें जीवत्व है, अपने उदर-पूर्ति के लिए अत्यावश्यक होने के कारण हमारे लिए वनस्पतियों को, शाकाहार को ग्रहण करने की अनुमति दी गई है, पर यह कहा कि ‘देखो भाई! अल्प-फल और बहु-विघात से बचो।’ 

अल्प-फल और बहु-विघात क्या है? लाभ थोड़ा हो और नुकसान ज़्यादा वैसी नीति से बचो। आम वनस्पति में और जमीकंदों में एक मौलिक अन्तर है; जितने भी जमीकंद होते हैं उन जमींकंदों के आश्रित सूक्ष्म निगोदिया अनन्त जीव होते हैं। निगोद जीव उन्हें कहते हैं, जो सबसे सूक्ष्मतम हो और एक शरीर में अनन्त निगोद रहें। जैन शास्त्रों के हिसाब से अगर विचार करें, तो सुनकर आपके कान खड़े हो जाएँगे।

“एगणिगोदसरीरे जीवा दव्वप्पमाणदो दिट्ठा।

सिद्धेहि अणंतगुणा सव्वे वि तीदकालेण।।

एक निगोदिया जीव के शरीर में, अब तक जितने सिद्ध हुए हैं, उनसे अनन्त गुना जीव होते हैं। हमारे अंगुली के एक पोर के, आठ जौं का एक अंगुल होता है, उसके असंख्य टुकड़े कर दो, इतने जीव एक शरीर में। उनमें से एक टुकड़े बराबर अत्यन्त सूक्ष्म, एक सुई के नोंक का भी असंख्यातवाँ भाग। उसमें उतने सारे जीव-राशि होते हैं। जब हमारे पास दूसरा विकल्प है, तो हम इनका उपयोग क्यों न करें! ये दया-करुणा की भावना से प्रेरित होकर कहा गया। हमारे यहाँ गृहस्थों के लिए और मुनियों के लिए भी- मुनि तो खैर कुछ लेते नहीं- लेकिन स्थावर जीव को सेव्य माना गया, त्रस की हिंसा का त्याग कराया यानि कीड़े-मकोड़े आदि। ये सूक्ष्म जीव है, तो इनमें भी आप जितना सूक्ष्मता से पालन कर सके करें। इसी वजह से जमीकंद का त्याग कराया जाता है। स्वाद तो आता है, मज़ा भी आता है लेकिन यदि आपके हृदय में उतनी संवेदना है, तो आप लें। 

अब रहा सवाल मन-वचन-काय कृत-कारित अनुमोदन से इनका त्याग होना चाहिए, उत्तम तो यही है। न हम खाएँ, न खिलायें। अब खाएँगे भी नहीं, खिलायेंगे भी नहीं, खाने वालों की अनुमोदना भी नहीं करेंगे तो उसकी खेती भी नहीं करेंगे, उसका व्यापार भी नहीं करेंगे, उत्तम यही है। लेकिन एक बात आप सब से कहता हूँ, हमारे शास्त्रों में रात्रि भोजन के त्याग का विधान है, लेकिन रात्रि भोजन के त्याग का विधान स्वयं का है। अगर कोई व्यक्ति व्रती हो, उसके रात्रि भोजन का त्याग है पर स्वयं का है। घर-परिवार का कोई सदस्य यदि किसी स्थिति में रात में लेता है, तो वह व्रती दे भी सकता है। दूध पीता बच्चा है, माँ प्रतिमाधारी है, रात में बच्चा रोएगा तो दूध पिलाएगी कि नहीं? जो जरूरत है सब करेगी। इसलिए छटवीं प्रतिमा में मन-वचन-काय, कृत -कारित अनुमोदन से रात्रि भोजन का त्याग कराया। उस प्रतिमा का नाम ही है, रात्रि भुक्ति त्याग प्रतिमा। इस सन्दर्भ से एक बात समझ में आती है, स्वयं सेवन करना और औरों के लिए कदाचित इनका व्यापार व्यवसाय करना-मैं विधान तो बिल्कुल नहीं करना चाहता, लेकिन यदि कोई करता है, तो उसे निंद दृष्टि से देखना मुझे थोड़ा कम सुहाता है। 

इस सन्दर्भ में विचार करके देखना दक्षिण भारत में तो बहुतायत लोग तम्बाकू की खेती करते हैं। किसान हैं। तो यह सब चीजें सोच के करना चाहिए। उत्तम यही है कि इनसे बचें, जो हम खुद न करे वो औरों को भी न करने दें। पर यदि किसी परिस्थिति वश कोई कर रहा है, तो उसे हीन दृष्टि से कभी न देखें।

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