संसार के कार्यों में विशिष्ट पुरुषों के लिए, राजा महाराजाओं के लिए, उनकी विजय कामना के लिए जय बोली जाती है। हमारे तीर्थंकर भगवान जो सब पर विजय प्राप्त करके कृत-कृत्य हो चुके, उनकी जय-विजय किसी कामना से तो बोली नहीं जाती होगी, फिर किस लिए बोली जाती है? उस समय हमारा क्या भाव होना चाहिए?
आप लोग जय बोलते हैं, पर किसलिए जय बोलते हैं? राजा महाराजाओं की जयकार का उद्देश्य अलग है; गुरुओं की जय बोलते हैं, तो गुरुवर की जय भी कदाचित उनकी यश, उनकी प्रतिष्ठा के लिए होती है, पर भगवान की जय, जो कर्म मुक्त हो चुके है, उनकी जय क्यों?
वस्तुतः जय शब्द के अनेक अर्थ हैं। जय विजय का प्रतीक है, जय यश का प्रतीक है, जय सर्वत्र बहुमान का प्रतीक है, जय शासन का प्रतीक है। तो हम जिनके अनुयायी हैं, जिन की उपासना करते हैं, उनकी हम जय बोलते हैं। वे जयशील हों अर्थात सर्वत्र दिग दिगंतर तक उनका ही शासन चले, लोक के हर हिस्से में उनका शासन फैले, युग युगांतर तक उनका शासन-प्रशासन चलता रहे। यह भावना हमारी आपकी है कि नहीं। भगवान महावीर २४ तीर्थंकर का शासन युग युगांतर तक चलता रहे, यह हमारी आपकी सबकी भावना है। भगवान तो इससे ऊपर उठ गए, लेकिन हम अन्धे थे, उन्होंने हमें मार्ग दिया। तो जिन्होंने हम पर इतना उपकार किया, ये वीतराग शासन, ये वीतराग धर्म हमें मिला है, तो ऐसे ही वीतराग शासन की जय होते रहे, वीतराग धर्म की जय होते रहे। भगवान महावीर की जय बोलते हैं, तो भगवान ऋषभदेव की जय बोलते हैं, तो यह उनके शासन की जय है, अर्थात सर्वत्र उनका साम्राज्य बने, युग युगांतर उनका मार्ग रहे, पहले ऐसी पुनीत भावना के साथ जय बोला जाता है। एक जय तो जयशील आशीर्वाद के लिए भी बोला जाता है, लेकिन यहाँ वह शब्द नहीं है।
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