श्रद्धा डगमगाती क्यों है?

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शंका

हमारी श्रद्धा डर के कारण, स्वार्थ के कारण, या फिर वांछा के कारण डगमगा जाती है। उस श्रद्धा को कैसे दृढ़ करें?

समाधान

हमारी श्रद्धा डर के कारण, स्वार्थ के कारण, या फिर वांछा के कारण डगमगा जाती है। उस श्रद्धा को कैसे दृढ़ करें?

समाधान: ये जो श्रद्धा है, ये बुद्धि के स्तर की श्रद्धा है जो समय-काल से प्रभावित होती है, बनती और बदलती है। वह श्रद्धा व्यक्ति ने धारण की लेकिन उसके पीछे का concept (धारणा / वजह) अलग है; या तो भय है या लोभ है, आसक्ति है, श्रेय है और निश्चित रूप से अन्दर का एक ऐसा अनुबंध है जो सशर्त (conditional) है। अगर ऐसा हुआ तो ठीक, नहीं तो इस श्रद्धा को डगमगाने में कोई देर नहीं लगती। एक आदमी डॉक्टर को दिखाता है, इलाज करवाने के लिए। डाक्टर उसको देखता है, यहाँ आराम नहीं मिला तो दूसरे के पास, दूसरे के पास आराम नहीं, तो तीसरे के पास। जैसे-जैसे व्यक्ति घूमता है, वैसे ही ऐसे श्रद्धालु व्यक्ति का कोई ठिकाना नहीं होता। थोड़े-थोड़े में श्रद्धा चढ़ती है, उतरती है। लेकिन जब श्रद्धा हृदय के स्तर की हो जाती है, तो फिर किसी भी परिस्थिति में उसकी श्रद्धा डगमगाती नहीं है। धर्म के प्रति आप श्रद्धा रखना चाहते हो तो मैं आपसे कहना चाहता हूँ बुद्धि के स्तर की श्रद्धा मत रखो, हृदय के स्तर की श्रद्धा रखो। 

बुद्धि के स्तर की श्रद्धा और हृदय के स्तर की श्रद्धा में अन्तर तब आयेगा जब आप श्रद्धेय का स्वरूप और श्रद्धा के उद्देश्य को सामने रखकर चलेंगे। हम भगवान की चरण सेवा या धर्म का आचरण इसलिये नहीं कर रहे हैं कि हमारे दुःख/संकट टल जाए। हम धर्म का आचरण या धर्म की शरण इसलिए ले रहे हैं कि दुःख/ संकट में भी हम सँभल जाए। दुःख/ संकट को टालने वालों की धर्म के लिए लाइन (कतार) लगी होती है लेकिन दुःख/ संकटों में अपने आपको संभालकर रखने वाले योगी सच्चे धर्मी होते हैं।

हम भगवान के स्वरूप को समझें। भगवान! मैं आपके चरणों में आया हूँ, इसलिए कि आपसे मुझे दिशा मिलती है, दृष्टि मिलती है, संबल मिलता है और वह संबल ही हमेशा फलता है। हमें सिवाय इसके और कुछ नहीं चाहिए। ऐसा व्यक्ति तीन काल में भी इधर से उधर नहीं होता, चाहे जैसी विपत्ति आये। चाहे जैसा दवाब हो, चाहे जैसा प्रलोभन हो, चाहे जैसा भय हो, वह टस से मस नहीं होता। उसकी श्रद्धा बढ़ती अवश्य है, घटती नहीं। उसके लिए निरन्तर स्वरूप को समझ कर आगे बढ़ना चाहिए।

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