जब तीर्थंकर बालक का जन्म होता है तब सौधर्म इन्द्र आकर उनके अंगूठे में अमृत भर देते हैं, जब वे बड़े होते हैं तो स्वर्ग से उनका आहार आता है और कपड़े भी आते हैं और जब वह दीक्षा ले लेते हैं तब वह गृहस्थ के घर में आहार लेते हैं, तो वह जब गृहस्थ अवस्था में होते हैं तब वह अपने घर पर ही भोजन क्यों नहीं लेते हैं?
तीर्थंकरों के वस्त्र और भोजन दोनों स्वर्ग से आता है। पुराने माया संस्कृति के अध्ययन क्रम में मैंने देखा कि उनके जो वस्त्र होते हैं वह कुछ अलग से होते हैं जैसे कोई अन्तरिक्ष मानव के होते हैं न वैसे ही। अन्तरिक्ष में ऐसे कपड़े इसलिए पहने जाते हैं कि हमारा शरीर वहाँ की शक्ति को ले नहीं पाता तो उनके शरीर में ऊर्जा बहुत ज़्यादा रहती है और उस ऊर्जा का किसी पर दुष्प्रभाव न पड़े इसलिए स्वर्ग से कपड़े आते होंगे। यहाँ का भोजन उनके काम का नहीं है जो अमृत पचा ले उनके लिए यह भोजन किस काम का, इसलिए भोजन स्वर्ग से आता होगा। अब प्रश्न यह उठता है कि मुनि बनने के बाद साधरण भोजन कैसे कर लेते हैं- तो इसका उत्तर यह मिलता है कि मुनि बनने के बाद वह साधना में लग जाते हैं और साधना में लग जाने के कारण उनकी ऊर्जा परिवर्तित हो जाती है और फिर वह साधारण भोजन कर लेते हैं। गृहस्थ अवस्था में उनमें ऐसा कुछ भी नहीं होता परन्तु मुनि बनने के बाद वह अपनी ऊर्जा को परिवर्तित कर लेते हैं। यह एक प्रकार का बहुत ही शोध का विषय है।
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