न चाहकर भी चित्त नकारात्मक दिशा में क्यों जाता है?

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शंका

ये जानते हैं कि सकारात्मक सोच ही सब कुछ है जिंदगी में। कभी-कभी नकारात्मक ख्याल आते है। कभी-कभी जानते हैं कि गुस्सा नहीं करनी चाहिए, फिर भी गुस्सा कर बैठते हैं। वो हरकतें करते है जो कि जैन धर्म के हिसाब से नहीं करनी चाहिए। इस से निकले कैसे?

समाधान

सवाल है कि न चाहकर भी चित्त नकारात्मक दिशा में क्यों जाता है? यही चित्त का स्वभाव है। हमारा मन हमेशा नीचे की ओर जाता है। उसे ऊपर उठाने के लिए हमें प्रयास करना पड़ता है। नीचे वह संस्कार बस जाता है। जैसे पानी है, पानी हमेशा नीचे बहता है। वबनीचे बहाने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता है, अपने आप जाता है। ऊपर उठाने के लिए मोटर लगानी पड़ती है। मन को ऊपर उठाना है, तो उसके लिए हमें स्वाध्याय का, सचिंतन का, सत्संग का, मोटर उसको देते रहना है, तो मन ऊपर उठेगा। फिर भी घबराने की बात नहीं है जब भी हमारा मन इधर-उधर हो उसे हम reverse में लायें, ये मन का स्वभाव है। बस एक बात का ख्याल रखें कि मन में नकारात्मकता आने से इतना नुकसान नहीं, नकारात्मक दिशा में मन के बह जाने से नुकसान है। यदि कदाचित नकारात्मकता का आवेग आता है, तो उसे आने दो उस घड़ी अपने मन को जगाओ और आवेग में खोओ मत। आवेग की स्थिति में जो अपना विवेक जगाये रखता है, वह जीवन में कभी डगमगा नहीं सकता है।

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