जैन समाज को श्रेष्ठ समाज के नाम से भी जाना जाता रहा है। आचार, विचार, रहन, सहन, खान-पान सभी में श्रेष्ठ, पर आज उन्हीं मूल सिद्धांतों को पालन करने में हमारे समाज को पिछड़ा घोषित किया जा रहा है। बच्चों के मन में भी यह चीज घर करती जा रही है कि ‘हम लोग ‘खाते-पीते’ नहीं तो हम पिछड़े हैं’, इसको कैसे दूर किया जाए?
वस्तुतः आज के लोगों की सोच में बड़ा परिवर्तन आ गया। पुराने लोगों की सोच और आज के लोगों की सोच में बड़ा अन्तर है। पुराने लोग, जो साधन-हीन होकर जीते थे वह मजबूत कहलाते थे; और जो साधन के अधीन होते थे, वे कमजोर कहलाते थे। आज सोच बदल गई, जिसके पास जितने साधन वह उतना मजबूत; और जो जितना साधन हीन वह उतना कमजोर कहलाता है।
स्थिति में बहुत परिवर्तन है, दोनों में क्या अन्तर है-एक व्यक्ति नंगे पाँव चल रहा है और उसे कोई तकलीफ़ नहीं और एक व्यक्ति ब्रांडेड जूता पहना है, वह जूता उसे काट रहा है; कौन अच्छा है? काटने वाले जूते को पहन कर चलने वाला या नंगे पाँव चलने वाला? नंगे पाँव चलने वाला अच्छा है। पर आजकल के लोग जो जूता पहन के चल रहे हैं वह जूता उसे काट रहा है, उन्हें वह नहीं दिख रहा है। नंगे पाँव चलते दिखते लोग उन्हें पिछड़े दिखते हैं, सच्चे अर्थों में पिछड़ा कौन है? पिछड़ा वह नहीं जो भोग और विलासता से विमुख है, सच्चे अर्थों में पिछड़ा तो वह है जो अपने जीवन के मूल्यों को भूल कर भोगों में आसक्त है।
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