सूतक-पातक लगने का क्यों विधान है?

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शंका

यदि किसी को सूतक-पातक लगता है तब उसके परिवार के बाक़ी रिश्तेदारों को पूजा न करने की सज़ा क्यों दी जाती है?

समाधान

सूतक-पातक की जो व्यवस्था है ये एक सामाजिक विधान है। इसके पीछे मुझे कुछ कारण दिखते हैं। पुराने ज़माने में किसी का भी जन्म होता था तो प्रायः घर में होता था, और घर में होने से अशुद्धि होती थी। अशुद्धि का मतलब जब हमारे शरीर का कोई भी अशुद्ध पदार्थ ज्यादा निकलता है, तो negative (नकारात्मक) ऊर्जा का ‘flow’ (प्रवाह) होता है। घर की नकारात्मक ऊर्जा जब बढ़ जाती है तब घर की नकारात्मक ऊर्जा का प्रभाव मन्दिर तक न जाए इसलिए मन्दिर की एक व्यवस्था बना दी गई और उससे अपने आप को अप्रभावित रखने की व्यवस्था बनायी गई। शायद इसी दृष्टि से ये व्यवस्था चलती रही, नकारात्मक ऊर्जा से यथा सम्भव अपने आप को बचाने की। उसमें भी जितने नज़दीक के लोग होते थे, उनका आना-जाना ज़्यादा होता था, तो पीढ़ियों तक बता दिया गया कि ‘तीन पीढ़ी तक विशेष सूतक और जैसे-जैसे पीढ़ियाँ बढ़ती जाएँ सूतक घटते जाएँ। मन्दिर जाएँ नहीं और मन्दिर जाएँ तो मन्दिर के गर्भ गृह से दूर रहें।’ शायद ऐसी एक व्यवस्था रही होगी और इसके पीछे ये भावना रही होगी।

 ऐसे ही, किसी के मरण पर नकारात्मक ऊर्जा निकलती है, और उस ऊर्जा से बचने और बचाने के लिए भी ऐसी व्यवस्था की गई होगी। ये मेरा अपना चिंतन है। किसी शास्त्र की बात नहीं बोल रहा हूँ। जो भी हो, लेकिन इसके पीछे वैज्ञानिक कारण ज़रूर होगा और इसलिए ये व्यवस्था बना दी गई। पर परिस्थितियाँ बदलीं, आज घर में किसी की प्रसूती (delivery) नहीं होती। अमेरिका में किसी को बच्चा हो रहा है और भारत में सूतक लग रहा है। लोग बोलते हैं कि ‘महाराज! ऐसे लोगों का भी सूतक आ जाता है कि जिनको हम पहचानते तक नहीं हैं। तो इस सूतक को हम कैसे मानें और मानें भी कि न मानें?’ मेरा तो एक ही कहना है कि भैय्या! जो मानते आ रहे हो वो मानते रहो। इसमें नुकसान कुछ भी नहीं है बल्कि मैं मानता हूँ कि इस सूतक-पातक का एक विधान ऐसा है कि जिसके कारण तुम अपने खानदान को पहचान पा रहे हो। सूतक-पातक मिटा दोगे तो सब भूल जाओगे। समाज आत्म-केन्द्रित होते जा रही है। यह अपने खानदान को पहचानने का विधान है। समाज की रीत है।

 धार्मिक दृष्टि से जब सूतक-पातक की बात की बात पढ़ता हूँ तो सूतक शब्द का प्रयोग तो होता है पर कितने-कितने दिन का सूतक कहा है, ये बहुत अर्वाचीन ग्रंथों में मिलता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन सभी में अलग-अलग सूतक बताया। ब्राह्मण को ५ दिन का सूतक बताया, क्षत्रिय को १० दिन का और वैश्य को १२ दिन का सूतक बताया व शूद्र को सदा का बताया है। मैंने सोचा कि ब्राह्मण को इतने कम दिन का सूतक क्यों बताया? अगर ब्राह्मण को ज्यादा दिन का सूतक लगेगा तो उसका धंधा कैसे चलेगा? तो कुछ व्यवस्थाएँ ऐसी हैं जो सवाल खड़े करती हैं। सूतक कितने-कितने दिन के करें? यह प्राचीन ग्रंथों में ऐसा देखने को मिलता नहीं। सूतक-पातक शब्द का प्रयोग मिलता है। फिर भी मैं एक ही सलाह दूँगा कि जैसा चल रहा है वैसा चलने दो, नहीं तो और गड़बड़ हो जायेगी।

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