भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता व समन्वय की संस्कृति मानी जाती है लेकिन हमारे आचार्य मुनियों ने जो ग्रन्थ लिखें उसमें अन्य परम्पराओं को भी ग्रहण किया है जैसे पौमचर्यम लिखा, खनचर्यम लिखा और भी ऐसे ग्रन्थ मिलते हैं हनुमान आदि का वर्णन भी मिलता है। हमारे तीर्थंकर परमात्मा का अन्य परम्परा में वर्णन क्यों नहीं मिलता है?
वर्णन है, बीच के काल में हट गया। ऋग्वेद के 141 ऋचाओं में भगवान ऋषभदेव का स्थितिपरक उल्लेख और उत्कीर्तन इस बात का परिचायक है कि प्राचीन काल में वैदिक और श्रमण संस्कृति के बीच भी कोई न कोई तालमेल रहा होगा। विभिन्न पुराण ग्रंथों में जैन तीर्थंकरों का नामोल्लेख भी इस बात को द्योतित करता है। बाद में धार्मिक और सांप्रदायिक कट्टरतायें आई और लोगों ने अपने-अपने धर्म को अपने – अपने प्रवर्तकों तक सीमित कर लिया और उन्हें ही अपने चरित्र ग्रंथों और कथा ग्रंथों का मूल प्रतिपाद्य बनाया, मुझे ऐसा प्रतीत होता है।
Leave a Reply