जैन समाज में इतना विखंडन क्यों है?

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शंका

हम दिगम्बर जैन समाज के हैं और सभी लोग चौबीस तीर्थंकर को मानते हैं। हमारा एक ही मन्त्र है णमोकार मन्त्र, एक ही हमारी पूजा है, एक ही हमारे गुरू हैं, एक ही हमारे शास्त्र हैं। उसके बावजूद भी समाज के अन्दर इतना विखंडन क्यों?

समाधान

समाज में मतभिन्नता होना बुरा नहीं है, मन भिन्नता होना बुरा है। हर काल में समाज में अलग-अलग लोग होते हैं, अलग-अलग अवधारणाएँ होती हैं, अलग-अलग परम्परायें होती है। इन सबको आज एक करना सम्भव नहीं दिखता। लेकिन हम अलग-अलग पन्थों में रहते हुए भी एक छत के नीचे रह सकते हैं। 

छतरी बनती है, तो उसमें डंडा एक होता है और कमानी अनेक होती हैं। मैं मानता हूँ कि जैन समाज में जितने भी तबके हैं उन सब की अलग-अलग कमानियाँ हैं। आवश्यकता है उन्हें जैन धर्म के डंडे से जुड़े रहने की। जिस पर ये जुड़ जायें तो ये जैन धर्म का छाता इस धरती के ऊपर छत्रछाया बनायेगा। हम ये कहें कि सब एक हो जायें तो यह कतई सम्भव नहीं है; ये आस्था का सवाल है। सब की अपनी-अपनी परम्परा है सब का अपना-अपना दृष्टिकोण हैं। हम अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुरूप जियें। मैं सबसे कहना चाहता हूँ कि ये प्रयास ही न करें कि सब पन्थ एक हो जायें बल्कि ऐसा प्रयास करें कि सब पन्थी एक हो जायें। पन्थ एक होने होते तो आचार्य कुन्द कुन्द के समय में ही हो गये होते। पन्थ एक नहीं हो सकता; पन्थी एक हो सकते हैं! लेकिन ये तभी जब सब नेक हों, हमारे उद्दिष्ट नेक हों, हमारे इरादे नेक हों और हमारे प्रयत्न एक हों, तो सब एक होंगे।

तमाम मतभेदों के बीच हम मनभेद को भुलाकर मिलजुलकर के आगे चलें सब जैनी भाई-भाई की तरह चलें। हमारे गुरूदेव ने हम सबको एक नारा दिया, 

“दिगम्बरा सहोदरा सर्वे” 

बस एक ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। एक ही ध्येय। इस के लिए हम सब लोग प्रयास कर ही रहे हैं। समाज के जितने भी प्रबुद्ध लोग और विभिन्न सामाजिक संगठनों से जुड़े हुये लोग हैं उनको आगे आने की जरूरत है।

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