जैन धर्म पन्थ में क्यों बँटा है?

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शंका

जैन धर्म पन्थ में क्यों बँटा है?

समाधान

पहले तो आप जैन परम्परा के इतिहास को ठीक ढंग से पढ़िए। भगवान महावीर के ५६ वर्ष बाद संघ भेद नहीं हुआ, भगवान महावीर के निर्वाण के १६३ वर्षों बाद तक पूरा संघ पूरी तरह अविभक्त था। थोड़ा सा परिवर्तन आया आचार्य भद्रबाहु के काल में; जब १२ वर्षीय दुर्भिक्ष पड़ा, तो श्रमण संघ का बहु-भाग आचार्य भद्रबाहु के निर्देश में दक्षिण भारत की ओर चला गया और शेष भाग उत्तर भारत की ओर। इस तरीके से एक ही बीजारोपण हुआ और धीरे-धीरे कालांतर में चलकर दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूप में दो अलग-अलग संघ प्रकट हो गये। इसके बाद अर्हदबलि आचार्य ने एक बार मुनियों का बड़ा समागम किया था। उन्होंने जब सब मुनियों से पूछा कि “आप लोग आ गए?” तो उन्होंने कहा “हाँ, हम लोग अपने अपने संघ सहित आ गए।” तब उस समय मूल संघ में नंदी संघ, मूल संघ आदि कुछ संघों के नाम से; जो जहाँ से आये थे उनको उसी तरीके से नाम दिया गया और एक संपूर्ण दिगम्बर संघ में अलग-अलग संघ भेद हुए। लेकिन यह संघ भेद केवल एक व्यवस्था की दृष्टि से थे, उनमें कोई अन्तर भेद नहीं आया। जब भी संघ में कोई भेद हुआ है या पन्थ बना है, तो मुख्य रूप से वह आचारगत परिवर्तन के कारण पनपा है। आचारगत परिवर्तन, उपासनागत परिवर्तन ने मान्यता को परिवर्तित किया लोगों की आस्थाएँ बँटी, तो पन्थ बन गये। यह चलता रहा है, आचार्य कुन्दकुन्द के काल में भी हमारे अनेक संघों में विभेद था। आज भी है, उत्तरोत्तर बढ़ता गया।

आपने पूछा है कि यह पन्थ बनते कैसे हैं? मैं एक ही बात जानता हूँ, जब व्यक्ति पथ को भूल जाता है, तो पन्थ को पकड़ लेता है! जो पथ को पकड़ता है, वह पन्थ को भूल जाता है!

आपसे मैं यही कहना चाहूँगा जैन धर्म का मूल कोई पन्थ नहीं, अहिंसा और वीतरागता का पथ है। इसे पकड़ोगे तो जीवन आगे बढ़ता रहेगा। जो अहिंसा और वीतरागता को पकड़ते हैं वे सदैव एक होते हैं। अहिंसा और वीतरागता की आदत से विमुख होकर अन्य बातों को पकड़ने वाले बँट जाते है इसलिए इसे पकड़ कर चलें।

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