वर्तमान में जो धार्मिक क्षेत्र में योजनाएँ बन रही हैं, उन योजनाओं को बहुत दीर्घकालिक बनाया जाता है यानी दीर्घकाल तक चलती रहे इस अर्थ में भी है और दीर्घकाल तक फलप्रद होती है, इसके लिए चलती है। इन के स्थान पर ऐसा क्यों नहीं किया जाता कि अल्पकालिक योजना बनाई जाएँ, जिससे अगली पीढ़ी को भी काम करने का अवसर मिल सके।
जहाँ हमें आवश्यकता हो वहाँ योजना अल्पकालिक होनी चाहिए। जैसे -कहीं का कॉलोनी बन रही है, तो वहाँ मन्दिर बनाना जरूरी है, तो ऐसी लम्बी प्रोसेस में न बनाएँ कि कॉलोनी में रहने वाले लोगों का बुढ़ापा आ जाए और मन्दिर न बने! वहाँ तो जल्दी बना लीजिए। जिससे कि लोग वहाँ पूजा आराधन कर लें। किन्तु हमारे धर्म के जितने मुख्य केंद्र हैं, वहाँ जो भी आप धर्म-आयतन बनाएँ, विशेष स्थानों पर जो धर्मायतन बनाएँ, वो ऐसा बनाएँ जो हजारों वर्षों तक सुरक्षित रहे। क्योंकि वह हमारी संस्कृति के दस्तावेज बनते हैं। आज नहीं आज से 1000 वर्ष बाद उसका पुरातात्विक महत्त्व प्रकट होगा, उसके आधार पर हमारा इतिहास लिखा जाएगा। आज भी जैन संस्कृति के इतिहास को लिखने में हमारे मन्दिर और मूर्तियों का बहुत बड़ा योगदान है। दीर्घकालिक कार्य समयसाध्य और वयसाध्य होता है, श्रमसाध्य होता है, समय लगता है, लगना चाहिए। लंबे समय तक टिकने वाले कार्य के लिए लंबा समय लगाना ही पड़ता है, वह बरगद का पेड़ है, एक दिन में नहीं उगता, उगने के बाद चिरकाल तक टिकता है। बस यही है ऐसे बरगद के वृक्षों का भी समय-समय पर आरोपण होते रहना चाहिए और इसमें लगने वाले समय को सहज प्रक्रिया के रूप में समझना चाहिए।
आज भी पुराने मन्दिर जो सुरक्षित हैं, सुरक्षित हैं। लेकिन नए बन रहे हैं, नए बनने के अवसर हमेशा बने रहते हैं, कहीं कमी नहीं है। पुराने लोगों ने इतना नहीं बनाया कि नए नहीं बना पाएँ और आज नए इतने नहीं बन रहे कि भविष्य में आने वाले नए लोग न बना पाएँ। यह तो परम्परा है, बल्कि मेरी धारणा इन निर्माणों को देख कर के ही आने वाली पीढ़ियों के मन में भाव आएगा कि- “हमारे बाप-दादाओं पुरखों ने कुछ बनाया, अपने धन का सदुपयोग किया, हम भी ऐसा कार्य करें”।
Leave a Reply