जैन धर्म के विभिन्न पंथों में कोई केन्द्रीय नेतृत्व नहीं है, तो इनकी क्या स्थितियाँ हैं?
मैं एक ही बात जानता हूँ कि जो अनपढ़ होते हैं, वो जल्दी इकट्ठा हो जाते हैं और जो बुद्धिजीवी होते हैं, उनको इकट्ठा करना बहुत कठिन होता है। जैन समाज बुद्धिजीवी समाज है। इतना ज्यादा बुद्धिजीवी है कि उनको एक करना बहुत मुश्किल दिखता है। हमारा संघ, हमारा शासन इसी तरीके से था। पहले तीर्थंकर के नेतृत्व में चला, फिर केवलियों के नेतृत्व में चला, फिर श्रुत केवलियों के, उसके बाद आचार्यों के और आचार्यों के बाद संघ भेद हुआ, पंथ भेद हुआ, सम्प्रदाय भेद हुआ और अब तो भेद ही भेद हो रहे है।
आपकी ये भावना बहुत अच्छी है कि एक नेतृत्व हो। मैं ये कहना चाहता हूँ कि एक नेतृत्व जिस दिन होगा, वो तो बहुत शुभ दिन होगा। एक नेतृत्व न भी हो, तो कम से कम नीति तो एक हो। नेता अलग-अलग हो, तब तक कोई दिक्कत नहीं, समस्या तो ये है कि आजकल के नेता की तो नीतियाँ भी अलग-अलग और नीयत भी अलग-अलग। ये गड़बड़ हो रही है, इसलिए नीति और नीयत को नेक बनाओ, तो समाज चाहे कितने भी भेद में रहे, कोई दिक्कत नहीं हो सकती है।
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