जब हम स्वाध्याय करते हैं तो हमें पता लगता कि यह करना चाहिए, यह नहीं करना चाहिए, क्रोध में ऐसा करना चाहिए। लेकिन जब हम मौके पर वैसा नहीं कर पाते तो बहुत आत्मग्लानि होती है कि ऐसा हमें पता था फिर भी नहीं कर पाए तो इतना पढ़ने-लिखने का या स्वाध्याय करने का क्या फायदा? अन्तर के विवेक को कैसे जागृत करें जो हेय और उपादेय का ज्ञान करवा पाये?
ये बात सही है, अगर आपको लगता है कि सब कुछ पढ़ने-लिखने के बाद भी अपने आप में इतना परिवर्तन नहीं कर पाए तो पढ़ने-लिखने का क्या फायदा? तो समझ लो आप को पढ़ने-लिखने का फायदा होने लगा है। यह पढ़ा-लिखा है तभी आपके मन में ये सवाल हो रहा है, यदि आप पढ़े-लिखे नहीं होते तो नहीं होता, यह शुरुआत हो गई है। अपनी धारणा को मजबूत बनाएं, पुराने संस्कार प्रबल होने से ऐसा गड़बड़ हो जाता है। संस्कार जैसे-जैसे मंद होंगे अपने आप सब ठीक हो जाएगा।
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