अगर हम जैनी एक जीव को भी मारते हैं, तो बहुत पाप लगता है। पूरे विश्व में जो अजैनी हैं, नॉन वेज खाते हैं, वो सब क्या नरकगामी जीव हैं? और क्या सिर्फ जैनी ही स्वर्ग जाएँगे?
मैं यह नहीं कहता कि सिर्फ जैनी ही स्वर्ग जाएँगे। पर यह तय है कि हिंसा का कृत्य बुरा है। नरक और स्वर्ग की बात जाने दो। जो लोग क्रूर हैं, हिंसक प्रवृत्ति के हैं, उनसे पूछकर देखो, क्या वो हिंसा को अच्छा मानते हैं? जो जानवरों को मारकर खाते हैं, उनके घर में अगर कोई उनके कुत्ते को मारे तो उन्हे दर्द होता है या नहीं होता है? वो इस बात को समझ लें कि हिंसा की क्रिया, क्रूरता की क्रिया अच्छी नहीं है। इस क्रूरता के परिणामस्वरुप नरक मिलेगा, नहीं मिलेगा, यह बाद की बात है। क्रूरता को अपनाते समय जीवन तो नरक बन ही जाता है और यदि कोई दया का भाव मन में लाता है, तो हृदय में सात्विकता की अभिव्यक्ति होती है।
अपने मन को टटोलकर देखो, किसी भी व्यक्ति से पूछकर देखो, किसी को बचाते समय जो सुकून मिलता है, क्या मारते समय वैसा भाव होता है? मारने वाला के अन्दर से कहीं न कहीं उसकी चेतना में यह सूक्ष्म भाव आता है कि मैंने गलत किया। यह बात अलग है कि उसके संस्कार इतने प्रबल हो जाते हैं कि वह अपने अन्तर्मन की बात को दबा बैठता है। लेकिन क्रूर से क्रूर प्राणी भी कहीं न कहीं करुणाशील होता है। एक बिल्ली अपने जिस मुख में चूहे को पकड़ती है, उसी मुख से अपने बच्चे को भी उठा कर के एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। कारण क्या है? चूहे को उठाते समय वह उसे उसका शिकार दिखता है, बच्चे को उठाते समय वह उसके कलेजे का टुकड़ा दिखता है, जी का लाल दिखता है। बच्चे के प्रति संवेदना है, चूहे के प्रति संवेदना नहीं। हृदय में संवेदना बढ़नी चाहिए और जो मनुष्य जितना संवेदनशील होता है, वह उतना ही अहिंसक होता है।
जैन धर्म में जियो और जीने दो का संदेश हमें जन्म घुट्टी में सिखाया जाता है। हमारे हृदय को संवेदना से भरता है और यही संवेदनशीलता हमारे जीवन के उत्कर्ष का आधार बनती है। निश्चित जो संवेदन शून्य व्यक्ति होते हैं, जो गलत रास्ते को अंगीकार करके चलते हैं जिनके जीवन में हिंसा और क्रूरता होती है, उनका पतन सुनिश्चित है। आज हो या कल नरक जाएँगे या न जाएँगे, जीवन तो नरक बन ही चुका है।
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