क्या केवल अन्त समय में धर्म करने से कल्याण होगा?
आगम में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जिनमें जब अन्त को सुधारा तो जिंदगी सुधर गई। एक बार युवक ने कहा कि ‘महाराज जी! हम को भी ऐसा ही करना चाहिए, “अन्त मता सो गता”, जो होना है वह आख़िरी में हो जाए।’ मैंने कहा- “ध्यान रखना! तुम चाहते हो कि मैं अपना अन्त सुधार लूं तो उसी का अन्त सुधरता है जिसकी शुरुआत ठीक होती है।” जो ढंग का जीवन जीते हैं वही ढंग की मौत मर पाते हैं। जिनकी जिंदगी बेढंगी होती है उनकी मौत भी बेढंगी होती है। इसलिए ढंग से जिएं।
भगवती आराधना में यह प्रसंग आया, तुम्हारा जैसा ही प्रश्न किसी ने आचार्य से पूछा- ‘अन्त की आराधना ही कल्याण कारणी है, तो हम अन्त में आराधन कर लेंगे, जैसे भरत चक्रवर्ती ने किया और अन्तर मुहूर्त में केवलज्ञान कर लिया; जिंदगी भर तपस्या करने की जरूरत क्या?’ उन्होंने बहुत मीठी फटकार देते हुए कहा है कि “किसी नगर के व्यस्ततम चौराहे में दिन के १२:०० बजे यदि किसी अंधे आदमी को ख़ज़ाना मिल जाए, तो यह देख करके कि अंधे को ख़ज़ाना मिल गया, अपनी आँख फोड़ लेना कहाँ की बुद्धिमानी है!” किसी अंधे को मिल गया पर हर अंधे को नहीं मिल सकता, इसलिए तुम आँख वाले हो, जिंदगी भर पुरुषार्थ करते रहो तब सफल हो पाओगे।
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