कैसी हो निष्ठा?
शिष्य ने गुरु से पूछा-गुरुदेव! मेरी धर्म में प्रगाढ़ आस्था है, फिर भी मैं धर्मानुकूल जीवन क्यों नहीं जी पाता? धर्म में प्रगाढ़ आस्था है, लेकिन इसके उपरांत भी मैं धर्मानुकूल जीवन क्यों नहीं जी पाता? यह सवाल आप लोगों के मन में भी आता होगा। अनेक लोग हैं, जिनके हृदय में धर्म के प्रति आस्था है लेकिन जैसी आस्था है वैसा जीवन नहीं है। पूछा गया कि धर्म में आस्था है लेकिन धर्मानुकूल जीवन क्यों नहीं जी पाता? गुरु ने समझाया कि वत्स तेरे हृदय में आस्था तो है पर निष्ठा नहीं, आस्था है निष्ठा नहीं। आज बात ‘न’ की है और मैं आपसे उसी निष्ठा की बात करने जा रहा हूं। निष्ठा, न से निष्ठा, यह आस्था और निष्ठा में अंतर क्या है? आस्था से धर्म की शुरुआत होती है और निष्ठा से उसकी चरम परिणति। निष्ठा शब्द बहुत व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है। सामान्य रूप से लोग आस्था और निष्ठा को एक गिनते हैं लेकिन आस्था और निष्ठा पर्यायवाची नहीं है। निष्ठा,आस्था से बहुत बड़ा हुआ रूप है। निष्ठा में विश्वास तो है लेकिन विश्वास के साथ लगन भी है, उत्साह भी है, अनुराग भी है और दक्षता भी है। हम किसी भी कार्य को तब तक संपन्न नहीं कर पाते जब तक उसके प्रति हमारी पूर्ण निष्ठा न हो। लोक में कई बार जब इस तरह की बातें आती हैं तो कहा जाता है कि मैं निष्ठा पूर्वक इसका पालन करूंगा। बिना निष्ठा के आचरण हो ही नहीं सकता। आस्था होना और बात है, निष्ठा होना और बात है। अपने मन को पलट कर के देखिए आस्था तो आपके अंदर है ही, निष्ठा है या नहीं? गुरुदेव ने एक दिन बहुत गहरी बात कही थी, आस्था जब निष्ठा में परिवर्तित होती है तो जीवन की स्वतः प्रतिष्ठा बढ़ जाती है। क्या कहा, आस्था जब निष्ठा में परिवर्तित हो जाती है तो जीवन की स्वतः प्रतिष्ठा बढ़ जाती है, निष्ठा से प्रतिष्ठा जुडी है। आपकी निष्ठा जगी या नहीं जगी, यह आपको देखना है। निष्ठा आपकी कहाँहै? लगन रूचि विश्वास भरोसा किस पर है?
आज मैं आपसे चार निष्ठा की बात करूँगा, सबसे पहली निष्ठा है स्वयं के प्रति निष्ठा। तुम्हारी स्वयं के प्रति निष्ठा है या नहीं इसकी पड़ताल करो। स्वः के प्रति निष्ठा; महाराज कैसी बात करते हो, अपने प्रति निष्ठा नहीं होगी तो किसके प्रति निष्ठा होगी? पड़ताल करोगे तो पाओगे कि नहीं महाराज आप बिल्कुल सही कह रहे हैं। हमारे अंदर स्व के प्रति निष्ठा नहीं है क्योंकि हमने स्वयं को पहचाना ही नहीं तो स्वयं के प्रति निष्ठा क्या होगी। आत्मनिष्ठा जागनी चाहिए, धर्म क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हो, अपने जीवन का उत्कर्ष करना चाहते हो तो आत्मनिष्ठ बनो। आत्मनिष्ठ के दो अर्थ है एक व्यवहार में और एक अध्यात्मिक क्षेत्र में; जो आत्मनिष्ठ होते हैं वह गाढ़ आत्मविश्वासी होते हैं। जब तक तुम्हारे अंदर आत्मविश्वास ना हो तुम सफलता को प्राप्त नहीं कर सकते। जीवन व्यवहार में वही सफल होते हैं जो आत्मनिष्ठ होते हैं, आत्मविश्वास से लबरेज रहते हैं। पहले अपने भीतर झांकों, टटोलो कि मेरी वह निष्ठा है या नहीं है, अभी उसका जन्म हुआ या नहीं, वह प्रकट हुई है या नहीं? यदि जन्म नहीं हुआ तो तुम अपने जीवन में कभी सफल नहीं हो सकते। जीवन में जो भी सफल हुए हैं वह इसी आत्मनिष्ठा, पूर्ण विश्वास के बदौलत हुए हैं यदि तुम भी अपने जीवन को सफलता के अंतिम मुकाम तक पहुंचाना चाहते हो, अपने भीतर उसी निष्ठा को जगाने की आवश्यकता और अपेक्षा है। जिसके मन में आत्मविश्वास होता है उसके लिए कुछ भी असंभव नहीं दिखता, जिसका आत्मविश्वास डगमगाया होता उसके लिए कुछ भी संभव नहीं होता। किसी भी काम की शुरुआत में, उसका मन का संशय उसे ढोलायमान कर देता है और हमारे यहाँ नीति कहती है “संशयात्मा विनश्यति”।
जिसके मन में संशय का कीड़ा काटता रहता है, वह सही निर्णय तक कभी पहुंच नहीं पाता और जो सही निर्णय लेने में समर्थ नहीं होता वह कभी सफल नहीं हो पाता। अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हो, जीवन को सफलीभूत करना चाहते तो सबसे पहले इस बात को टटोल कर के देखो मेरे अंदर की निष्ठा मेरे भीतर जागी है या नहीं? आत्मविश्वास व्यवहार में और दूसरा आत्मविश्वास अध्यात्म में यानी अपनी आत्मा का विश्वास अपने स्वरूप की पहचान मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है? इसका अगर तुम्हें ज्ञान होगा तब तुम्हारे जीवन में स्वतः सहजता और सरलता प्रकट हो जाएगी और जिसे अपनी आत्मा का विश्वास जग जाता है, जिसे अपनी आत्मा की पहचान हो जाती है और जिसके अंतरंग में आत्मा के प्रति निष्ठा जम जाती है, उसका प्रत्येक कृत्य आत्मा को केंद्रित करके होता है। वह हर कार्य में अपनी आत्मा का हित देखता है, बाहर की बातें बाद में। आज लोग प्रगति की बातें करते हैं, सारी दुनिया में प्रगति का पाठ पढ़ाया जाता है, हर व्यक्ति को प्रगतिशील होना चाहिए।
Progressiveness होना कोई बुरा नहीं है लेकिन इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए, बाहरी प्रगति तब तक अर्थहीन है जब तक भीतरी प्रगति ना हो। कल विराट सागर जी महाराज ने एक पेपर की छोटी सी कटिंग मेरे पास भेजी, वह अटल बिहारी वाजपेयी के सन्दर्भ में एक छोटा सा कार्टून जैसा था। उसमें एक टिपण्णी लिखी थी प्रखर व्यक्ता का अनंत मौन। बहुत चिंतनीय वाक्य है, जिस व्यक्ति ने अपनी प्रखरता की तूती बजाई, जिसने पूरे देश को एक नई पहचान दी, निश्चित अटल बिहारी जी की देश को एक बड़ी देन है, वह व्यक्ति यहां से गया लेकिन अब इस धरती पर अपना अटल नाम अटल छाप छोड़कर के गए लेकिन एक दिन उसको भी अनंत मौन में डूबना पड़ा। तुम बाहर की कितनी भी उपलब्धियां अर्जित क्यों ना कर लो अंत शुन्य है, इससे कभी विस्मृत मत करना। तुम्हारी रुचि तुम्हारी आत्मा के प्रति होनी चाहिए। बाहर भी करो तो ऐसा करो जो स्वहित के लिए हो और भीतर वही करो जिससे तुम्हारी भलाई हो। अपनी आत्मा की पहचान होगी, तुम्हारी आत्मा के प्रति तुम्हारी निष्ठा होगी, तुम्हारे जीवन के प्रति तुम्हारी निष्ठा होगी, तुम्हारे जीवन के कल्याण के प्रति निष्ठा होगी तो तुम्हारा कोई भी कदम गलत नहीं होगा। विचार करना जब आत्मनिष्ठा की बात करते हैं तो बाहरी आत्मनिष्ठा तो तुम लोगों में खूब दिख जाती है और आज उस आत्मविश्वास के बदौलत लोग बड़े-बड़े कार्य को अंजाम दे रहे हैं बल्कि असंभव भी संभव बन रहा है। वह तुम्हारी आत्मनिष्ठा का एक फल है लेकिन उसने तुम्हें बाहर से मजबूत बनाया भीतर तुम क्या हो? तुम्हारे भीतर की आत्मनिष्ठा जागृत हुई या नहीं यह देखना है, मैं कौन हूं और मेरा क्या इसका तुम्हें पता लगा या नहीं लगा? अरे, मुझे मेरी आत्मा का कल्याण करना है, मेरे मुझे मेरी आत्मा को संवारना है, मुझे मेरा आत्महित साधना है। यह निष्ठा तुम्हारे भीतर जगी या नहीं जगी? पड़ताल तुम्हें इसकी करनी है। संत कहते हैं, आत्म निष्ठा के अभाव में चक्रवर्तियों जैसी उपलब्धियां भी अर्थहीन है। चक्रवर्ती भी खुद कहता है, मेरे पास में मेरी आत्मा की निष्ठा है तो मेरे पास दुनिया की सारी दौलत है। आत्म निष्ठा के अभाव में मैं दरिद्री बनना भी स्वीकार कर लूंगा लेकिन आत्म निष्ठा से शुन्य चक्रवर्तित्व को भी नहीं पाना चाहता हूँ। आप लोग बोलते हैं,
यह हमारी धर्मनिष्ठा का एक उदाहरण है। वही आत्मनिष्ठा की बात मैं आपसे कर रहा हूं कि आप अपने अंदर अपनी आत्मा के प्रति, आत्मा के कल्याण के प्रति तुम्हारे मन में रुचि नहीं जगी और तुम ने सब कुछ किया, अपने आप को भीतर से संवारने और सुधारने का प्रयत्न नहीं किया तो एक दिन तुम्हारी कहानी खत्म होगी। तुम्हारी उपलब्धियां यहां धरी रह जाएगी। सम्राट के तरह तुम ने जन्म लिया, सम्राट की तरह तुमने जीवन जिया लेकिन इस दुनिया से भिखारी के भांति विदा होने को बाध्य हो जाओगे। आत्मनिष्ठा जागेगी तब तुम्हारे अंदर आत्मा के कल्याण की भावना जागेगी और तब फिर तुम आगे अपने जीवन के रूपांतरण के लिए कुछ कर सकोगे। आजकल ज्यादातर देखने में आता है कि मनुष्य की बाह्य शक्तियां दिनोंदिन विस्तीर्ण हो रही है, वह भीतर से उतना ही शक्ति हीन होता जा रहा है, अंदर से कमजोर हो रहा है। भीतर ही भीतर टूटन सा अनुभव में आ रहा है, अंदर खोखला है। ऐसा जीवन किस काम का ? अपने आप को भीतर से strong बनाओ, आत्मसत्ता को पहचानो, उसके प्रति अपने ललक जगाओ और उसके कल्याण की भावना भाओ। सब कुछ मैं करूंगा लेकिन पहले अपने लिए, अपने आत्महित को कभी नहीं भूलूंगा, वह मेरे सर्वोच्च प्राथमिकता में होनी चाहिए। बहुत दुर्लभता से मनुष्य जीवन मुझे मिला है, अनंत जीवन मैंने बर्बाद कर दिए, उन जन्मों में और उन जीवन में तो मेरे भीतर समझ ही नहीं थी, शक्ति नहीं थी, मैंने अपने आप को पहचाना नहीं और अपने जीवन को बर्बाद कर दिया। यह सौभाग्य मुझे मिला है कि मैंने नर्तन पाया है और नर्तन पाकर के मैंने अपनी आत्मा की समझ पाई है, आत्मा की पहचान पाई है। अब यह अवसर मैं नहीं खोऊँगा, अब मुझे अपनी आत्मा के हित का उद्योग करना है। यह प्रेरणा आत्मनिष्ठा की फलश्रुति है। यह निष्ठा जागृत होनी चाहिए। एक बार ऐसी निष्ठा जग गई तो फिर जीवन में कहीं कुछ सोचने की बात नहीं होगी, पल में कायापलट हो जाता है
आदमी पश्चिम से पूरब की ओर मुड़ जाता है। मेरे संपर्क में एक ऐसा व्यक्ति जो आज वैभव के शिखर पर बैठा है। देखिए, आत्म निष्ठा जगने का परिणाम क्या होता है। YouTube के माध्यम से मुझे वह सुनते हैं ,भारत से बाहर रहते हैं और वह जब मेरे पास जयपुर में पहली बार आए,आने के बाद उनने पहला वाक्य कहा- महाराज! आपने मुझे जगा दिया, मेरी आत्मा को जगा दिया और अब मुझे केवल निर्जरा करनी है, मुझे वह मार्ग बताएं, मैं रोज आपको सुनता हूँ। नाम मैं नहीं ले रहा हूं क्योंकि उसमें दुविधा है। वह आदमी multi billionaire है, कोई ऐसा वैसा आदमी नहीं, जो आदमी Roles Royce और Bentley जैसी गाड़ियाँ maintain करता है। वह आदमी यूरोप में रहता है, जैनी आदमी है, लेकिन जो बात उसने कही वह मैं आपसे कह रहा हूं। महाराज, मैंने बहुत धन-संपत्ति जोड़ी, बहुत पैसा कमाया पर आज मुझे लगता है कि पैसे के नाम पर मैंने अपनी आत्मा को पाप के लबादे से लाद लिया है। महाराज आज सब झड़ा कर जाना है, मुझे मार्ग बताइये और उस व्यक्ति में जबरदस्त परिवर्तन आ गया। आप सब सुनोगे तो ताज्जुब करोगे, उस व्यक्ति ने अपने खाने-पीने में संयम रख लिया, यह तय कर लिया कि दो सब्जी और एक दाल के अलावा कुछ खाने में नहीं लूंगा, कपड़ों का उन्होंने नियम ले लिया कि गर्मी में 5 जोड़ी और सर्दी में 8 जोड़ी से ज्यादा मैं कपड़े अपने पास नहीं रखूंगा। यह परिवर्तन है और आज वह व्यक्ति दो टाइम सामायिक करता है, प्रतिदिन प्रतिक्रमण करता है, देव पूजन की अनुकूलता वहां नहीं मिलती लेकिन कोई दिन नहीं है, जिस दिन वह प्रवचन और शंका समाधान छोड़ता हो। वह बोला- महाराज! जीवन बदल गया, दिशा बदल गई, बस कुछ झमेले पड़े हैं नहीं तो मैं तो आपके चरणों में आ जाऊँ। उसने कहा- महाराज! आपने मेरी दिशा बदल दी। पहले मैं सोचता कुछ और था, मेरी दुनिया कुछ और थी, मैं अपने आप को फैलाने में, विस्तार करने में लगा था। आपने मेरी आखें खोल दी, मैंने समेटना शुरू करा है। मेरा ही फैलाया इतना है की समेटने में वक्त लगेगा। बाकायदा साल में दो बार मेरे पास आते हैं, अभी भी भिंडर में आकर गए। सोच बदलती है तो इंसान का जीवन परिवर्तित हो जाता है। तुम अपने भीतर झांक कर देखो कि तुम्हारी आत्म निष्ठा जगी है या नहीं। यह key point है, धर्म करना हो, अध्यात्म के क्षेत्र में आगे बढ़ना हो, जीवन व्यव्हार के किसी क्षेत्र में आगे बढ़ना हो; यह तभी संभव होगा जब तुम्हारी आत्मनिष्ठा जगेगी। मुझसे किसी ने पूछा- महाराज! आप मुनि क्यों बन गए? एक छोटे से बच्चे ने पूछा था शंका समाधान में, आप मुनि क्यों बन गए? मैंने उत्तर दिया इसलिए क्योंकि मुझे मेरी आत्मा की सुध आ गई। मुझे मेरी आत्मा की सुध आ गई, इसलिए मैं मुनि बन गया, मैं जान गया कि मैं कौन हूँ और अब मुझे क्या करना चाहिए और जो मैं हूं मुझे उसे पाना है। इसलिए मैं मुनि बन गया। मेरी आत्मनिष्ठा गहरी हुई, वैराग्य की ओर कदम बढ़ गया। तुम्हारे अंदर आत्म निष्ठा जागेगी, तभी तुम्हारे अंदर आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात होगा और जब अध्यात्म तुम्हारे जीवन में प्रविष्ट होगा तब तुम अपने जीवन में कुछ कर सकोगे। तो पहली निष्ठा आत्मनिष्ठा,
दूसरी निष्ठा धर्मनिष्ठा धर्म के प्रति निष्ठा। जिसके हृदय में आत्मनिष्ठा होती है वह धर्मनिष्ठ हो ही जाता है लेकिन धर्मनिष्ठा हो और आत्मनिष्ठा भी हो यह कोई जरूरी नहीं है। पहले तो आप अपनी धर्मनिष्ठा को टटोलिये, आपकी धर्मनिष्ठा कैसी है ? आप लोग धर्म करते हैं धर्म में निष्ठा है कि नहीं अरे महाराज निष्ठा नहीं होती तो हम धर्म करते क्यों? देखो तो दुनिया तो पागल होती है फिर भी हम सुबह से भगवान के दरबार में आते हैं, पूजा करते हैं, पाठ करते हैं, आप जैसे साधु संत आ जाए तो उनका सानिध्य पाते हैं, उनकी सेवा करते हैं, उनकी भक्ति करते हैं, दान देते हैं, व्रत उपवास भी करते हैं, महाराज कभी त्याग तपस्या भी कर लेते हैं। क्या यह हमारी धर्मनिष्ठा नहीं है ? निश्चित देखने को तो यह धर्मनिष्ठा है। निश्चित रूप से जो धर्मनिष्ठ होता है, वह यह सब कार्य करता है और जो यह सब करे वह धर्मनिष्ठ हो यह कोई जरूरी नहीं है। सबसे पहले मैं आपसे पूछता हूं, आप लोग धर्म करते हो, किस लिए करते हो ? बोलो आत्मा के कल्याण के लिए ? सच्चाई यही है जिस के अंदर आत्म कल्याण की प्रबल इच्छा है यानी आत्मनिष्ठा है, उसके हृदय में ही धर्मनिष्ठा होती है लेकिन जिनके अंदर आत्म निष्ठा का अभाव होता है वह धर्मी के रूप में दिखाई भले दे दे पर वह धर्मनिष्ठ नहीं होते। कैसे कैसे लोग होते हैं देखिये, धर्म करने वाले के दो-तीन example आपको देता हूं। आपने जवाब तो दिया कि हम आत्मा के कल्याण के लिए धर्म करते हैं लेकिन लोग जो भगवान के दरबार में जाते हैं कैसे-कैसे लोग जाते हैं। एक आदमी रोज अभिषेक करता था। अभिषेक करके बड़ा प्रमुदित भी था। मैंने पूछा- अभिषेक कब से कर रहे हो ? महाराज साल भर हो गया अभिषेक करते हुए। क्यों, अभिषेक करने की रूचि है, तुम्हारी बहुत अच्छी भावना है क्यों करने लगे अभिषेक और कबसे करने लगे? बोले महाराज, किसी ने हमसे कहा था तुम अभिषेक करोगे तो दुकान अच्छी चलेगी। महाराज, हमने अभिषेक करना शुरू कर दिया तो हमारा धंधा अच्छा चल रहा है इसलिए हम करने लगे। अब आप बताइए ऐसे लोग होंगे बहुत लोग हैं। अच्छा चलो किसी भी नाम से भगवान के दरबार में तो आ रहा है, इधर-उधर तो नहीं भटक रहा है इसलिए मैं उसे सर्वथा गलत नहीं कहता। लेकिन मैं आप से कहता हूं उसके अभिषेक को आप धर्म मानोगे ? बोलो, उसकी निष्ठा धर्मनिष्ठा की श्रेणी में आएगी ? मैं धर्म करूंगा तो मेरा व्यापार बढ़ेगा, धर्म करूंगा तो मेरी मुश्किलें टलेंगी, धर्म करूंगा तो मेरी विपत्तियां टल जाएगी, धर्म करूंगा तो मुकदमा मिट जाएगा, धर्म करूंगा तो संतान आ जाएगी, धर्म करूंगा तो बच्चों का संबंध हो जायेगा, धर्म करूंगा तो मुझे यह भौतिक उपलब्धियाँ हो जाएगी। इस भावना से धर्म करने वाले व्यक्ति को क्या हम धर्मनिष्ठा कह सकेंगे ? बोलिए निश्चित जो धर्म करते हैं उनमें बहुतेरों का यह सब हो जाता है लेकिन यह तो आनुसांगिक लाभ है। इसके लिए अगर धर्म किया तो तुम्हारी धर्मनिष्ठा कहाँ है ? तुम्हारी निष्ठा तो दुकान में, तुम्हारी निष्ठा परिवार में, तुम्हारी निष्ठा धन दौलत में,तुम्हारी निष्ठा अपनी संपत्ति में, तुम्हारी निष्ठा अपने मुकदमे में, भगवान में कहाँ ? चल जाता तो ठीक, नहीं चलता तो भगवान को कहते हैं दूसरे भगवान के पास जा रहे हैं। आप से काम नहीं चलेगा लोग तो ऐसे घूमते ही हैं। एक से काम नहीं चले तो दूसरे से चले। बड़े होशियार भी लोग हैं, भगवान को तो जितना चूना लगाते उतना कोई नहीं लगाता। बड़ी विचित्र स्थिति है, एक आदमी ने भगवान के सामने प्रार्थना की कि अगर हमें बच्चा हो गया तो हम सोने का छत्र चढ़ाएंगे। संयोग से बच्चा हो गया, अब सोने का छत्र चढ़ाने की बारी आई। अब क्या करें ? दिमाग लगाया, बच्चे का नाम रख दिया सोना, उसके ऊपर रखा एक छत्र और वह छत्र भगवान को चढ़ा दिया। ऐसे ऐसे धर्मनिष्ठ लोग हैं। यह पूछ रहे यह कौन सी मायाचारी है ? तुम ही लोग जानो कौन सी मायाचारी है। पिता प्रवचन में आया, सबसे आगे की पंक्ति में बैठकर के प्रवचन सुना, साथ में अपने बेटे को भी लाया, बेटा पहली बार प्रवचन में आया और यहां से गया सीधे दुकान पर गया। रोज की भांति बेटे से बाप ने कहा बेटा तेल में मिलावट कर ली ? दाल में मिलावट कर ली ? बेटे ने कहा, पापा कैसी बात कर रहे हो। आज ही महाराज ने कहा था कि ईमानदारी और सच्चाई से जीवन जीना चाहिए और आप कह रहे हैं मिलावट कर ली। बोला बेटा सुन, वह धर्म है यह धंधा , हम धंधे में धर्म को शामिल नहीं करना चाहते, नहीं तो भूखे मरेंगे। बोलो ऐसे लोगों की धर्मनिष्ठा का क्या होगा ?
धर्मनिष्ठा, वास्तविक धर्म निष्ठा हो और यह तभी होगी जब आत्म निष्ठा से आप लवरेज होंगे। तो आत्मनिष्ठा जगाइए, धर्मनिष्ठा होगी। मैं धर्म करूंगा, आत्मा को पवित्र बनाने के लिए, जीवन को निर्मल बनाने के लिए, चरित्र को उज्जवल बनाने के लिए, अन्तःकरण को विशुद्व बनाने के लिए। मुझे धर्म करना है क्योंकि यही एक माध्यम है, अपने आप को पवित्र बनाने का, मैं अपनी भूमिका अनुरूप धर्म करूंगा। मेरे पास इतनी योग्यता नहीं कि मैं 24 घंटे ध्यान कर सकूं। मुझे प्रवृत्तियों में जीना है तो पाप से अपने आप को बचाना चाहता हूं। प्रभु आपकी आराधना करता हूं, अपने हृदय को निर्मल बनाने के लिए, अपनी विशुद्धि को वृहंगित करने के लिए, अपने अहम् भाव को विगलित करने के लिए, अपने अहो भाव की अभिवृद्धि करने के लिए आपकी पूजा के लिए आया हूँ। आपके पास प्रार्थना करने के लिए आया हूं। मैं जो भी व्रत उपवास करता हूँ अपनी चेतना की विशुद्धि के लिए करता हूँ, अपनी सहनशीलता को बढ़ाने के लिए करता हूँ, अपने आप को अंदर से मजबूत बनाने के लिए करता हूँ, यह मेरा वह उद्देश्य है। मैं दान भी करता हूं तो यह मानकर के करता हूँ कि मेरी आसक्ति मिटे, मेरा अहंकार घटे और मेरा हृदय विशुद्ध हो। मैं इसलिए यह सब कर्म कर रहा हूं क्योंकि यह मेरा धर्म है। यह है धर्मनिष्ठा, देखो अपनी धर्मनिष्ठा को कैसी धर्मनिष्ठा है? सतही धर्म निष्ठा लोगों में बहुत देखने को मिलती है लेकिन इसके बाद भी उनमें बदलाव जैसा दिखना चाहिए वैसा नहीं दिखता। बहुत से धर्मी लोग हैं इस समाज में जो मंदिर में जितनी देर रहते हैं उतनी देर उनसे पवित्र कोई इंसान नहीं, मंदिर के बाहर जो उनका रूप होता है धरती पर वैसा कोई दूसरा स्थान नहीं। दोनों चीजें होती है बाहर आते ही रूप बदल जाता है। मैं सम्मेद शिखरजी में था, दिल्ली का एक परिवार आया। परिवार में उनका एक बेटा भी था, 22- 23 साल का, बाहर से पढ़ कर आया था, MBA करके आया था। माँ ने कहा, महाराज! इस बेटे को समझाइये, यह धर्म नहीं करता। मैं जैसे ही उस बच्चे की तरफ मुखातिब हुआ, उसने कहा महाराज यदि धर्म का वही रूप है जो मेरे मम्मी-पापा करते हैं तो मुझे ऐसे धर्म से एलर्जी है। मैंने कहा, क्या मतलब? मुझे आश्चर्य हुआ, मतलब क्या बोले? महाराज, मेरे पापा मम्मी दोनों दोनों सुबह 5:00 बजे मंदिर जाते हैं और 9:00 बजे के पहले मंदिर से लौटते नहीं है। आप जैसे कोई गुरु महाराज आ जाए तो 10 साढ़े 10 बजे कोई ठिकाना नहीं लेकिन मैं महाराज आपसे क्या बताऊं। 5:00 बजे से 9:00 बजे तक 4 घंटे मंदिर में देने वाले लोग, घर में आकर आपस में रोज लड़ते हैं। यह जितना गुस्सा करते हैं, मैं नहीं करता और यह लोग इतना झूठ बोलते हैं, कोई सामान्य आदमी नहीं करता। मुझे लगता है यह धर्म करते हैं कि अपना टाइम वेस्ट करते हैं। हम ऐसी जगह अपना समय क्यों बर्बाद करें। बंधुओं, मेरी दृष्टि में उस लड़के ने कोई गलत नहीं कहा। आज जब लोग कहते हैं कि नई पीढ़ी धर्म से विमुख है, मुझे उनकी गलती कम, आपकी गलती ज्यादा दिखती है क्योंकि आपने उनके सामने ऐसा आदर्श ही उपस्थित नहीं किया जिससे आपसे प्रेरित होकर वह आपके पीछे लगे, आप का अनुगामी करें। आपने रूटीन की तरह धर्म किया, आत्म निष्ठा के अभाव में की गई धर्मनिष्ठा तुम्हारे जीवन में प्रतिष्ठा नहीं दिला सकता। धर्मनिष्ठा सच्ची होनी चाहिए, आत्म हित की भावना से अनुप्राणित होनी चाहिए, वह अपने भीतर जगाइए। लड़के को फिर मैंने समझाया, तो वह फिर मेरे ग्रुप में आ गया था, आज बदल गया है, बहुत कुछ उसकी सोच बदली है। लेकिन यह उदाहरण अमूमन मिल जाते हैं। माँ-बाप अपने बच्चे से कहते धर्म करो, धर्म करो, धर्म करो। मैं तो आपको कहता हूं, आप अगर घर पर भी हैं तो अपने आचरण और व्यवहार इस तरीके का करें कि आपको बच्चों से कहना ना पड़े कि बेटा धर्म करें। वह आपको देखकर आप का अनुकरण करें।
मैं एक ऐसे दंपति को जानता हूं जो अभी तो इन दोनों सुपरिटेंडेंट इंजीनियर हो गए, मैं उनको 25 सालों से जानता हूं लेकिन दोनों सात्विकता की प्रतिमूर्ति हैं। सेंट्रल सीपीडब्ल्यूडी में जॉब करने वाला व्यक्ति एक पैसे का रिश्वत नहीं लेता, जीवन संयम और सदाचार के साथ जीता है, परिणाम बड़े निर्मल और शांत। उनके दो बेटियां और एक बेटा है वह भी वैसे धर्मी। मैंने उनके बच्चों से पूछा कि तुम लोगों के मन में धर्म की प्रेरणा कैसे जगी? उनने कहा पापा मम्मी को देखकर, एक उदाहरण यह भी दिखता है। मैंने पूछा, तुम लोगों को पापा मम्मी से inspiration कैसे मिला तो बोले हम इनको देखकर inspire होते हैं क्योंकि यह धर्म करके जितना खुश रहते हैं, और लोग मुझे इतनी खुश नहीं दिखाई पड़ते हैं तो हमें लगता है जीवन जीने का मार्ग यही है। आप ऐसा आदर्श अपने बच्चों के लिए क्यों नहीं छोड़ते, आप उनसे तो अपेक्षा रखते हो और खुद अंधेरे में हो। ध्यान रखना खुद अंधेरे में रहकर औरों को उजाला नहीं बांटा जा सकता। अगर किसी को उजाला देना चाहते हो, किसी तक उजाला पहुंचाना चाहते हो तो अपने भीतर का अंधेरा मिटाना पहले आवश्यक है। आत्मनिष्ठा के साथ धर्मनिष्ठा और फिर धर्मनिष्ठा होगी। आत्म निष्ठा ही धर्म निष्ठा का आधार बनती है तो फिर तुम्हारी प्राथमिकताएं बदल जाएगी, फिर तुम्हारे सामने कोई बहाना नहीं होगा। बहुत सारे लोग हैं जब धर्म की बात आती तो बहाना बनाते हैं। सामान्य व्यक्ति, जिनकी धर्मनिष्ठा जागृत नहीं है, वह धर्म की बात करने पर बहाना बनाते हैं। जिनके हृदय में सच्ची धर्मनिष्ठा होती है, वह धर्म करने का बहाना खोजते हैं। तुम कहाँ हो बहाना बनाने वालों में या बहाना खोजने वालों में? बोलो कहाँ हो, मौका आता है तो बहाना तो नहीं बनाते? अभी तक बनाए हो तब शुरुआत करना बहाना बनाना बंद करना, बहाना खोजना शुरू कर देना। कुछ लोग बड़े बहानेबाज होते हैं, हर बात पर बहाना ढूंढ लेते हैं। एक बार ऐसा हुआ कि कि स्कूल में एक छात्र था, बड़ा बहानाबाज़ था। उसके गुरुजी उसको कोई भी होमवर्क दे, कोई ना कोई बहाना बनाये। अब बार-बार बहाना बनाए तो उसके शिक्षक उससे तंग आ गए। उनने कहा, एक काम करो, कल तुम को चित्र बनाकर लाना, एक चूहे का, एक बिल्ली का, एक कुत्ते का। तीन चित्र बनाकर लाना, चूहे का, बिल्ली का और कुत्ते का और चित्र एकदम जीवंत होना चाहिए। अगले दिन सारे छात्र तो चित्र लेकर आए, यह आया तो इसके पास कोई चित्र नहीं था। शिक्षक ने पूछा, भैया तुमने चित्र नहीं बनाया? छात्र बोला, चित्र बनाया था। लाया क्यों नहीं? क्या करें सर, मजबूर है। क्या हो गया? सबसे पहले चूहे का चित्र बनाया, चूहा एकदम जीवंत बन गया। उसके बाद हमने बिल्ली का चित्र बनाया, वह भी एकदम जीवंत बनी। चूहे का चित्र बनाया, उसके बाद बिल्ली का चित्र बनाया, बिल्ली एकदम जीवंत बनी। बिल्ली की नजर जैसे चूहे पर पड़ी, उसने चूहे को खा लिया। ठीक है, बिल्ली कहाँ है?सुनिए सर पूरी कहानी, बिल्ली के चित्र को बनाने के बाद हमने कुत्ते कुछ का चित्र बनाया, वह भी एकदम जीवंत बन गया और कुत्ते ने जैसे ही बिल्ली को देखा, झपट लिया, वह निगल गया। चलो भैया, कुत्ते ने बिल्ली को खा लिया, कुत्ता कहाँ है? सुनिए न सर, उस कुत्ते को लेकर हम आ रहे थे। रास्ते में बच्चे लोगों ने उसे पत्थर मारा, पता नहीं वह कहाँ भाग गया। हमने बहुत खोजा नहीं मिला इसलिए हम देर से आए। बोलो ऐसे बहानेबाज को क्या कहोगे ? कई लोग हैं जिनकी आदत होती है बहाना बनाने की, वह उनका दोष नहीं, निष्ठा की दुर्बलता है। जो लोग बहाना बनाते हैं, निष्ठा के जग जाने पर वही लोग बहाना खोजना शुरू कर देते हैं। बहाना ढूंढो, किसी भी बहाने हमें करना है तो करना हैं। धर्म का कार्य करना है, जीवन को आगे बढ़ाना है। जितना अवसर मिल सके, मुझे करना है, यह भावना अपने अंतरंग में जगाइए। देखे जीवन में कैसा आनंद और रस प्रगट होता है।
आत्म निष्ठा, धर्मनिष्ठा, तीसरी बात जीवन को आगे बढ़ाना है कर्तव्य निष्ठा ।अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठा होनी चाहिए, तुम्हारे जो कर्तव्य हैं उनके प्रति तुम्हारी निष्ठा कैसी है? जो कर्तव्यनिष्ठ होते हैं, कर्मनिष्ठा व्यक्ति होते हैं, वह हर काम जवाबदारी से करते हैं, उनका सारा काम पक्का होता है। जिनके अंदर कर्तव्यनिष्ठा नहीं होती, उनकी लाइफस्टाइल बड़ी विचित्र होती है, बड़े अस्तव्यस्त होते हैं,आखिरी में पस्त हो जाते हैं कुछ नहीं कर पाते। संत कहते हैं, तुम्हें अपने कर्तव्यों का दृढ़ता से अनुपालन करना चाहिए, उस का निर्वाह करना चाहिए। वह कब होगा, जब तुम्हें अपने कर्तव्यों का भान होगा और उसके प्रति तुम्हारी निष्ठा होगी। आप का कर्तव्य क्या है? आपका कर्तव्य स्वयं के प्रति है, स्वजनों के प्रति है, समाज के प्रति है और स्वधर्म के प्रति है। स्वयं के प्रति आपका कर्तव्य क्या है? अपने शरीर को स्वस्थ रखना, आत्मा को पवित्र बनाना, जीवन को सुधारना, जीवन को संवारना। जीवन का हित खोजना, यह तुम्हारा स्वयं के प्रति कर्तव्य है कि नहीं आप बोलो। अपने कर्तव्य का कितना पालन करते हैं? प्रायः लोग विमुख है, कोई दिनचर्या नहीं है, रात में सोते 12:00 बजे. सूरज उगता कई लोगों ने देखा ही नहीं। हेल्थ conscious नहीं, बाद में बीमारियां जगाती हैं। 25 दवाइयों का डब्बा लेकर साथ में चलना पड़ता है। आप स्वयं के कर्तव्यों के प्रति जागरूक रहिए, अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग रहिए। आपका कर्तव्य है क्योंकि आपका शरीर ठीक होगा तो आप अपना काम अच्छे से कर पाओगे। अगर गाड़ी खराब तो सवारी कैसे चलेगी? अपने प्रति, अपने शरीर के प्रति, स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता तुम्हारी ड्यूटी है। आत्मनिष्ठा होगी, धर्मनिष्ठा होगी तो स्व के कर्तव्य के प्रति भी तुम्हारी निष्ठा होगी क्योंकि तुम्हें मालूम है आत्मा का कल्याण भी इसी शरीर से होना है। काया राखे धर्म है शरीर नहीं तो धर्म कैसे तुम अपने शरीर के प्रति कितने जागरुक हो, उससे हजार गुना जागरूकता हमारी है, बस अंतर यह है कि तुम तन को पोसते हो और हम तन का उपयोग करते हैं। इतना अंतर है, तुम शरीर के लिए जीते हो और हम शरीर के साथ जीते हैं। हम जागरुक है क्योंकि मुझे मालूम है मेरा धर्म इस शरीर के माध्यम से ही होगा इसलिए मुझे इस शरीर के प्रति जागरुक रहना है, स्वास्थ्य के प्रति जागरुक रहना है,अपने खानपान आचार विचार और व्यवहार में ऐसा कुछ नहीं करना जो मेरे तन के स्वास्थ्य को प्रभावित करता हो। क्या, तुम्हारे अंदर में इतना conscious है ? अगर यह जागृति हो जाएगी तो तुम भोजन को औषधि समझकर खाना शुरु करोगे और एक बात बताऊं, भोजन को औषधि समझकर खाओगे तो कभी औषधि खाने की नौबत ही नहीं आएगी। स्वयं के प्रति कर्तव्य, मेरा शरीर मेरे लिए बोझिल न बने, स्वस्थ रहें, मैं समय पर उठूँ, समय पर सोऊँ, योग करूं, प्राणायाम करूं, साधना करूं, प्रातः भ्रमण करूं और अपने शरीर को मजबूत बनाऊं। तन भी ठीक रहे, मन भी ठीक रहे, यह स्वयं के प्रति तुम्हारा कर्त्तव्य है। बाहर का और अपनी आत्मा के हित का कर्तव्य है कि सब कुछ करते हुए मुझे अपना कल्याण नहीं भूलना है क्योंकि यह मनुष्य जीवन बार बार मिलने वाला नहीं है, बहुत दुर्लभता से मिला, बहुत कठिनाइयों से मिला है तो मैं अपने जीवन को सफल बनाऊंगा, सार्थक बनाऊंगा। स्वयं के प्रति जागरुक रहने वाला व्यक्ति ही स्वयं के कर्तव्य के प्रति दृढ़ रह पाता है। आपकी कर्तव्यनिष्ठा स्व के प्रति है या नहीं, यह देखना है और नहीं है तो आप को ध्यान देना है। दूसरा स्वजनों के प्रति आपका कर्तव्य है स्वजन आपका परिवार, पत्नी, बच्चे, मां बाप है। उनके प्रति तुम्हारी ड्यूटी होती है। कर्तव्य ही नहीं दायित्व भी है तुम्हारा। उसको तुम्हें दृढ़ता से पालन करना चाहिए। अगर तुम हो तो तुम्हारे कंधे पर पूरे परिवार की निर्वाह की जिम्मेदारी है। तुम्हें उनका पूरा ध्यान देना चाहिए, उनके जीवन के निर्वाह की व्यवस्था करनी चाहिए, उन्हें समय देना चाहिए, उन्हें श्रेय देना चाहिए, उन्हें संस्कार देना चाहिए और उनके साथ अपने संबंधों को मधुर बनाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए। यह तुम्हारा कर्तव्य है लेकिन आजकल लोगों के अंदर यह बोध कम हो गया है। अब कर्तव्य का मतलब, पैसा कमा कर उनको दे देना है, लोग इसे ही अपने कर्तव्य के रूप में गिनने लगे हैं। केवल पैसा कमा कर के देने का मतलब कर्तव्य नहीं है। पैसा कमाना तुम्हारी आवश्यकता है पर पैसा कमाना तुम्हारा लक्ष्य नहीं। इस बात को कभी भूलना नहीं, पैसे कमाने से भी ज्यादा जरूरी परिवार को प्रेम देना है, यह तुम्हारा कर्तव्य है।
पिता बड़ा उद्यमी था,अपने व्यापारिक कार्यों में बहुत व्यस्त रहता था। अक्सर रविवार को छोड़कर अपने बच्चों से भी नहीं मिल पाता था। जब लौटकर आता तब तक बच्चे सो जाते और उठता उससे पहले बच्चे स्कूल चले जाते। एक दिन बेटे का जन्मदिन था, बेटे ने एक दिन पहले कह दिया कि पापा कल आप 8 बजे तक ऑफिस से आ जाना और मेरे लिए टॉफी लाना। पिता ने वायदा किया, बेटा मैं आऊंगा। बेटा पिता की इंतजार में बैठा रहा, 8 बजे से इंतजार करते-करते 11 बज गए। 11 बजे पिता आया, बेटे की आंखें सूज गई थी,अपने पिता के इंतजार में, जैसे पिता आया बेटे ने पूछा पापा मेरे लिए टॉफी लाए? अरे मैं तो भूल ही गया, बच्चा एकदम मायूस हो गया। बच्चे की मायूसी को भांपते हुए पिता ने अपने जेब से 2000 का नोट निकाला और बेटे को दे दिया। बेटा यह ले, नोट को देख कर पिता की आंखों को देखा, नोट मिला पर उसे टॉफ़ी के अभाव में जो तकलीफ थी, वह न मिटी, तसल्ली नहीं मिली। एकदम रुआंसा सा होता हुआ माँ को के पास गया और माँ से कहा मम्मी पापा ने टॉफ़ी की जगह रुपए दिए, माँ ने सब कुछ समझ लिया। पिता ने दूर से आवाज़ लगाई खाना लगा, जैसे ही खाने लगाने की बात आई, धर्मपत्नी उसके पास थाली लेकर के गई। कपड़े से ढक कर और जैसे ही कपड़ा उठाया, देखा तो वहां नोटों की गड्डी थी। थाली में नोटों की गड्डी देखकर वह चकरा गया, यह कैसा मजाक कर रही है। पत्नी ने कहा, मैं आपसे मजाक नहीं कर रही हूं, यथार्थ का एहसास करा रही हूँ। आपके लिए रुपयों का ही महत्व है और आप केवल हमें रुपए से संतुष्ट करना चाहते हैं तो मैं भी आपसे कहती हूं रोटी की जगह रूपये खा करके आप संतुष्ट हो जाओ। जब आप बेटे को टॉफी की जगह रूपये दे सकते हो तो मैंने सोचा आपको भी रोटी की जगह रुपया दे दूं तो क्या बुराई है? इतना सुनकर उसकी आँखे फटी रह गईं, उसे अपनी गलती का एहसास हुआ। कहा, तुमने मुझे मेरी आंख खोल दी, तुमने मेरे कर्तव्य का बोध करा दिया। बंधुओं, मैं आज आप सब से कहता हूं, स्वजनों के प्रति अपने कर्तव्यों में कभी कमी मत कीजिए, चाहे आप की कितनी भी व्यस्तता भरी जिंदगी क्यों ना हो, लेकिन आपकी प्राथमिकता में आपका परिवार होना चाहिए। सब कुछ पा लोगे और वह नहीं कर पाओगे तो कुछ नहीं होगा और इसका एक कुपरिणाम निकलता है।
विजयपत सिंघानिया जैसी घटनाएं घटती है, सारी जिंदगी साम्राज्य को बढ़ाने में लगा दिया, बेटे को संस्कार दिया होता तो बेटे ने ऐसी नालायकी का उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया होता। ऐसा एक नहीं रोज ऐसी घटनाएं घटती है। कर्तव्यनिष्ठ बनिए, स्वयं के प्रति, स्वजनों के प्रति, समाज के प्रति। जो तुम्हारा कर्तव्य है, उसका दृढ़ता से पालन करो क्योंकि तुम्हारा जो जीवन बना है उसमें समाज का बहुत बड़ा योगदान है। आज तुम एक सभ्य इंसान बने हो तो समाज के कारण बने हो। अगर समाज का तुम्हें सहयोग नहीं मिलता तो लुच्चा लफंगा बन करके फिरते रहते। तो तुम्हारी जिम्मेदारी है, अगर तुम समर्थ हो तो समाज के कल्याण के लिए जितना अच्छा कर सको करो, कहीं पीछे मत रहो, कभी कोई अवसर आए तो अपने कार्यों को गौंड़ करके सामाजिक कार्यों को प्रमुखता देने की कोशिश करो। यदि वह प्रमुखता तुम्हारे जीवन में होगी तो तुम कुछ लाभ ले पाओगे और वह प्रमुखता नहीं तो सब कुछ व्यर्थ हो जाएगा। समाज के प्रति अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए। आजकल देखने में आता है लोग समाज से तो अपेक्षाएं रखते हैं पर समाज की अपेक्षाओं की पूर्ति करने में प्रायः कंजूसी कर देते हैं। समाज के काम करने वाले लोगों के बारे में 50 आरोप लगाने में लोग माहिर हो जाते हैं लेकिन जब मौका आता है तो खुद करने में पीछे हट जाते हैं। तुम्हारा अपना कर्तव्य समाज का कर्तव्य है चातुर्मास हो रहा है, अरे सब कुछ हो रहा हम क्या करें, सब तो आ रहा है। बहुत पैसा आ रहा है, बाहर वाले दे रहे, हम क्या कर रहे हैं? अरे, वह पुण्य कमा रहे हैं, तुम क्या कर रहे, तुम तो देखो तुम्हारा अपना कर्तव्य क्या है? तुम्हारी अपनी ड्यूटी क्या तुम क्या पा रहे हो? तुम्हें यह देखना है, औरों को मत देखना। एक बात बोलता हूं यह राम नाम का रथ है, चल रहा है मंजिल तक जाएगा, जो उस में हाथ लगाएगा, वही तर जाएगा, नहीं तो हाथ ही मलते रह जाएगा। हाथ मत मलना, पीछे मत रहना, रतलाम वालों अपना जो उत्कृष्ट्तम हो वह दो, तन का दो, मन का दो, धन का दो। वह तुम्हारे जीवन को ऊंचाई तक पहुंचाएगा। यह समाज के प्रति तुम्हारा कर्तव्य है, स्व धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए तुम्हारा जो अपना कर्तव्य है, उस कर्तव्य में तुम्हारी निष्ठा गहरी होनी चाहिए। जिस की आत्मनिष्ठा होती है, वह धर्मनिष्ठ भी होता है, वह कर्तव्यनिष्ठ होता है और चौथी बात सांस्कृतिक निष्ठा। अपनी संस्कृति के प्रति निष्ठावान बनो, कोई भी ऐसा काम ना करो जो तुम्हारी संस्कृति के विरुद्ध है, जिससे तुम्हारे संस्कारों को क्षति पहुंचती हो। अपनी सांस्कृतिक निष्ठा को जो जागृत रखते हैं, वही अपने जीवन का मान बढ़ाते हैं। बंधुओं, हमारी भारत की संस्कृति की अपनी एक मिसाल है, अपनी एक पहचान है, उसको हम हमेशा ध्यान में रखें, उसके प्रति निष्ठावान रहें। दुनिया की सारी संस्कृतियाँ एक तरफ, भारत की संस्कृति एक तरफ, इसे कभी भूलना मत, इसका गौरव तुम्हारे अंदर होना चाहिए। आज सब पाश्चातय संस्कृतियों का अंधानुकरण कर रहे हैं और लोग उसमें अपनी शान समझते हैं, यह तुम्हारा अपना अज्ञान है। अज्ञान को मिटाओं अपनी सांस्कृतिक निष्ठा को जागृत करते हुए अपने जीवन को आगे बढ़ाएंगे तो हमारा जीवन धन्य होगा। आज मैंने निष्ठा की बात आपसे की, समय आप सबका हो गया है इसलिए विराम दूंगा। आत्मनिष्ठा, धर्मनिष्ठा, कर्तव्य निष्ठा और सांस्कृतिक निष्ठा आपके भीतर होनी चाहिए और निष्ठा जागनी चाहिए। विवेकानंद जी जब भारत से बाहर गए और वहां से लौट कर आए पत्रकारों ने पूछा कि भारत से बाहर जब आप अमेरिका घूमकर आए तब और अब में भारत के प्रति आपके दृष्टिकोण में क्या अंतर आया? उन्होंने कहा, जब तक मैं भारत से बाहर नहीं गया था तब तक मैं अपनी मातृभूमि से प्यार करता था। जबसे लौट कर आया हूं, अब मैं प्यार नहीं पूजा करता हूँ। क्योंकि हमारी धरती इतनी पूज्य है जो दुनिया के किसी कोने में नहीं है। अन्य संस्कृतियों से अपने आप को दूर कीजिए और अपनी सांस्कृतिक भावना और विरासत को जागृत रखियेगा तो हमारे जीवन में धन्यता आएगी।