क्या करे जब मन हो जाये हताश
एक बार किसी ने मुझसे पूछा- कि जब चारों ओर घोर अंधेरा हो, कोई मार्ग न सूझता हो तो क्या करें? जब सब तरफ घने बादल हो, बचाव का कोई रास्ता न दिखता हो तो क्या करे? सामने खड़े पहाड़ को देखकर रास्ता रुकता दिखता हो तो हम क्या करें? कुल मिलाकर जब हमारा मन घोर हताशा से भर जाए तो हम क्या करें? मैं समझता हूं, यह सवाल किसी एक व्यक्ति का नहीं, हर व्यक्ति सवाल के दौर से गुजरता है। जीवन का हमारा जो क्रम है, वो सहज नहीं है, जीवन में ढेर सारे उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। मनुष्य के जीवन में दो ही स्थितियाँ बनती हैं, ज्यों-ज्यों उसे सफलता मिलती है, उसका उत्साह बढ़ता जाता है और जब वह विफल होता है, हताश होने लगता है। आज बात हिंदी वर्ण-माला के आखिरी अक्षर ‘ह’ की है। मैं आप सब से केवल यही कहता हूं कि जीवन में कभी हताश मत हो, हताशा को अपने ऊपर हावी मत होने दो। प्रायः जितने भी लोग, आप लोगों को मोटिवेशनल स्पीच देते हैं, वो ये सिखाते, बताते है कि अपने अंदर हताशा नहीं आनी चाहिए। संत कहते है- लोक हो या लोकोत्तर किसी भी क्षेत्र में वे ही सफल हो पाते हैं, जिनके अंदर उल्लास होता है, उत्साह होता है, उमंग होती है, उत्कंठा होती है। इसके विरुद्ध जिनके मन में हताशा भर जाती है वह अपने जीवन में कभी सफलीभूत नहीं होते। अपने मन को टटोलो और देखो, क्या, आप कभी अपने जीवन में हताश हुए, अपने किसी भी प्रयास में वांछित सफलता नहीं मिली तो आपके मन में हताशा जगी या नहीं।
पहला प्रयास तो यह हताश हुए तो हताशा आपके ऊपर कितनी हावी हुई, यह दूसरी बात की पड़ताल आपको करना है, हताश होना, कुछ पल के लिए हताश होना। कई बार होता है लेकिन फिर उम्मीद की किरण जगती है, मन में उत्साह का भाव जगता है और लोग पुनः नए उत्साह के साथ अपने कार्य में जुड़ जाते हैं तो उतनी कठिनाई नहीं होती लेकिन जब हताशा हावी हो जाती है तो अवसाद का रूप धारण कर लेती है। वही अवसाद डिप्रेशन बन जाता है और किसी-किसी के लिए डीप डीप्रेशन होता है। वो अपने जीवन से ही हार जाता है तो मन कभी हताश हुआ नंबर वन हताशा आई तो वह तुम पर कितनी हावी हुई, नंबर दो और नंबर 3 तुम्हारी हताशा के आगे तुमने हार तो नहीं मानी। हताशा के आगे हार तो नहीं गये, हताश होना और हार जाना इन दोनों में बड़ा अंतर है। हताश कोई भी व्यक्ति होता है लेकिन जब व्यक्ति अपनी आखिरी उम्मीद भी छोड़ देता है तो व्यक्ति हार जाता है, अपने जीवन से हार जाता है और जो लोग हताशा के चरम पर पहुंचकर जीवन से हार जाते हैं, उनकी जिजीविषा समाप्त हो जाती है, वे लोग सुसाइड जैसा अटेम्पट भी कर लेते हैं। ये हताशा के उत्तरोत्तर बढ़ती हुई परिणति में शुरुआत से झांक कर देखना है कि मेरे मन में हताशा है या नहीं, हताशा आती है नहीं और हताशा भी लोगों के अंदर अलग-अलग होती है। किसी-किसी के मन में कोई विशेष परिस्थिति बनने पर हताशा आती है और कोई-कोई व्यक्ति ऐसे हैं जो थोड़ी-थोड़ी बात पर हताश हो जाते है। आप अपने मन को टटोलिए और देखिए कि मेरा स्थान किस तरह के व्यक्तियों में है, छोटी-छोटी बातों में थोड़ी-थोड़ी बातों में मैं हताश हूं उठता हूं या कोई विशेष कारण बनते हैं तो मेरे ऊपर हताशा छाती है। अगर थोड़ी-थोड़ी बातों में मैं हताश होता हूं तो फिर वह हताश होने के बाद उससे उबरने की चेष्टा भी करता हूं या उसे अपने ऊपर हावी कर लेता हूं। यदा-कदा कोई बड़े निमित्त आते हैं और मुझ पर हताशा छाती है तो वह मुझ पर हावी हो जाती है या फिर मैं उसे धीरे-धीरे उस से उभरता हूँ, डिप्रेशन की स्थिति में नहीं जाता और डिप्रेशन में फिर डीप डिप्रेशन में जीवन से हार मानने की स्थिति तो नहीं है। कई तरह के लोग हैं और यह चारों स्थितियों से लोग गुजरते है, हम पहले कि इस पर हम ज्यादा चर्चा करें, थोड़ा यह समझे कि मनुष्य हताश होता क्यों है और कब होता है?
आप अपने मन की पड़ताल कीजिए, आपके मन में हताशा कब होती है? सबसे पहला कारण वांछित सफलता न मिलने से हताशा आती है। हमने प्रयास किया, अनुकूल परिणाम ना आये तो हमारा मन हताश हो जाता है। एक पहला कारण वांछित सफलता न मिल पाने से लोगों के मन में हताशा आती है और कुछ लोग होते हैं, जो एकदम टूट जाते है, उम्मीद छोड़ देते है, हार जाते है कि अब तो हम से कुछ नहीं होगा। दूसरा कारण परिस्थितियों की मार खाकर व्यक्ति हताश हो जाता है। तीसरा कारण मुझे दिखता है, जब हमारी अपेक्षाओं की पूर्ति नहीं होती तो व्यक्ति हताश हो जाता है और चौथा कारण लोगों का हमें अनुकूल प्रतिभाव नहीं मिलता तो मन हताश हो जाता है। ये चारों कारणों की हम पड़ताल करें और देखे की इनसे हम अपने आप को कैसे उभार सकते हैं, कैसे पार हो सकते हैं? ताकि हम अपने आप को हताशा से बचा सके, सबसे पहली बात जो है, वांछित सफलता ना मिल पाने की। बन्धुओ! जीवन में कई लोग हैं, जिनके जीवन में वांछित सफलता नहीं मिलती और जितने लोग भी सफलीभूत हुए हैं उनके जीवन को निकट से झांक कर के देखो जो सफलता के शिखर पर पहुंचे हैं, उन्हें अनेक-अनेक बार विफलता के दौर से गुजरना पड़ा है लेकिन वह विफलता पर विजय पाए है तभी सफलीभूत हुए है। संत कहते है- तुम सोचते हो कि मुझे एक बार में वांछित सफलता मिल जाए, यह सहज बात नहीं है। बहुत बिरले लोग होते हैं, जिन्हें पहले प्रयास से ही अपना मुकाम मिल जाता है। ज्यादातर लोगों को तो बार-बार बार-बार बार-बार प्रयास करना पड़ता है। प्रयास करे और परिणाम की ओर आगे बढ़े तो व्यक्ति कितने भी विफल हो, उसका मन हताश नहीं हो पाता, वह आगे बढ़ता है, आगे बढ़ता है, आगे बढ़ता है लेकिन साधारण व्यक्ति की स्थिति यह होती है कि किसी भी क्षेत्र में चार कदम आगे नहीं बढ़ाया, उसे अनुकूल परिणाम नहीं आया, उम्मीद छोड़ देता है, हताश हो करके बैठ जाता है। संत कहते है – ‘ऐसे हताश होकर के बैठोगे, अपनी हिम्मत खो दोगे तो कभी भी अच्छे परिणाम नहीं पा पाओगे‘। तुम याद करो उस दिन को जब तुमने चलना शुरू किया था और पहली बार गिरे थे। एक पल को तुम्हारा मन रोया था पर उस घड़ी तुम्हारी माँ ने तुम्हें पुचकारा था, बेटा कुछ नहीं हुआ, तुझे कुछ नहीं लगा, यह तो चींटी मर गई, घोड़ा कूदा। चल, उठ, उठ, उठ और माँ के उस उत्साह से हमारे अंदर हिम्मत आई और हमने फिर उठ कर खड़े होकर के चलना शुरू किया। न जाने कितनी बार गिरे हैं तब हम खड़े हो सके, तब हम चल सके। यदि पहली बार गिरने के बाद यदि हमने यह सोच लिया होता कि अब हम नहीं चल सकेंगे तो शायद आज जिस मुकाम पर हम पहुंचे हैं, वहां कभी नहीं पहुंच पाते।
संत कहते हैं- सफलता एकाएक नहीं मिलती, सतत प्रयत्नों के बाद ही कोई व्यक्ति सफलीभूत हो पाता है, यह बात गांठ में बंद करके रखना चाहिए। हम कोई भी कार्य करें, किसी भी कार्य के क्षेत्र में आगे बढ़े, चाहे लोक हो या लोकोत्तर। हमें उस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए इस बात को अपने हृदय में अंकित करके रखना चाहिए कि बार-बार बार-बार के प्रयास से ही हम अंतिम परिणाम तक पहुंचते हैं। कई बार लगता है कि मेरा यह प्रयास निष्फल हुआ पर संत कहते हैं- सही दिशा में किया जाने वाला कोई भी प्रयास व्यर्थ नहीं होता, परिणाम में विलंब भले हो जाए। प्रयास कीजिए, लगातार कीजिये। आप हारियें मत, एक सघन चट्टान हो और उस चट्टान पर कोई घन का प्रहार करें तो पहले प्रहार से चट्टान टूट जाए, ऐसा सहज नहीं है। एक बार आपने प्रहार किया चट्टान नहीं टूटी, दूसरी बार प्रहार किया चट्टान नहीं टूटी, तीसरी बार प्रहार किया चट्टान नहीं टूटी। कई लोग है जो एक-दो प्रहार करके ये सोचते है ये चट्टान टूटने वाली नहीं है। पहली बार चट्टान पर प्रहार किया, पहलवान था। देख मैं एक झटके में इस चट्टान को तोड़ दूंगा लेकिन चट्टान का कुछ नहीं हुआ, हल्की सी चिपट भी नहीं चिटकी। अरे ठीक एक बार, दूसरी बार किया देखो बड़ा पहलवान बनता था, ऐसे कोई चट्टान टूटती है क्या और उस चट्टान को देख कर के उस पहलवान का मनोबल टूट गया वाकई में चट्टान सघन है, मेरा बल कमजोर है तो ऐसी स्थिति में पहलवान भी हार जाएगा लेकिन जो सही पहलवान है, जिसका मनोबल भी ऊंचा है। तन के बल के साथ जिसका मनोबल ऊंचा है। वो कहता है, ठीक है, पहले प्रहार से नहीं टूटा, कोई बात नहीं, दूसरा प्रहार चाहिए, इस बार भी नहीं टूटा देखो, नहीं टूटा। मुझे मालूम है, तुम तोड़ नहीं सकते, कोई बात नहीं एक बार और। तीसरी बार प्रहार किया चट्टान नहीं टूटी, क्यों पसीना बहा रहे हो ये टूटने वाली नहीं है। कोई बात नहीं एक बार और। चट्टान नहीं टूटी, एक बार और, चट्टान नहीं टूटी। अरे भैया! बोल रहा हूं, यह चट्टान नहीं टूटेगी। भैया, ठीक है, देखते हैं, मेरे हाथों में बल है चट्टान मुझे तोड़ना है और चौथे पहर में भी चट्टान नहीं टूटी। पांचवे प्रहार में भी चट्टान नहीं टूटी, लोग हंसी उड़ा रहे हैं, बड़ा पहलवान बनता है। अपने घन के प्रहार पर इसे गर्व होता है। चट्टान यहां टूटी नहीं, चट्टान टूटने की स्थिति में नहीं है, क्या करें? चट्टान टूटने की स्थिति में नहीं है, चट्टान कैसे टूटे, अब वो आदमी यह सोच ले कि मुझसे चट्टान टूटने वाली नहीं है तो वह चट्टान तोड़ नहीं सकता क्योंकि प्राय: यह देखने में आता है कि 10 बार के प्रहार से जो चट्टान नहीं टूटती, वह ग्यारहवीं प्रहार से चकनाचूर हो जाती है। और इस चट्टान को चकनाचूर करने में कौन समर्थ होता है। वही जो लगातार प्रयास करता रहता है, मुझे चट्टान तोड़ना है, तोड़ना है, तभी चट्टान टूटती है। तुम लोगों के साथ क्या होता है? एक बार ट्राई किया, दो बार ट्राई किया, तीसरी बार में तो टाइ-टाइ फिस्स, यह क्या है। ऐसे लोग जीवन में कभी सफलीभूत नहीं होंगे।
हम लोगों के लिए मुख्य मार्ग में बताया गया कि तुम मुनि बने हो, इस कलयुग में मुनि बने हो, इस कलयुग में जहां मोक्ष तो मिलता नहीं, कोई बड़ी उपलब्धियां भी नहीं है, कोई रिद्दियां भी प्राप्त नहीं होती फिर भी तुम्हें इस मार्ग में लगे रहना है। किस के बदौलत? अपने विश्वास के बदौलत, अपने भरोसे के बदौलत की मार्ग तो यही है, मोक्ष मिलेगा तो इसी से मिलेगा। हम साधु बने हैं देखने के लिए देखा जाए तो हमारे साधु जीवन की वर्तमान की कोई उपलब्धि हमें नजर नहीं आती, कोई उपलब्धि नजर नहीं आती लेकिन कहा की तुम अपने मार्ग के प्रति कभी अनुत्साहित मत होना। ये मान कर के चलना कि जब भी सफल होंगे, इसी के बदौलत होंगे। जब भी मुक्ति तक पहुंचोगे, इसी मार्ग के बदौलत पहुंचोगे और कोई दूसरा मार्ग नहीं है, मोक्ष नहीं है। इसकी कोई परवाह नहीं, मोक्ष मार्ग है इस पर चलो, तुम तर जाओगे। यह विश्वास, हमारे उत्साह को कायम रखता है और इसका ही यह सुपरिणाम है की हम पल, प्रतिपल अपने मार्ग में टिकने का प्रयास करते हैं। अपना उत्साह ऐसा हमें बनाकर रखना चाहिए ताकि हम मार्ग में टिककर के अपने जीवन को आगे बढ़ा सकें। आप किसी रास्ते पर चलो और थोड़ी सी भी आपको सफलता ना मिले, घबरा जाओ तो कैसे काम होगा। घबराना नहीं चाहिए, परिणाम आते हैं, धीरे-धीरे ही आते है। एकाएक परिणाम नहीं आते और यदि कदाचित् प्रयास करने के बाद भी आपको वांछित परिणाम ना मिले तो यह मत सोचिए कि मेरा भाग्य खराब है, यह सोचिए कि शायद मेरे प्रयासों में कुछ कमी है। एक बार और, क्या? एक बार और, एक बार और यह मन में भावना जग जाए तो तुम्हारे सामने कितनी भी बड़ी बड़ी विफलताएं क्यों ना हो, तुम्हारा मन कभी विचलित नहीं होगा। अब्राहम लिंकन को देखिए, जो एक सामान्य परिवार में जन्मा और अपने जीवन में लगातार 19 बार विफलताओं का सामना किया। व्यापार में नुकसान, एक्सीडेंट का शिकार हुआ, पत्नी की मृत्यु हुई और legislature के इलेक्शन से लेकर उपराष्ट्रपति तक के चुनाव वाईस प्रेसिडेंट तक के इलेक्शन में उसे हार का सामना करना पड़ा। उस व्यक्ति ने अपने जीवन में लगातार 19 विफलताओं का सामना किया लेकिन उसके बाद वह हारा नहीं। 20 वीं बार में जीता और सीधा प्रेसिडेंट ऑफ अमेरिका बन गया। यह है मनुष्य के अंदर की आशा, कभी हारना मत और कदाचित हार भी जाओ तो हार मत मानना। हारना बुरी बात नहीं है, हार मानना बुरी बात है। हम अभी नहीं हारे, अभी तो मुझे जो करना है, वह करना है। जो मेरा लक्ष्य है, वह मुझे करना है। ठीक है, एक बार में सफलता नहीं हुई, कोई बात नहीं, दूसरी बार में मिलेगी, नहीं मिली, तीसरी बार में मिलेगी, तीसरी बार में नहीं मिली लेकिन मुझे सफलता मिलेगी, चौथी बार में सफलता मिलेगी, सफलता तो मुझे मिलेगी और सफलता मुझे पानी ही है। वांछित सफलता ना मिले, हार मत मानो लेकिन वांछित सफलता न मिलने से लोग हताश होते है, पहली बात, जिसके लिए मैंने कहा-सतत प्रयास से आप उभर सकते है।
दूसरी बात, परिस्थितियों की मार खाकर के व्यक्ति हताश हो जाते हैं। जब भी विपरीत परिस्थिति सामने आती है, मनुष्य का मन टूट जाता है, घबरा जाता है, अब क्या करूं, कोई रास्ता नहीं। ऐसी विपरीत परिस्थिति में जब मन हताश होने लगे कि अब क्या करूं? तो संत कहते हैं- उस समय भी हताश होने की जरूरत नहीं है, परिस्थितियां है। हर मनुष्य के सामने सदैव एक ही स्थिति रहती है, ऐसी बात नहीं है। विकट परिस्थितियों का सामना तो हर किसी को करना पड़ता है लेकिन सामान्य व्यक्ति में और एक समझदार व्यक्ति में इतना ही अंतर है कि सामान्य व्यक्ति मुश्किलों को देखकर घबराता है और विशेष व्यक्ति वह होता है जिसके अंदर समझ होती है, वह उनसे मुश्किलें घबराती है, पास आए तो भी उसका सामना करता है। मुश्किलों का सामना करने वाले समाधान पाते हैं और मुश्किलों से घबराने वालों को घुटने टेकना पड़ता है। तुम्हारे जीवन में कोई मुश्किल आये, तुम्हारे जीवन में कोई परेशानी, कोई कठिनाई, कोई विपरीत परिस्थिति हो तो देखो, इस परिस्थिति से उबरने का कोई रास्ता है? नहीं है तो कोई बात नहीं। उसी परिस्थिति में जीना तुम्हारी मजबूरी है तो तुम्हारी कुशलता इस बात पर है कि उस परिस्थिति से उबरने की कला सीखो और ऐसा रास्ता चुनो जिससे उस परिस्थिति में जीते हुए भी तुम्हारा नुकसान कम से कम हो। उसके लिए कुछ सूत्र देता हूँ, जो हताशा से आप को बचा सके चाहे जैसी विपरीत परिस्थिति हो, आपका मन उससे कभी हताश नहीं होगा। सबसे पहले कोई भी परिस्थिति हो, परिस्थिति के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलें, कोई भी परिस्थिति आपके सामने आये, उससे आप घबराइए मत। विपरीत परिस्थितियों का सामना करने के लिए चार बाते में आप सबसे कह रहा हूँ जिससे आप अपने हताशा से अपने आप को बचा सकेंगे।
सबसे पहली बात जब भी कोई ऐसी परिस्थिति आए, आप उसके प्रति अपना दृष्टिकोण सकारात्मक रखो। सकारात्मक, यह परिस्थिति आई है, परिस्थिति के प्रति आपने अगर सकारात्मक दृष्टिकोण अपना लिया तो चाहे कैसी भी विकटता क्यों ना हो, आप पर वह हावी नहीं होगी। मेरे संपर्क में एक व्यक्ति है, बहुत बड़ी Tragedy के दौर से गुजरे। Tragedy यह हुई की एक ज़माने में बड़े संपन्न, काफी पैसा था, लेकिन नुकसान हो गया और जिस समय नुकसान हुआ, उसी दौर में उनकी पत्नी की किडनी खराब हो गई। कहते है, विपत्ति आती है तो चारों तरफ से आती है। उजाला तो केवल पूरब से आता, अंधेरा दसों दिशाओं से, उस व्यक्ति के सामने ऐसी विकट स्थिति आई जो आदमी लाखों रुपया का दान करता था। उसकी स्थिति ऐसी आ गई कि कोई उसे ₹10000 देने को तैयार नहीं हुआ। आप सोच सकते हैं कि सामान्य आदमी को ऐसी परिस्थिति का सामना करना पड़े तो क्या हो सकता है? लेकिन वह व्यक्ति बड़ा तत्वज्ञानी, समझदार था, जीवन की व्यवस्था को समझता था, उसने उस समय अपने मन का धैर्य नहीं खोया और एक ही बात सोचा कि अभी अशुभ कर्म का उदय है, थोड़े दिन में सब ठीक हो जाएगा, नुकसान हुआ है, ठीक है, मेरे ऊपर कर्जा हुआ है, ठीक है लेकिन मेरे साथ सबसे पॉजिटिव पहलू यह है कि मेरी बिजनेस की लाइन मेरे साथ जुड़ी हुई है। अभी मेरी गुडविल पूरी तरह खराब नहीं हुई है और पत्नी के लिए किडनी खराब हुई है, यह भी ठीक है लेकिन यह अच्छा संयोग है कि मेरे किडनी उस से मैच करती है, कोई नहीं है तो मेरी किडनी उसको हो जाएगी। आज मैं 52 साल का हो गया, 52 साल दो किडनी से जी लिया, बाकी जिंदगी में अपनी पत्नी को समर्पित कर दूं तो दोनों एक किडनी से जी सकते हैं, उसमें क्या बात हो गई। मैं अपने व्यापार को करके फिर सफलीभूत होऊंगा, ठीक है, व्यापार में एक बार नुकसान हुआ और ये नुकसान मेरी अपनी गलत सोच के, गलत डिसीजन के कारण हुआ, एक गलत निर्णय लिया जिससे मुझे बड़ा नुकसान हो गया, कोई बात नहीं, इस नुकसान को मैं एक नसीहत की तरह स्वीकार करूंगा और इसकी भरपाई करने की चेष्टा करूंगा। उसने इतने सारे लोगों को जितने लेनदार लोग थे, उनको बुलाया और बोला तुम लोग सारी बात मेरी जानते हो, मुझे थोड़े समय के लिए तुम लोग ढील दो, मैं तुम्हारा पाई-पाई चुका लूंगा। लेकिन अगर तुम लोग मुझे टेंशन दोगे तो शायद मैं कुछ भी नहीं कर पाऊंगा। इसलिए आप सब से मेरा कहना है मेरी नियत ठीक है, यह मेरी मजबूरी है कि हम आपका पैसा चुकाने की स्थिति में नहीं है लेकिन आप मानिए, मुझ में इतना भरोसा है कि मैं आपका सारा पैसा चुका दूंगा और उस व्यक्ति ने उस विषम परिस्थिति में अपनी किडनी को पत्नी को दिया। पत्नी को संभाला, खुद सम्भला और फिर ढंग से अपना कारोबार किया और उस घडी में धर्म-ध्यानबढ़ा दिया। धर्म-ध्यान बढ़ा दिया और धर्म-ध्यान बढ़ाकर के लगभग एक-डेढ़ साल उसको मुश्किल के दौर से गुजरना पड़ा। वो बोलता है, महाराज! मेरे जीवन के सबसे अच्छे दौर हैं। मैंने पूछा- क्या बोलते हो? बड़े दार्शनिक अंदाज में उसने कहा, महाराज! मैंने अपने और गैरों की पहचान लिया, कौन अपना है और कौन गैर है, इसे मैंने अच्छे से पहचान लिया। जीवन के लिए एक बहुत बड़ा नसीहत मुझे मिल गया, एक दृष्टि मुझे मिल गई और उस दौर को अपने जीवन का सबसे अच्छा दौर मानता हूं और मैं सोचता हूं कि जो स्थिति मेरी साथ आज भी थी, अगर 10 बरस, 20 बरस पहले बीत गई होती तो शायद मैं आज से ज्यादा स्ट्रांग होता, मजबूत होता। यह कठिनाई मेरे सामने आई, महाराज! मैं उभर गया और आज उस व्यक्ति की हैसियत पहले से सौ गुना अच्छी हो गई। किस के बदौलत? अपनी सकारात्मक सोच के बदौलत, अपनी हिम्मत के बदौलत, अपने हौसले के बदौलत, वह व्यक्ति ऐसी विकट स्थिति का सामना करने के बाद भी उससे पार हो गया। तुम्हारे सामने तो ऐसी कोई विकट स्थिति नहीं है, फिर तुम क्यों घबराते हो, क्यों घबराते हो? विषमतम परिस्थितियों का सामना करने वाला मनुष्य भी अपने जज्बातों के बल पर शिखर को छूता है तो तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है, ध्यान रखना विपत्ति एक चुनौती है, यदि तुम उसे स्वीकार लो तो उपलब्धि में परिवर्तित करा जा सकता है। विपत्ति एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो तो जीवन की उपलब्धि बन सकती है और विपत्ति की चुनौती से दूर भागोगे तो वह तुम्हारे लिए एक बड़ी बला बन जाती है।
संत कहते हैं- जीवन में अगर विपत्ति को चुनौती की तरक्की स्वीकारो और अपनी कुशलता से उसे उपलब्धि में परिवर्तित करो’। उपलब्धि को बदलने की क्षमता अपने भीतर विकसित करो, वह तुम्हारे जीवन का परम रस देगी, उससे तुम्हारे जीवन में परम आनंद की अनुभूति होगी। कोई भी विपत्ति आये, कैसे भी विकत स्थिति आये, challanges किसके जीवन में नहीं आते? महापुरुषों के जीवन में चले जाए, श्री राम के जीवन को देखो राजतिलक होना था और वनवास की घोषणा हो गई। रामचंद्र जी हताश हुए, मायूस हुए, किसी पर आरोप जड़े। अरे मेरे साथ अन्याय हो रहा है और रामचंद्र जी कहते तो अयोध्यावासी का पूरा support था उनको लेकिन राम, राम थे आज के राम होते तो अपने दशरथ का कॉलर जरूर पकड़ लेता। लेकिन रामचंद्र जी तो वनवास जा रहे हैं और राजा की तरह नहीं, तपस्वियों की तरह रह कर लेकिन राम जानते हैं कि राम वन जाएगा, तभी राम राम बन पाएगा। राम अयोध्या में रहेगा तो राम नहीं बन पाएगा। जिसके जीवन में challanges आते हैं, वही अपने जीवन में कोई अचीवमेंट कर पाते हैं, बिना चुनौतियों के जीवन में कोई उपलब्धि नहीं। इस बात को अपने गांठ में बांध कर रखो, सारे महापुरुषों के जीवन में देखो, उनके जीवन में कितनी बड़ी-बड़ी विकट स्थिति आई। श्री कृष्ण के जीवन को देखो, जन्म के पहले से लेकर उनके जीवन में चुनौतियां थी लेकिन जन्म के बाद पूरे जीवन न जाने उन को कैसे-कैसे दौर से गुजरना पड़ा, लेकिन वह हारे नहीं, आगे बढ़े। तुम्हारे सामने तो ऐसा कुछ भी नहीं है लेकिन अपने मन को टटोल कर देखो। थोड़ी सी विपरीत स्थिति आती है, तुम्हारी हार्टबीट बढ़ जाती अंदर का उत्साह खंडित हो जाता है, मन की उमंग खत्म हो जाती, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब खत्म-खत्म-खत्म। जब तक सांस तब तक आस, सकारात्मक सोचोगे तो कैसी भी विपरीत परिस्थिति क्यों ना हो, कैसी भी विकट परिस्थितियां क्यों ना हो, तो उससे उबरने की क्षमता, अपने भीतर विकसित कर लो।
दूसरी बात विकट स्थितियों का सामना, जब भी तुम्हें करना पड़े तो उसके प्रति दूसरा दृष्टिकोण रखो कि यह थोड़ी देर की बात है। धैर्य रखो, अधीर मत हो, सब ठीक होगा। थोड़ी देर की बात है, कोई भी, कैसी भी स्थिति होती है, शाश्वत नहीं होती, किसी के ऊपर कितनी भी बड़ी विपत्ति आए, आज नहीं, कल वह बदलेगी, सब बदलेगी। मैं हमेशा कहता हूं, रात कितनी भी काली क्यों ना हो पर शाश्वत नहीं। यह मंत्र है ठीक है, थोड़ी देर में सब ठीक हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा। मैं एक ऐसे व्यक्ति को जानता हूँ, जीवन में कैसी-कैसी स्थिति आती है।
जिस व्यक्ति ने साढ़े 6 वर्ष की उम्र में सारी दुनिया घूम ली, साढ़े 6 वर्ष की उम्र में सारी दुनिया घूम ली और एक वक्त ऐसा है कि 22 वर्ष की उम्र में उसे रोटी चुराकर खानी पड़ी। साढ़े 6 वर्ष की उम्र में सारी दुनिया घूमने वाले व्यक्ति को 22 वर्ष की उम्र में रोटी चुराकर खानी पड़ी पर उस शख्स ने कहा लेकिन कभी हमने हार नहीं मानी, हमने कभी हार नहीं मानी। जीवन के ये दिन देखें और हमने उस समय भी लगन और निष्ठा के साथ अपना काम किया है, ऐसी विषम स्थिति का सामना करने के बाद भी अवसर की हमने हमेशा तलाश की। यह सोचा, आज नहीं कल हम सफल होंगे। मन में ऐसी उम्मीद बनी रहे और महाराज! उसके बाद जो आगे बढ़े, आज वह आदमी फिर शिखर पर पहुंचा हुआ है, मल्टी बिलियनयर है, भारत से बाहर रहता है लेकिन आज वह शहंशाह है और उस व्यक्ति ने जो बात कही सबसे मुख्य रूप से जो कहने की है, वह यह है। महाराज! मैंने जब पैसा पाया तो भी देखा, पैसा खोया वह भी देखा और अब मेरे पास पैसा है, इसको भी देख रहा हूं। मुझे लगता है, मेरा कुछ है ही नहीं, जो है उसका उपयोग करो और उसका उपयोग करो। महाराज, इस घटना से मेरी आसक्ति भी खत्म हुई और अभिमान भी खत्म हुआ। अब ना मेरे मन में आसक्ति है, ना अभिमान है। जीवन में कईयों के साथ ऐसा होता है, बहुत सारे लोग इस सभा में बैठे होंगे जो बड़े-बड़े चोट खाए होंगे लेकिन यदि तुम्हारे अंदर धैर्य होगा तो तुम तो उस चोट से उबर गए और धैर्य नहीं है , अधीर है तो टूट गए। हथौड़ी सोने पर पड़ती है, सोना दमक उठता है और वो ही हथोड़ी कांच पर पड़ती है तो कांच चकनाचूर हो जाता है। संत कहते हैं- यदि तुम्हारे ऊपर विपत्ति की हथौड़ी का प्रहार पड़े तो तुम कांच की तरह टूटने की जगह, सोने की तरह दमकने की कला विकसित करो, धर्म यही सिखाता है। अपने आप को दमकाने का प्रयास करो, वह हमारी दृष्टि होनी चाहिये। वह दृष्टि यदि भीतर विकसित होगी तो हम जीवन में कोई सुपरिणाम हासिल कर पाएंगे अन्यथा हमारे जीवन में जो कुछ है, सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा, थोड़े समय की बात है, ठीक होगा, बीत जायेगा।
तीसरी बात जब भी ऐसी कोई विपत्ति आए, अपने अंदर की आशा को जीवित रखो, आशावादी बनो, आज नहीं कल ठीक हो जाएगा, आज नहीं कल ठीक हो जाएगा। आशावादी बनने से मनुष्य बहुत आगे बढ़ता है। मेरे संपर्क में एक व्यक्ति हैं, देखिये जीवन में कैसी विपत्ति आती है। आजकल तो कई तरह के तरीके लोगों ने याद कर दिए है, एक दूसरे के ऊपर मुसीबत डालने की लेकिन एक व्यक्ति के साथ ऐसा हुआ की उसके बेटे की शादी हुई और बेटे की शादी के बाद बहू कुछ दिन घर रही और वापस चली गई। और उन पर केस कर दिया, केस में कई तरह के इल्जाम लगाए, दहेज का भी केस, घरेलु प्रताड़ना और हिंसा का भी केस और अन्य प्रकार के भी कुछ फर्जी केस जो चारित्रिक हत्या के होते हैं, वह लगा दिए और वह सारे केस लगे, किस-किस पर लगे बेटा पर लगा, उसके ऊपर खुद लगा, उसकी पत्नी पर लगा, उसकी माँ पर लगा और इसी दौर में उनके यहाँ एक बड़ी चोरी हो गई। एक साथ इतनी सारी स्थितियाँ हुई, सूचना मुझ तक आई। वो व्यक्ति मेरे पास भी आए, मैंने पूछा, भैया क्या हुआ? वो बोले- महाराज! आशीर्वाद दीजिए, सब ठीक होगा। हमने ये समझा है, कर्म का उदय है, सब ठीक हो जाएगा, आज नहीं कल ठीक हो जायेगा। वह तो निमित्त है, हमने अपनी तरफ से कुछ नहीं किया लेकिन फिर भी ऐसा हुआ तो महाराज! महापुरुषों के ऊपर भी विपत्ति आई है, हम पर आई है, ठीक हो जाएगा, ठीक हो जाएगा। आप आशीर्वाद दीजिए, सब ठीक होगा और उस आदमी ने जीवन के 3 वर्ष ऐसी विषम परिस्थितियों का सामना किया लेकिन उस घड़ी टूटा नहीं। अपने काम में लगा रहा, अंततः सारे आरोप खारिज हुए और वह सब बरी हो गए और आज सुरक्षित है। जीवन में ऐसी स्थिति आती है, जब भी विपरीत स्थिति आए हारना मत चाहे तुम को व्यापार में असफलता मिली हो, चाहे अपने संबंधों में असफलता मिली हो, पारिवारिक जीवन में किसी प्रकार की विफलता हो, अपने आपको संभाल कर रखने की कोशिश करना, मन की उम्मीद को कभी मत खोना। बदलाव आता है, हम कहते है एक दिन घूरे के भी दिन फिरते है, तो जब घूरा बदल जाता है तो हम तो मनुष्य हैं, हमारे दिन भी फिरेंगे, आज नहीं तो कल निश्चित होंगे। यह मन में बात बैठा कर रखिए, अभी हाल ही में जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियां हमारे मन में आशा का संचार करती है-
लोहे के पेड़ हरे होंगे, तू गीत प्रीत के गाता चल।
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, आंसू के कण बरसाता चल।।
सिसकियों और चित्रकारों से चाहे जितना हो आकाश भरा।
खप्परों का हो ढेर, कंकालों से चाहे हो पटी धरा।
जीवित सपनों का भाग, पवन को लेना ही होगा।
आखिर सच का भार, पवन को लेना ही होगा।
जीवित सपनों के लिए मार्ग मुर्दों को देना ही होगा।
तो मार्ग तो मिलेगा, हम उम्मीद ना छोड़े। उम्मीद, आखिरी तक बनाए रखें, जब तक अवसर है उम्मीद बनाए रखें। आशा अपनी कभी मंद नहीं होगी, जीवन आगे बढेगा तो सकारात्मक सोचिए। सोचिये, थोड़ी देर की बात है। उम्मीद, आशावादी बनाए रखें, कर्म सिद्धांत पर भरोसा रखिए की ये कर्म सिद्धांत है, ठीक है कर्म का उदय है, मुझे सहन करना है, यह आपके अंदर के उत्साह को बढ़ाएं रखेगा, परिस्थितियों की मार से आप कभी हताश नहीं होंगे। हताशा का तीसरा कारण, जो अपेक्षाओं की पूर्ति ना होना, जब व्यक्ति के मन में कोई विशेष अपेक्षा होती है, किसी से अपेक्षा होती है और उसकी पूर्ति नहीं होती। वो अपने आप को उपेक्षित महसूस कर लेते हैं और उपेक्षा की घड़ी में बड़े हताश हो जाते हैं। कई-कई बार तो लोग बड़े उत्साह से आते हैं, महाराज के दर्शन करने के लिए आए हैं, आज महाराज से मिलेंगे, महाराज से बातें करेंगे और बहुत दिन बाद आए हैं महाराज जी मध्यप्रदेश में आए थे बरसों बाद हम मिले है। आज महाराज के पास जाएंगे, महाराज से बातें करेंगे और पता लगा महाराज के पास गए और इतनी भीड़ थी कि महाराज तो ढंग से देख भी नहीं पाए, मन हताश हो गया। किसी भी क्षेत्र में जब मनुष्य अपने मन में जरूरत से ज्यादा अपेक्षा रख कर के चलता है और उसकी पूर्ति नहीं होती, मन में हताशा छा जाती है। संत कहते है- ऐसी स्थिति में क्या करें तो पहला प्रयास यह करो की अपेक्षाएं कम रखो, अपेक्षाओं की पूर्ति ना हो तो अपने आप को उपेक्षित महसूस करना बंद करो। मैंने अपेक्षा की, ठीक है, सामने वाले ने हमें वैसा रिस्पांस नहीं दिया। मेरे मन में जो अपेक्षाएं थी, उसकी पूर्ति नहीं हुई, कोई बात नहीं, एक बार नहीं हुई, दूसरी बार होगी, दूसरी बार नहीं हुई, तीसरी बार होगी, तीसरी बार नहीं हुई, चौथी बार होगी। होगी तो, क्यों नहीं होगी? आज नहीं कल होगी, अपेक्षाएं ज्यादा बढ़ाना।
आजकल लोग जल्दी हताश क्यों होते हैं ? बच्चे बड़ी जल्दी हताश हो जाता है, जिस दिन रिजल्ट होता है, खुशी-खुशी रिजल्ट लेने जाते हैं और मुंह लटका के आते है। क्यों? अब बच्चों का मुंह लटके तब तक तो फिर भी ठीक है, बच्चों से ज्यादा उनके मां-बाप का मुंह लटक जाता है। क्या हो गया, नंबर कम लाया, साल भर बच्चा कितना पढ़ा है, ये नहीं देखा। यथार्थ हमारी शिक्षा का प्रतिमान नंबर नहीं हमारे आईक्यू का लेवल होना चाहिए। हमारी समझ का विकास होना चाहिए पर यह विडंबना है कि आजकल सब चीजें नंबर से जुड़ गई और सबसे पहला दबाव तो माँ-बाप के बच्चों पर होता है कि इसे अच्छे से अच्छे मार्क्स लाना चाहिए, अच्छे से अच्छा रैंक आना चाहिए, वो प्रेशर बच्चे पर आप डालते हैं। प्रेशर में रहने पर बच्चे के अंदर भी वह बाते आती है और जब वो मनोनुकूल रिजल्ट नहीं ला पाते, नंबर नहीं ला पाते तो हताश हो जाते है। इसी हताशा में कई बार बच्चे suicide भी कर लेते हैं। इसमें आप भी दोषी हैं, बच्चे भी दोषी है, यह खेल ही गलत है। पढ़ाई करने के लिए प्रेरणा देनी चाहिए, नंबर लाने के लिए नहीं और यह नंबर वाले आगे फिसड्डी हो जाते है और पढ़ने वाले जीवन में सफल हो जाते हैं। हम प्रेशर देते है, यह एक्सपेक्टेशन रहता है और कई-कई बार तो बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है। पहले ही सबको समझ में आ जाता है कि क्या होगा। एक बार ऐसा हुआ, एक व्यक्ति को घर से बाहर जाना था, उसका मित्र वही था तो तुरंत बेटे को बुलाया और बेटे को बुलाकर एक चांटा मार दिया। एक चांटा खींचकर मारा, बच्चा रोने लगा, सामने वाले को अच्छा नहीं लगा कि बिना कसूर के इस बच्चे को आज चांटा क्यों जड़ दिया। क्या बात है? बोले, भैया आपने इसको चांटा क्यों जड़ दिया, इसका रिजल्ट आने वाला है। आपने इसे चांटा क्यों जड़ा, बोला, आज इसका रिजल्ट आने वाला है तो रिजल्ट आने वाला है तो अभी चांटा क्यों मारा, बोला, मुझे बाहर जाना, मुझे मालूम है, उसका रिजल्ट क्या आएगा, इसलिए ठोका। ऐसी स्थिति में क्या होगा, यह जो प्रवृत्ति है तुम संतान से जितनी अपेक्षा रखते हो, खुद कहां हो, यह तो देखो। पति जोर-जोर से चिल्ला रहा था, बड़बड़ा रहा था, यह कोई रिजल्ट है। पूरा साल खराब कर दिया, गणित में 7 नंबर हिंदी में 5 नंबर, अंग्रेजी में 10 नंबर, यह कोई रिजल्ट है। पूरा साल खराब कर दिया, पत्नी आई और पति ने कहा- देख कैसा रिजल्ट है, पूरा साल ख़राब कर दिया। पत्नी ने रिजल्ट देखा, पति की तरफ आगे बढ़ाया। बोली, थोड़ा ध्यान से देखो, किसका रिजल्ट है? पता लगा, उसी का रिजल्ट था।
हम खुद कहां है, यह नहीं देखते सामने वालों से अपेक्षा का विस्तार कर लेते हैं, ज्यादा अपेक्षाएं मत बढ़ाइए अन्यथा हताशा के शिकार बनना पड़ेगा और कृत्रिम अपेक्षा तो बिल्कुल मत बढ़ाइए। आजकल कृत्रिम अपेक्षाओं का विस्तार बहुत तेजी से हो रहा है, यही लोगों के लिए बड़ी दिक्कत है। अपने आप से अपेक्षाएं घटाइए, ओवर एक्सपेक्टेशन मनुष्य को निराशा देती है, उसे कम करने का प्रयास कीजिए, किसी से भी, तो कभी हताश नहीं होना पड़ेगा। कई बार ऐसा होता है माँ-बाप अपने बच्चों को पढ़ाया, लिखाया, बच्चे की अच्छी नौकरी लग गई, अच्छे से उसकी शादी कर दी। माँ -बाप ने सोचा था,अब मेरा बेटा मेरे बुढ़ापे की लाठी बनेगा लेकिन बेटा बड़ा हुआ, लाठी बनने की जगह लाठी दिखाना शुरू कर दिया, अब क्या हुआ? हताश, मन मायुस। मेरे संपर्क में एक सज्जन है, उनके दो बेटे एक बेंगलुरु में, एक यू.एस. में। दोनों को पढ़ाया, आईआईटीयन है दोनों और अच्छी कंपनियों में जॉब कर रहे हैं, बहुत अच्छा पैकेज है लेकिन दोनों बच्चों को पढ़ाने के बाद जब दोनों बच्चे बाहर चले गए तो बड़े हताश हो गए। यह सोचकर के हताश हो गये कि मैंने दोनों बेटों को पढ़ा दिया, अब दोनों बेटे मेरे काम के नहीं रहे तो मैं कहां रहूं, जब बच्चों के पास जाता हूं तो बेटा भी काम करता है, बहू भी काम करती है। वह दोनों अपने-अपने दफ्तर चले जाते है, मैं दिन-भर घर में किसके साथ समय बिताऊं और वह लोग आते हैं तो बहू अपने काम में लग जाती है, बेटा देर से ऑफिस से आता है तो सबसे पहले T.V. ऑन करता है, उसको मेरे पास कोई समय ही नहीं दिखता। मुझे लगता है कि मैं घर में एक केवल चौकीदार की तरह रह रहा हूं, मुझे रहने में कुछ मजा ही नहीं आता। वह व्यक्ति लौट कर के अपने घर आ गया, मुझे वहाँ नहीं रहना, कुछ दिन के लिए उसे हताशा हुई। उसके मित्र उसे मेरे पास ले कर के आए। बोले, महाराज! यह बड़े डिप्रेशन जैसी स्थिति में है, इनको समझाओ। मैंने उन्हें समझाया, हमने कहा, भैया, इसको तुम ले कर के इतना हताश क्यों हो रहे हो, इस बात को लेकर के थोड़ा पॉजिटिव क्यों नहीं सोचते। संयोगतया, उनकी धर्मपत्नी नहीं थी, हम बोले इस बात को लेकर के तुम इतना हताश हो रहे हो, इसकी जगह तुम्हें खुश होना चाहिए। महाराज! खुश कैसा होना चाहिये? तुम्हे खुश इस बात के लिए होना चाहिए कि अच्छा हुआ दोनों बेटों को पढ़ा-लिखा कर के बाहर बसा दिया, बच्चे बाहर बस गए, अब मेरा मोह खत्म, मेरा रास्ता क्लियर हो गया, पत्नी भी नहीं है, शरीर स्वस्थ है, साधना के मार्ग में लग जाओ, क्यों कुत्तों की तरह जी रहे हो। पॉजिटिव सोच लो, अपेक्षाएं छोड़ दो, मोह को छोड़ दो, संतान से तुम्हारे अंदर जो अपेक्षायें हैं, यह जब तक तुम पर हावी रहेगी, तुम्हारे मन में वह ह ताशा छाती रहेगी। अपने मन को बोलो, मोक्षमार्ग में लग जाओ, उस व्यक्ति को वह प्रेरणा काम कर गई और आज वह आदमी सप्तम प्रतिमा का अनुपालन है, अपना जीवन जी रहा है, बदल दिया अपने जीवन को, साधना में लग गया, हताशा खत्म, दिशा बदलनी चाहिए और यदि यह दिशा बदलेगी तो हमारे जीवन की दशा बदल जाएगी।
अगर हमारे किसी के साथ संबंध अनुकूल नहीं होते और उन संबंधों को देख कर हमारे मन में हताशा आती है तो हमें कोशिश करनी चाहिए, संबंधों को ठीक करने की और यदि उसके बाद भी हमारे संबंध ठीक नहीं होते तो हमें हताश होने की जगह कुछ ऐसा प्रयास करना चाहिए कि उस संबंध में भी मधुरता बनी रहे और कदाचित मधुरता ना बने तो हम अपनी तरफ से और कड़वाहट विकसित ना करें। हम देखें, सामने वाले के नेचर मान ले, एक महिला अपने पति के स्वभाव को ले करके बड़ी हताश थी। पति बड़ा क्रोधी था, जरुरत से ज्यादा गुस्सा करता था। एक दिन आई, बोली महाराज जी! कुछ मंत्र दे दो। मैंने कहा- मेरे पास तो कोई मंत्र है ही नहीं। मेरे गुरु ने नमोकार के अलावा कोई मंत्र मुझे सिखाया नहीं। बोली, महाराज जी! बहुत दु:खी हूं, हताश हो गई हूं। मेरे पति बड़े गुस्सेल है, मेरे पति गुस्सैल हैं, उन्हें हम कितना समझाते है, मानते नहीं और महाराज अब तो गुस्सा बर्दाश्त नहीं होता। मन करता है कि सुसाइड कर लूं। हम बोले- कितने वर्ष हो गए विवाह के? बोले, 35 वर्ष हो गए। मैं बोला, 35 वर्ष तक तुमने क्या किया, यह गुस्सा आज-कल से शुरू हुआ। बोली, नहीं महाराज! पहले दिन से गुस्सा है, हमारी तो फर्स्ट नाईट भी गुस्से से हुई। वो बोली, पहले से ऐसा गुस्सा है, जब से हम आए, तब से गुस्सा। हमने कहा जब 35 वर्ष झेल लिया तो थोड़े दिन और झेल लो, कोई अजर-अमर होकर तो आये नहीं है, इतना झेला थोड़ा और झेलो। महाराज! जब तक तो बर्दाश्त करती रही लेकिन अब बर्दाश्त के बाहर हो गया। अब हर काम में अड़ंगा लगाते हैं। हमने कहा, यह मान लो, यह सामने वाले का नेचर है और यह सोचो जैसे इतने दिन चला थोड़े दिन और सही, थोड़े दिन और सही और एक बात और सोचो मैंने उससे कहा, यह मान करके चलो कि यह तुम्हारा पति तुम्हारा पति बनकर नहीं आया, तुम्हारी तपस्या का निमित्त बनकर आया है। एक दृष्टिकोण बदल दो, यह पति तुम्हारा पति बनकर नहीं आया, तुम्हारी तपस्या का निमित्त बन कर आया। वह बोली, तपस्या का निमित्त क्या है, वह तुम्हें गुस्सा में गाली बके और तुम उसका प्रतिवाद मत करो, चुपचाप सुन लो। समझ लो, तपस्या हो गई, पर तपस्या हो गई तो समस्या खत्म हो गई। इतना ही तो करना है, मन हताश होगा। महाराज! यही कठिन है। इलाज तो जैसी बीमारी वैसा ही होता है, अगर गंभीर बीमारी है तो ईलाज भी उसका कठिन होगा और हमको इलाज चाहिए तो उसकठिनाई को स्वीकारने के लिए मानसिक रूप से तैयार होना पड़ेगा तो हम इलाज को स्वीकारें, कठिनाई से उबरने की कोशिश करें तो हम अपने जीवन में सफलीभूत हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। तो आज चार बातें मैंने आपसे कहीं, उन चारो बातो को आत्मसात करके हताशा से अपने आपको बचाने की कोशिश करें। हताश होना आर्त ध्यान है, जो हमारी आत्मा की दुर्गति का कारण है। उससे अपने आप को बचाए, हर पल उल्लास से जिये, उमंग से जिये, उत्साह से जिये। अपनी जिजीविषा को प्रबल और प्रखर बनाए रखें, ये प्रयास आप सबको करना चाहिये।