दृष्टि में मर्म जीवन में धर्म
बीज की सार्थकता वृक्ष के रूप में विकसित होकर फलवान बनने में हैं। बीज धरती के गर्भ में समाहित होकर अंकुरित होता है, पल्लवित होता है, पुष्पित होता है, वृक्ष का रूप धारण करता है। उसमें फूल-फल लगते हैं तो सार्थक होता है। वही बीज यदि किसी शिला तल पर पड़ जाए तो हवा पानी में सड़ गल कर नष्ट भ्रष्ट हो जाता है। हमारा जीवन भी एक बीज की तरह है इस जीवन को पाकर यदि हम उसे फलवान बनाते हैं तो हमारा जीवन सार्थक जीवन की श्रेणी में आएगा और यदि हम अपने जीवन को यूंही जीकर खराब कर दें तो हमारा जीवन व्यर्थ होगा। सवाल है कि हम अपने जीवन को किस दिशा में बढ़ा रहे हैं? अब तक जीवन में जो उपलब्धियां अर्जित की है क्या उसे हम अपने जीवन की सार्थकता परिभाषित कर सकेंगे, क्या उसे हम अपने जीवन की मूलभूत उपलब्धि के रूप में गिन सकेंगे? यदि है तो फिर कोई चिंता की बात नहीं और ऐसा लगता है कि जिन्हें मैंने अपनी जीवन की मूलभूत उपलब्धि के रूप में अभी तक समझा है उसका जीवन से सीधा कोई संबंध ही नहीं है तो हमें अपने चिंतन की दिशा को बदलना होगा। थोड़ी देर के लिए थम कर विचार कीजिए कि मैंने अब तक जो कुछ भी उपार्जित किया है उसमें से ऐसा क्या है जिससे मैं अपने जीवन की उपलब्धि के रूप में गिन सकूं। बोलो क्या-क्या उपार्जित किया है? वह सब तो आपके दिमाग में होगी। मनुष्य को 24 भगवान के नाम भले याद ना हो लेकिन मेरे पास कितनी संपत्ति है उसका सारा लेखा-जोखा तो होगा (एक बार में पूरी कैसेट चल जाती है)।
मैं आप सब से पूछना चाहता हूं कि जो भी चीजें हैं उनमें से ऐसी क्या है जिसे आप अपने जीवन की उपलब्धि के रुप में गिन सकते हो? Achievement (उपलब्धि) आखिर किसे मानते हो? बोलो किसे मानते हो? महाराज जीवन में जब कुछ अतिरिक्त जुड़ जाता है उसे हम अपने जीवन के लिए उपलब्धि मान लेते हैं। चाहे वह धन-पैसे के रूप में हो चाहे धाक-प्रतिष्ठा के रूप में हो चाहे यश-ख्याति के रूप में हो या संबंध और संपर्क के रूप में हो। जो कुछ भी जीवन में अतिरिक्त जुड़ता है हम उसे जीवन की उपलब्धि के रूप में गिनते हैं। पर संत कहते हैं जिन्हें तुम अपने जीवन की उपलब्धि के रूप में गिनते हो थोड़ा विचार करो वह तुम्हारे जीवन के साथ कितने दिन तक टिके होते हैं, कब तक चलते हैं और कब तक स्थिर रहते है? इन में एकरूपता नहीं है यह तो चढ़ते-उतरते रहते हैं। यही तुम्हारे जीवन की भयानक भूल है। तुमने केवल पैसा कमाने को अपने जीवन की उपलब्धि समझा, तुमने पद पाने का नाम जीवन की उपलब्धि समझी और इससे ही अपने जीवन की सफलता का आधार मान लिया। आज एक शब्द चल पड़ा कि हर कोई सक्सेस चाहता है और सक्सेस किसमें है रिचनेस में। पर बंधुओं मैं आपसे एक ही सवाल करता हूं आप क्या चाहते हो? ईमानदारी से बोलना सफलता या प्रसन्नता? बोलो तुम्हारी सक्सेस में प्रसन्नता का पुट है कि नहीं? तुमने सदैव रिचनेस को बल दिया हैप्पीनेस तो तुम्हारे हाथ से खिसक गई। चाहिए क्या- Happiness हैप्पीनेस या Richness रिचनेस?
उस हैप्पीनेस की तैयारी क्या है? हर कोई सफलता के पीछे पागल है और सफलता सफलता सफलता बोलता है। जिस सफलता के पीछे तुम भाग रहे हो, मैं समझ रहा हूं जिसे लोग सफलता कहते हैं आदमी उसी में फिसलता है। वह फिसलन है। समझो जीवन का सक्सेस क्या है। जीवन को अंदर से मजबूत बनाना, जीवन को शांत बनाना, जीवन को सदा बहार प्रसन्न बनाए रखना, जीवन को पवित्र बनाना यही जीवन की सफलता और सार्थकता है। वह सफलता सफलता नहीं जो आज है और कल रहे ना रहे। जिसका कोई भरोसा नहीं। सच्चे अर्थों में सफलता वह है जो उपलब्धि के होने और उपलब्धि के खोने दोनों में टिकी रहे।
एक आदमी कोई पद पा लिया अपने आप को सफल मानता है और पद छूट जाए फिर हताश होता है। उसने सफलता बाहर की चीज में मानी। सच्चे अर्थों में पद मिलने से सफलता समझने वाले लोग बहुत छोटे हैं। अपने आंतरिक व्यक्तित्व को मजबूत बनाकर जीवन का कद बढ़ाने वाले लोग ही सच्चे अर्थों में अच्छे हैं, सफल हैं। अंदर का कद बढ़ाओ। भारत की संस्कृति में जीवन को जितनी व्यापकता से देखा गया है दुनिया में कहीं नहीं देखा। जीवन में जैसी व्याख्या भारत में की गई दुनिया में कहीं नहीं और उन्होंने हमारे लिए अपने जीवन को समझने का एक बहुत अच्छा दृष्टिकोण दिया और कहा कि यदि तुम अपने जीवन की परिपूर्णता चाहते हो, जीवन को सफल बनाना चाहते हो तो अपने प्रतिमान बदलो, अपने दृष्टिकोण को बदलो। जीवन में चार तत्व होना चाहिए जब तुम्हारा जीवन जीवन कहलायेगा।
शांतम् तुष्टम् पवित्रं च सानंदमित् तत्वतः
जीवनम् जीवनम् प्राहों भारतीय सुसंस्कृतम्।
भारतीय संस्कृति में उसी जीवन को जीवन कहा गया है जिस जीवन में शांति हो, तुष्टि हो यानी संतोष हो पवित्रता हो और आनंद हो। मैं आपसे पूछता हूं अपने भीतर झांक कर देखो कि तुम्हारे पास शान्ति है कि नहीं? संतोष है कि नहीं? पवित्रता है कि नहीं? आनंद है कि नहीं? दुनिया की सब चीजें हो और ये ना हो तो बताओ उसका कोई मतलब है? सब अर्थहीन है। किसी जगह कितने भी शून्य हो उसके आगे कोई अंक ना हो तो उन शून्य की कोई value है?
मूल क्या है? अंक है, शांति है। आज आदमी पैसा प्रतिष्ठा और पैकेज के पीछे इसलिए भागता है कि शांति से जिए पर उनके पीछे भागते हुए शांति हाथ से छिड़क जाती है। यानी उसने अंक को हटा दिया शून्य को पकड़ लिया इसलिए जीवन का रिजल्ट अंत तक शून्य होता है। शून्य से पूर्ण बनने की कोशिश कीजिए, मूल को पहचानने का प्रयास कीजिए। अगर हम मूल को समझेंगे तो हमारे जीवन की धारा परिवर्तित हो जाएगी। हम अपने जीवन में एक सार्थक उपलब्धि घटित कर सकेंगे। कुछ हासिल होगा। सवाल शांति का है। आज आपके पास कितनी शांति है? अगर देखा जाए तो आज के समय में मनुष्य ने जितने संसाधन इजात किए हैं आज से 50 वर्ष पहले वह सब चीजें नहीं थी। आज सारी दुनिया एक छोटे से गैजेट में आकर सिमट गई, सारी फैसिलिटी आपके पास है, एक पल में आप इधर से उधर हो सकते हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो मनुष्य बहुत समर्थ हो गया लेकिन हम दूसरी दृष्टि से देखते हैं तो पाते हैं कि आज का मनुष्य जितना अशांत है। 50 वर्ष पहले उतना अशांत नहीं था। बात क्या है? हम बात शांति की करते हैं पर जीवन में अशांति घिरा पाते हैं। हम जितना सुख पाने का प्रयास करते हैं दुख से अपने आप को घिरा पाते हैं। चाहते हैं हम आनंद में मग्न हो, अवसाद में हमारा चित्त उलझा रहता है। वजह क्या है? कभी आपने समझा मेरी अशांति का मूल क्या है? हमारे जीवन में अशांति इसलिए नहीं कि हमने उसे हटाने का प्रयास नहीं किया सच्चाई तो यह है कि अभी तक हमने जो प्रयास किया वह शांति पाने के लिए किया। शांति का अभाव इसलिए नहीं कि हमने उसे पाने का कोई प्रयास नहीं किया अपितु अब तक के जितने भी प्रयास हैं शांति के लिए हैं लेकिन उसके बाद भी शांति नहीं इसका मतलब कमी कहां है? संत कहते हैं अच्छे परिणामों को पाने के लिए केवल पुरुषार्थ पर्याप्त नहीं है पुरुषार्थ से भी ज्यादा जरूरी है पुरुषार्थ की दिशा। केवल efforts sufficient नहीं है efforts से भी ज्यादा value direction की है। आपका effort किस direction में चल रहा है, आपका प्रयास किस दिशा में चल रहा है। सही दिशा में किया गया छोटा सा पुरूषार्थ भी हमें बहुत बड़ा परिणाम दे देता है और गलत दिशा में किए जाने वाले बड़े-बड़े प्रयत्न भी हमें वांछित फल नहीं देते।
कहीं गाढ अंधेरा हो उसे हटाने के लिए कोई आदमी लठ लें और उस पर वार करने लगे तो उसे हम क्या कहेंगे? अंधेरे में कोई लाठी चलाना शुरु कर दे तो अंधेरा भागेगा? बोलो कभी भी नहीं भागेगा। क्यों क्योंकि लठ चलाने से कभी अंधेरा नहीं जाएगा अंधेरे को भगाने के लिए लाठी चलाने की जरूरत नहीं है अंधेरे को भगाने के लिए एक छोटा सा चिराग जलाने की जरूरत है। चिराग के जलते ही अंधेरा पल में चला जाएगा। सदियों का अंधेरा एक पल में दूर हो सकता है यदि हमने नन्हा सा चिराग जला दिया। तो कहीं ऐसा तो नहीं कि हम अंधेरे को भगाने के लिए लठ चला रहे है और तय कर लिया कि जिन्दगी भर यही करते रहेंगे। महाराज आप लोग तो अपना काम करो हमें अपना काम करने दो हमने तय किया है कि जैसे जीवन जी रहे हैं वैसे ही जिएंगे। जब तक हमारी यह दशा होगी हम अपनी जिंदगी का रोना नहीं मिटा सकेंगे और शांति से अपने आप को दूर नहीं हटा सकेंगे। जीवन में एक आध्यात्मिक क्रांति की जरूरत है जो हमारे चित्त्त को मोड़े, जो हमारी सोच को बदलें, जो हमारे चिंतन की धारा को परिवर्तित कर दे, जिससे हमारी दिशा बदल जाए।
एक बार हमारे गुरुदेव से किसी ने पूछा महाराज जी- “मोक्ष मार्ग में आगे बढ़ने के लिए क्या करें?” गुरुदेव ने कहा ज्यादा कुछ मत करो, “जिधर मुंह है उधर पीठ कर लो और जिधर पीठ है उधर मुंह कर लो”। कितना सरल है मोक्ष मार्ग। कोई पहाड़ थोड़े ही तोड़ना है। क्या करना है? केवल अपने direction को चेंज करना है। बस महाराज यही नहीं होता सब कुछ हो जाता है। लोग अपनी दिशा को परिवर्तित करने की कोशिश नहीं करते। संत कहते हैं सबसे पहले अपने चिंतन की दिशा बदलो, सोच को बदलिए। अगर वह बदल गई तो आपके लिए ज्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। मनुष्य जीवन हमें मिला तो इस जीवन का हम सच्चा लाभ लें। अपने चिंतन की दिशा को बदलने के लिए आज मैं आपसे चार बातें कहूंगा। अगर चार बातें हमारे दिल दिमाग में बैठ जाए तो मैं समझता हूं फिर ज्यादा कुछ उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी।
सबसे पहली बात “जीवन के यथार्थ को पहचानिए”। क्या है जीवन का यथार्थ? बोलो कभी सोचने की कोशिश की? जीवन का यथार्थ क्या है आप लोगों के पास उत्तर ही नहीं है बड़ा मुश्किल है। हम लोग जिंदगी जीते हैं और बस जी कर के जिंदगी को बिता देते हैं। आखिरी क्षण तक हमें इस बात का एहसास नहीं होता कि वाकई में हमारा जीवन क्या है। जीवन का यथार्थ क्या है। जिसने जन्म लिया है उसका मरना निश्चित है यह जीवन का यथार्थ है। ना हम कुछ लेकर आए हैं ना हम कुछ लेकर जाएंगे यह जीवन का यथार्थ है। जो हम करेंगे सो हम भरेंगे यह जीवन का यथार्थ है। इस पर आपका विश्वास है? कितना विश्वास है? महाराज जितनी देर प्रवचन में है उतनी देर विश्वास है। प्रवचन से बाहर गए हमारा विश्वास बदला। मैं तो सोचता हूं कि तुम लोगों की दशा बड़ी विचित्र है बहुरूपिया को भी ड्रेस बदलने में घंटा आधा घंटा लग जाता है तुम लोगों को तो एक पल लगता है। आखिर धारा कैसे बदलेगी? सोच में आध्यात्मिकता की प्रतिष्ठा लाने के लिए यथार्थ का बोध जरूरी है। यह जो दृश्य जीवन दिख रहा है वह मैं नहीं हूं इससे परे मैं हूं और यह जो दृश्य जीवन है जिस में जन्म लिया है एक दिन मैं मरूंगा, ना कुछ लेकर आया हूं ना कुछ लेकर जाऊंगा, जो करुंगा वह भरूंगा। यह बोध हर पल होना चाहिए अगर यह भाव बोध मन में बैठ गया तो तुम्हारे जीवन में फिर कोई उलझन नहीं होगी। आज के मनुष्य के जीवन में जो अशांति है, उद्वेग है उसके पीछे प्रबल कारण हैं उसके मन में उत्पन्न होने वाली आसक्ति और यथार्थ पर दृष्टि चली जाएगी तो तुम्हारे सामने आसक्ति जैसी कोई बात ही नहीं रहेगी।
मैं आपसे एक सवाल करता हूं एक balloon (फुग्गा) है आपने सजाने के लिए रखा हो बहुत सुंदर है। बच्चे को दे दिया। अब वह फूट जाए तो बच्चा रोने लग जाएगा क्यों? इतना अच्छा उसके लिए खिलौना था फूट गया। उसने उसके साथ न जाने कितने सपने संजोए थे फूट गया। अब वह रो रहा है और जब बच्चा रोता है तो आप क्या कहते हैं- अरे! बेटा रोता क्यों है और आ जाएंगे, फुग्गे तो फूटने के लिए होते हैं फूटेंगे। मैं आपसे पूछ रहा हूं मैं बच्चा उसे फूटता हुआ देखकर रोता है आप नहीं रोते, क्यों? क्योंकि आपको पता है कि यह फूटने वाले हैं आपको उसकी वास्तविकता का आपको उसकी सच्चाई का बोध है इसीलिए आप उससे प्रभावित नहीं होते। संत कहते हैं जो कुछ भी है दुनिया में वह सब फुग्गे से बढ़कर थोड़े ही है। छोटे फुग्गे फूटते हैं तुम बच्चों को समझाते हो बड़े फुग्गे फूटते हैं तुम रोना शुरु कर देते हो। जिस दिन यह समझ तुम्हारे भीतर विकसित हो जाएगी तुम्हारा रोना-धोना अपने आप समाप्त हो जाएगा। वास्तविकता को समझते ही जीवन की धारा परिवर्तित हो जाती है। हम जीवन की सच्चाई को नहीं समझ पाते सारा जीवन जी लेते हैं लेकिन अंत तक हमें सच्चाई का बोध नहीं होता नतीजा हमारा सारा जोड़ घटाव भौतिक स्तर पर चलता है। अध्यात्मिकता हमारे भीतर पनप ही नहीं पाती।
भरत चक्रवर्ती चक्रवर्ती था। लेकिन चक्रवर्ती के होने के बाद भी उसके भीतर यथार्थ के प्रति श्रद्धा थी, यथार्थ की समझ थी। छह खंड का अधिपति, चौदह रत्नों का स्वामी था फिर भी उसे पता था यह सब मेरे नहीं हैं, मैं इनका नहीं हूं, मेरा इनसे कोई लेना-देना नहीं है, मेरी दिशा अलग है, इनकी दिशा अलग है। हमारे भीतर भी एक भावबोध होना चाहिए कि मैं क्या हूं? मेरा क्या है? यथार्थ को हम सामने रखकर जीवन की धारा परिवर्तित कर सकते हैं यही से हमारी आध्यात्मिक सोच की शुरुआत होगी और जो हमारे जीवन को ऊंचाई तक पहुंचाने में सक्षम होगी। चाहे जैसी स्थिति आए हमारा मन कभी विचलित नहीं होगा और यथार्थ को अनदेखा कर दोगे तो चाहे तुम्हारे साथ कितनी facilities हो तुम्हारे मन में स्थिरता नहीं होगी। तो पहली बात “यथार्थ को स्वीकार कीजिए”।
दूसरी बात “कर्म सिद्धांत पर भरोसा रखिए”। कर्म सिद्धांत पर अगर आपके मन में सच्चा विश्वास प्रकट हो गया तो तुम्हारे जीवन में चाहे जैसी विपत्ति हो, चाहे जैसी बीमारी हो, चाहे जैसी विपन्नता हो या चाहे जैसी विसंगति हो तुम सब में संगति बिठा लोगे। विपत्ति हर किसी के ऊपर आती है। हम तुम तो बहुत सामान्य प्राणी हैं। महापुरुषों के जीवन में भी बड़ी-बड़ी विपत्तियां आती है पर सामान्य व्यक्ति छोटी सी विपत्ति में टूट जाता है और महापुरुष बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी विचलित बने रहते हैं। विपत्तियां सबके जीवन में आती है लेकिन यदि तुम्हारे भीतर दृष्टि हो तो तुम विपत्ति को भी संपत्ति में परिवर्तित कर सकते हो और दृष्टि शून्य व्यक्ति थोड़ी सी विपत्ति में भी टूट जाता है। जैसे प्रभात के बाद रात होती है यह प्रकृति का नियम है। उजाला होगा तो अंधेरा भी होगा। दिन में उजाला होगा तो रात में अंधेरा होगा ही होगा। क्या हम इस नियम को पलट सकते हैं? नहीं ना। तो जब कभी भी अंधेरा आता है तो मन में आकुलता होती है क्या? क्यों नहीं होती? क्योंकि हमें इस यथार्थ का बोध है कि अभी अंधेरा है फिर उजाला होगा। अगर ऐसी घोषणा हो जाए कि आने वाले दिनों में महीने भर तक सूरज नहीं उगेगा तो क्या करोगे तुम? स्वीकार करने के सिवा यहां कोई चारा नहीं है। क्योंकि यह प्रकृति का नियम है। प्रकृति की व्यवस्था है। प्रकृति के विरुद्ध हम जा नहीं सकते इसीलिए हमें accept करना पड़ेगा और हम इसे स्वीकार करते हैं स्वीकार भाव के आते ही मन में शांति आ जाती है। वह चीज जो सामान्य से हटकर है उसे भी जब हम स्वीकार कर लेते हैं तो हमारे लिए सहजता बनी रहती है। तो मैं तुमसे कहता हूं कि जीवन में थोड़ी-थोड़ी विपत्तियां आने पर तुम अपने आप में असहज क्यों हो जाते हो? स्वीकार करना शुरू करो। विपत्ति आई है, कर्म का उदय है। सूरज के आगे कितने बादल आते हैं पर आज तक सूरज का तेज कभी नष्ट हुआ क्या? आत्मा पर चाहे कितनी विपत्ति आए आत्मा का स्वरूप बदला क्या? जीवन के मर्म को अगर जानोगे, यथार्थ को जानोगे, आत्म श्रद्धानी बनोगे तो तुम्हारे अंदर कर्म चाहे कैसे भी खेल खिलाएं तुम्हारा चित्त पल भर को विचलित नहीं होगा। यथार्थ का श्रद्धानी, मर्म द्रष्टा व्यक्ति जानता है कि भीतर कुछ भी परिवर्तित नहीं होता और बाहर है वह कर्म से प्रभावित होता रहता है। वह कर्म का प्रभाव भी अस्थाई है। विपत्ति को भी संपत्ति में बदलने की दृष्टि उस व्यक्ति के हृदय में विकसित होती है।
आप अंजना को सामने रखकर देखिए। सती अंजना उसके जीवन में कैसी विपत्ति आई कल्पना कर सकते हैं आप उस विपत्ति की? 22 वर्ष तक तो पति का वियोग, 22 वर्ष बाद कहीं से पति का संयोग मिला लेकिन उसके बाद वही उसके लिए विपत्ति का सबब बन गया। पति के घर से ठुकरा दी गई। पेट में बच्चा है। अंजना निर्दोष है। फिर भी उसे पति के घर से ठुकरा दिया गया। उसने क्या किया? अपनी सास से लड़ाई लड़ी? कोई कोर्ट कचहरी की बात सोची? वकील के पास गई? आज की अंजना होती तो कहती यह सब छोड़ो मेरा डीएनए टेस्ट करा लेना। लेकिन उस अंजना ने कुछ नहीं किया। वहां से चली, सोचा पिता के घर चलूं। पर वाह रे कर्म! पति के घर से ठुकराए जाने के कारण पिता के घर में भी उससे जगह नहीं मिली। पिता के द्वार भी बंद हो गए। क्या किया? रोई, गाई, मन्नत, मनौती मनाई, किसी से आरजू़ मिन्नत की? क्या किया? यह कर्म का खेल है कर्म खेल खिला रहा है मैं खेलूंगी। जो है जैसा है मैं उसको झेलूंगी। चलो जहां मुझे कर्म ले जाएगा मैं वहां जाऊंगी। निश्चित मेरे पेट में जो बच्चा है उसका भी अपना कोई भाग्य है मेरा भी अपना कोई भाग्य है जो होना है वह होगा, उसे मैं फेस करूंगी। निकल गई भयानक जंगल में। नारी को अबला कहते हैं लेकिन अंजना ने जिस पराक्रम का परिचय दिया वैसा पराक्रम तो बड़े-बड़े पहलवान भी नहीं कर सकते। मैं आपसे पूछता हूं क्या उस घड़ी अंजना दुखी थी? अंजना दुखी हुई? अंजना पल भर को दुखी नहीं हुई। क्यों नहीं? क्योंकि उसने दुख को स्वीकार लिया और यह जाना कि यह कर्म की करामात है, कर्म सिद्धांत पर उसे विश्वास था जो होगा उसका सामना करेंगे और जो होगा वह अच्छा होगा। इसी भाव के साथ वह चली। जंगल में हनुमान का प्रसव हुआ। एक झोपड़पट्टी में जन्म लेने वाले बच्चे के लिए के लिए भी कुछ नहीं तो कांसे की थाली तो बज जाती है। तद्भव मोक्ष गामी हनुमान का जन्म हुआ कामदेव थे। वहां एक कतरी भी नहीं बिछी थी। पत्तों की सेज में प्रसूति हुई और वहां कोई थाली बजाने वाला भी नहीं था। लेकिन अंजना विचलित नहीं हुई क्योंकि उसकी दृष्टि में मर्म था, जीवन में धर्म था। यह खेल है कर्म का, इसे उससे भान था अपने आप को संभाला।तुम्हारे जीवन में जब भी ऐसी विपत्ति आए क्या तुम ऐसा पराक्रम दिखा सकते हो? अगर दिखाओगे तो तुमसे समर्थ कोई दूसरा इंसान नहीं और ऐसा नहीं दिखाओगे तो तुरंत डिप्रेशन में आ जाओगे। आज भी ऐसे लोग हैं जिन्होंने विपत्ति में समता रखी और अपने जीवन को संभाला।
मेरे संपर्क में एक ऐसा युवक है जो अपने भाई पर अंधा विश्वास रखता था। बडे़ भाई को पिता तुल्य मानता था। कुछ लोगों ने उसे कहा भी कि देख ज्यादा भरोसा करेगा तो धोखा खाएगा क्योंकि तेरी विचारधारा में और तेरे भाई की मानसिकता में अंतर दिखता है। उसने एक नहीं सुनी उसने कहा आज पिताजी साथ नहीं है तो मेरे लिए भाई के प्रति पिता का ही स्थान है और वह जो कुछ करेंगे वह सब सही होगा कुछ गलत नहीं होगा लेकिन समय बदलते ही इंसान को बदलते देर नहीं लगती। बडे़ भाई की नियत खराब हो गई उसने सारी संपत्ति हथिया ली। एक बड़ी राशि जो आकस्मिक निधि के रूप में उनके यहां थी उसको भी उन्होंने हड़प लिया। बिजनेस में बड़ा नुकसान दिखा दिया और उस आदमी को अंगूठा दिखा दिया। उसके पास कुछ भी नहीं था केवल शहर के पोर्श कॉलोनी में 5 हज़ार स्क्वायर फीट का एक बंगला मात्र था। कुछ भी नहीं बचा। लोगों ने उसे कहा कि तुम अपने भैया पर केस कर दो। उस व्यक्ति ने कहा कि जिस भाई को मैंने पिता की तरह पूजा। चंद संपत्ति के लिए उन पर केस करूं इससे अच्छा तो मैं मर जाना पसंद करूंगा। मैं कुछ नहीं करूंगा। मेरे पास आया। उसके आने से पहले घटना का समाचार उसके मित्रों ने मुझ तक पहुंचा दिया था। आते ही मैंने पूछा भाई साता है? बोला महाराज आप सब की कृपा से ठीक है। आपने जो अब तक सिखाया मैं उसका प्रेक्टिकल कर रहा हूं। महाराज जी मुझे भैया से कोई शिकायत नहीं मैं तो भैया का बड़ा आभारी हूं कि मुझे उन्होंने कम से कम एक मकान तो दिया। यदि यह मकान भी छीन लिया होता तो मैं रोड पर आ जाता। महाराज आप बोलते हो कि सब एक-दूसरे के कर्म का परिणाम है। हो सकता है मैंने किसी जन्म में भैया के साथ ऐसा धोखा किया होगा। कर्जा निपट गया। आज मुझे इस बात का बिल्कुल भी मलाल नहीं है और मैं आज आपके पास इसलिए नहीं आया कि भैया से पैसा वापस मिले इसका कोई उपाय पूछूं। मैं आपके पास इसलिए आया कि मुझे ऐसा रास्ता, ऐसा आशीर्वाद दें कि इस घड़ी में भी मैं स्थिरता बनाए रखूं और एक नई पारी की शुरुआत करूं। शून्य से शुरुआत करूं और आगे बढूं। हमने यह जाना कि जो कर्म का उदय होगा वह मिलेगा उससे आगे कुछ नहीं होगा। उसकी बात सुनकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई और मैंने कहा कि तुम सच्चे भक्तों की श्रेणी में हो। प्रवचन तो कई सुनते हैं, संपर्क में तो कई होते हैं लेकिन ऐसी घड़ी में अपने आप को संभालने वाले विरले ही होते हैं। उसकी गुडविल जबरदस्त थी, उसका सर्किल बड़ा स्ट्रांग था। उसके सारे मित्रगण सब संपन्न लोग थे। मित्रों ने कहा कोई बात नहीं तुम हमारे साथ रहो एक कंपनी बनाते हैं। यह घटना 2003 की है। एक कंपनी बनाई Real state। चार मित्रों ने मिलकर एक कंपनी बनाई। उस युवक का एक भी पैसा नहीं था फिर भी उसके मित्रों ने उसे अपना पार्टनर बनाया। उसके तज़ुर्बे का लाभ मिला और 2004 से 2007 के बीच में Real state का जो बूम आया उसमें वह व्यक्ति करोड़ों का मालिक बन गया। आगे बढ़ा तो पीछे मुड़कर नहीं देखा। वह आज भी कहता है महाराज ना वह मेरा था ना यह मेरा है यह तो कर्म का खेल है। हमने अपने आप को संभाला।
मैं तुमसे सवाल करता हूं कि यदि तुम्हारे जीवन में कभी ऐसी विपत्ति आए (भगवान ना करे आए) तो तुम अपनी विपत्ति को भी संपत्ति में परिवर्तित कर सकते हो। किस के बल पर? मर्म दृष्टा बनो, कर्म सिद्धांत के प्रति अपनी श्रद्धा रखो। चार बातें जो मैं आपसे कह रहा हूं जो जीवन के लिए बहुत काम की है।
इन चारों बातों को ध्यान में रखिए और इन चारों बातों से मैं विपत्ति, बीमारी, विषमता, विपन्नता विसंगति की बात को जोड़कर कुछ बातें कहूंगा। मर्म दृष्टा बनो। आत्मा के स्वरूप को पहचानो। कर्म सिद्धांत के विश्वासी बनो। जीवन में सदैव सकारात्मक सोच रखो और चौथी बात आशावादी बन कर रहो। यह जीवन जीने का मूल मंत्र है। इन्हें आत्मसात कर लो तो जीवन में कभी विचलित नहीं होंगे। हमने अभी बात विपत्ति की की। विपत्ति में भी स्थिरता आ सकती है। विपत्ति किसी को नहीं छोड़ती यदि हम इन को ध्यान में रखकर के चले तो जीवन आगे बढ़ता है। जैसे दूसरे नंबर पर बीमारी। हर व्यक्ति किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त होता ही है। कहते हैं शरीर में जितने रोम हैं उतने रोग हैं। लेकिन कुछ लोग हैं जो थोड़ी सी बीमारी से विचलित हो जाते हैं और कुछ लोग हैं जो बड़ी-बड़ी बीमारी में भी स्थिर बने रहते हैं। प्रयास करो कि तुम्हारे जीवन में कोई बीमारी ना आए और बीमारी आ जाए तो उसकी चिकित्सा करो और एक मंत्र साथ में रखो तन की बीमारी को मन पर हावी मत होने दो। तन की बीमारी के सब इलाज, मन की बीमारी का कोई इलाज नहीं। तुम लोग क्या करते हो? तन से बीमार रहते हो या मन से? यह मन का खेल बड़ा विचित्र है। उस घड़ी में यदि तुमने आत्मा के स्वरूप का स्मरण किया, कर्म सिद्धांत पर विश्वास रखा, अपनी सोच में सकारात्मकता रखी और तुम्हारा चिंतन यदि आशावादी रहे तो बड़ी से बड़ी बीमारी भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकती।
1993 की बात है। मैं गुरु चरणों में था। रामटेक में चातुर्मास था। उस चातुर्मास में मुझे मलेरिया ने बुरी तरह जकड़ लिया। 60 दिन दिन तक लगातार मलेरिया से पीड़ित रहा। प्रतिदिन बुखार आता। एक-एक घंटे का शेडूल रोज बदलता था। टाइम फिक्स था। एक रोज वह आधा घंटा पहले आ गया। हम आहार के लिए उठे 9:00 बजे बुखार का टाइम था 10:00 बजे। इस बीच सोचा कि आहार हो जाएगा लेकिन आहार के टाइम ही बुखार आ गया। तेज बुखार की स्थिति में उल्टी हो गई। गर्मी थी। मानसून ठीक ढंग से बरसा नहीं था और उस दिन मुझे 107 डिग्री बुखार हो गया। पेट में पानी नहीं। लगातार बुखार। हम लगभग एक महीने से बुखार के दौर से गुजर रहे थे। शरीर कमजोर था। मेरा वजन 14 किलो कम हो गया था। उस घड़ी में 107 डिग्री बुखार। आप सोच लीजिए 107 डिग्री बुखार में क्या होता है? मैं बेसुध सा पड़ा था। इसी बीच गुरुदेव का आना हुआ। उन्हें मालूम पड़ा। वह मेरे कक्ष में आए और जैसे ही उनके हाथ का स्पर्श मेरे माथे पर पड़ा मैं एकदम चैतन्य सा हो उठ कर बैठा और उन्हें प्रणाम किया। गुरुदेव ने पूछा-कैसा लग रहा है? मैंने कहा-ठीक है। उन्होंने कहा- समयसार याद है? मैंने कहा-जी। थोड़ी देर बैठे रहे। मेरे सिर पर हाथ फेरा और कहा कि इनको थोड़ी देर के लिए पट्टी दो बुखार तेज है। 10-15 मिनट पट्टी रखवाई गई और मैं अपने अंदर चिंतन में खो गया। अब गुरुदेव का आशीर्वाद, चिंतन की परिणति सारे निमित्त मिले और आधे घंटे बाद मेरे शरीर से पसीना आना शुरू हुआ और उसके 1 घंटे बाद जब बुख़ार नापा गया तो 99 डिग्री आ गया। 107 से 99। शरीर पसीने से तरबतर। ऐसे रोज में भी बुख़ार आता था तो पसीना आकर उतर जाता था। 6-7 घंटे बुख़ार रहता था। उस दिन 107 डिग्री बुख़ार था और 99 डिग्री पर आ गया। कोई दो-ढाई घंटे में खेल खत्म हो गया। मैं आपसे यह बात दूसरे संदर्भ में कहना चाहता हूं।
बुखार आया है शरीर को आया है मुझे नहीं आया। यह विवेक अगर बुखार ग्रस्त स्थिति में भी हो तो बुखार तुम्हारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता। भेद विज्ञान को समझो। समयसार केवल पढ़ने से तुम्हारे जीवन में नहीं उतरेगा समयसार तो जब तक तुम प्रैक्टिकल नहीं करोगे तब तक जीवन में नहीं घटेगा। समझो यह शरीर है। शरीर अपना काम करेगा, आत्मा अपना काम करेगी। आत्मा में कोई रोग है ही नहीं और जब तक कोई कर्म का उदय है यह रोग जाएगा नहीं यह समता से मुझे स्वीकार करना है। तुमसे पूछना चाहता हूं कि कोई बीमारी हो जाए और थोड़ी लंबी खींच जाए तो क्या करते हो?महाराज पूरे घर को हिला डालते हैं। क्या है? कर्म का उदय है। उस घड़ी में सकारात्मक सोचिए।
एक बहन जी मेरे पास आई। उनके पूरे बदन में दर्द रहता था। डिप्रेशन की स्थिति में थी और कहा महाराज अब सहा नहीं जाता, पूरे शरीर में टूटन होती है, दर्द होता है, कई डाक्टर को दिखाया, कोई बीमारी का पता भी नहीं लग रहा, अब सहा नहीं जाता, अब मन करता है कि आत्महत्या कर लूं। जैसे ही उन्होंने आत्महत्या की बात की मैंने उन्हें झकझोरा और कहा कि तुम अपने आप को बीमार मान रही हो। तुम बीमार हो कहां। बीमार तो वह है जो अस्पताल में पड़ा है, बीमार तो वह है जो आईसीयू में भर्ती है, बीमार तो वह है जो वेंटिलेटर पर लगा है, बीमार तो वह है जो पैरालिसिस का शिकार है, बीमार तो वह है जो कोमा में पड़ा है। तुम कहां बीमार हो। अपने आप को बीमार मान रहे हो, चल रहे हो फिर रहे हो अपना काम कर रहे हो। अपनी मानसिकता बदलो। हमारे संघ में अनेक आर्यिकाएं हैं। जाकर देखो उनसे मिलो जिनके शरीर में हीमोग्लोबिन 5 और 6 हैं फिर भी हजारों मीटर विहार करती हैं। केश लोंच करती हैं। उपवास करती हैं। अपनी व्रत चर्या का पालन करती हैं और सारे आवश्यकों को पूरा करती है। कहां बीमार हो तुम? अपने आप को बीमार मानते हो। तुम्हें कोई बीमारी नहीं है और एक बात समझ लो “आरोग्य स्वरूप ओहम” मेरा स्वरूप तो आरोग्य है। “निरोग ओहम” मैं निरोगी हूं। “निराग ओहम” मैं राग रहित हूं।
यह तन में बीमारी है। आई है जाएगी। अच्छा है। बीमारी है। बीमार हूं। तकलीफ है लेकिन इतना बीमार तो नहीं कि अस्पताल में भर्ती हो जाऊं। इतना बीमार तो नहीं कि एकदम पराधीन हो जाऊं। इतना बीमार तो नहीं कि एकदम अशक्त हो जाऊं ऐसा आप सोच सकते हैं। जिस दिन कोई बीमारी होती है लगता है दुनिया में सबसे ज्यादा बीमार मैं ही हूं। नहीं। यदि उस घड़ी में तुम अपनी सोच को सकारात्मक बनाकर चलोगे तो बड़ी से बड़ी बीमारी भी तुम्हारा बिगाड़ नहीं कर पाएगी। कोई भी कार्य हो चाहे विपत्ति हो, बीमारी हो, विषमता हो और कोई भी विसंगति हो सकारात्मक सोचिए। बड़ी विपत्ति को छोटी विपत्ति में देखिए। बड़ी बीमारी को अन्य बीमारों की तुलना में रखो कि सामने वाले से तो मैं ठीक हूं। ऐसी सकारात्मकता और कोई विषमता आए सोचो चलो औरों के अपेक्षा तो ठीक है। जीवन में अन्य कोई विसंगति आए तालमेल बिठाने की कोशिश करो। सकारात्मकता बहुत फर्क पड़ता है। देखो विसंगति में संगति कैसे बैठती है। मेरे संपर्क में एक सज्जन है। आज उनकी 70 वर्ष की उम्र है। मैं पिछले 25 वर्ष से उनको जानता हूं और उनकी जो धर्मपत्नी है वह उन्हीं के लायक है। उन्हीं के लायक का मतलब दूसरा कोई झेल ना सके। ऐसी वह इतना उल जुलूल बोले, अपने पति की सबके सामने इंसल्ट कर दे और पति बेचारा चुपचाप कोई प्रतिवाद नहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं। एक रोज मेरे सामने कुछ इस तरह का वाकया हो गया और पत्नी ने जिस तरह का व्यवहार किया सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो बिलकुल उस व्यक्ति की गरिमा अनुकूल नहीं था। एक प्रतिष्ठित व्यक्ति और उसकी धर्मपत्नी चार जनों के सामने, महाराज के सामने इस तरह का व्यवहार कर रही है तो यह साधारणतः अच्छा नहीं लगता। सबके जाने के बाद मैंने उनके पति से पूछा कि यह क्या मामला है? बोले-महाराज आप लोगों से ही सीखा है, फेरे पाड़ के लाया हूं, तो झेल रहा हूं। अब रोने धोने से क्या होगा, जो है पत्नी है, तलाक दे नहीं सकता, दूसरी ला नहीं सकता तो निभाना तो इसी को पड़ेगा। सोच आप अपने अंदर डेवलप कर सकते हैं ऐसी सोच। बोलो। विसंगति में संगति जिनके साथ जीना तुम्हारी मजबूरी है अगर उसे बदलने में समर्थ ना हो तो उसके प्रति अपनी दृष्टि को बदल दो। सारा जीवन बदल जाएगा।
मेरे संपर्क में एक बड़े उच्चाधिकारी हैं। वह व्यक्ति बड़ा धर्मात्मा था और विवाह से पूर्व उसे स्वयंभू स्तोत्र पूरा याद था। विवाह केवल इसलिए किया कि वह अपने शरीर से कमजोर महसूस करता था चाहता था कि किसी धर्मात्मा लड़की से शादी हो। बहुत ढूंढा, नहीं मिला। प्रायः ऐसे लोगों के साथ ऐसा ही होता है। अंततः परिवार के आगे समर्पित हो गया और बोला जो कर्म में होगा वही होगा। एक लड़की से शादी हो गई। अब क्या बताऊं उसकी पत्नी भी उसी के लायक मिली एकदम विरोधी विचारधारा की। एक रोज वह मेरे पास बैठा था मुझसे तत्व चर्चा कर रहा था। मैं एक कमरे पर बैठा था सामने हॉल था बीच में 30 फीट का रोड था। उसकी धर्मपत्नी वहीं बैठी थी, बच्ची को लिए हुई थी( दुध पीती बच्ची थी)। अचानक बच्ची रोने लगी। वहीं से उसने अपने पति को आंख दिखाई वह बेचारा तत्व चर्चा को आधी अधूरी छोड़ा और वहां गया और बच्ची को लिया। पत्नी ने ऐसी जली कटी सुनाई कि कुछ पल को मुझे भी तरस आ गया। उसका स्थिति यह थी कि यह अगर प्याज लहसुन ना खाए, आलू ना खाए तो उसकी थाली में वही परोसा जाए। लेकिन यह चुपचाप उन सबको छोड़कर पानी पीकर उठ जाए। कभी-कभी तो एक रोटी खाकर उठना पड़ता था लेकिन कभी कोई प्रतिक्रिया नहीं करता था। जब वह लौटकर मेरे पास आया करीब 7-8 मिनट बाद। मैं देख रहा था आकर बैठा बच्ची समेत आया। मैंने बोला भैया क्या कर रहे हो उसने कहा महाराज निर्जरा कर रहा हूं। और सच में उसने निर्जरा कर ली। कोई 7-8 वर्ष लगे उसके इस व्यवहार से उसकी पत्नी का हृदय परिवर्तन हो गया और उसकी पत्नी उससे एक कदम आगे है। कदम से कदम मिलाकर चल रहे हैं।
आपके अंदर यह जज्बा होना चाहिए। विसंगति में संगति बिठाने की सोच को बदलिए। जीवन में आप सार तत्व को प्राप्त कर पाएंगे। जैसा चाहेंगे वैसा सब आपके जीवन में घटित होगा। ध्यान रखना परिस्थितियां हमारे हाथ में नहीं है लेकिन उन परिस्थितियों के प्रति हमें कैसा दृष्टिकोण रखना है यह सब हमारे हाथ में है। अगर हमने हमारी दृष्टि को पलट लिया, हमारी दिशा को बदल दिया तो हमारी जीवन की दशा को बदलने में देर नहीं लगेगी। यह संसार है संसार में इस तरह का उतार चढ़ाव तो चलता ही रहता है। एक सपाट मैदान की तरह हमारा जीवन नहीं है हमारा जीवन एक नदी की तरह है जिसमें अनेक उतार-चढ़ाव हैं दुर्गम घाटियों को पार करके सागर तक जाना है। हमें यह समझ विकसित करनी है कि ऐसी यात्रा हम ठीक ढंग से कर सके और हमारे जीवन के मूल पड़ाव तक पहुंच सके ऐसा प्रयास करें। तो मैंने आपसे कहा अपने जीवन के यथार्थ को समझें, मर्म दृष्टा रहें, अपने आत्मा के स्वरूप को जाने, कर्म सिद्धांत पर विश्वास करें, जीवन में सदैव सकारात्मकता को अपनाकर चलें, आशावादी बने, कभी हताश ना हो, मन में पेशंस बनाकर रखें, अपने मन का विश्वास ना खोएं। अगर इन बातों को हम अमल करेंगे तो निश्चित है वह हमारे जीवन की एक सार्थक उपलब्धि होगी और हम अपने जीवन में सदाबहार प्रसन्नता को कायम करने में समर्थ हो सकेंगे। बंधुओं यह कुछ ऐसी बातें हैं जिन्हें हम आत्मसात कर ले तो हमसे बड़ा सुखी और कोई इस दुनिया में नहीं होगा। हम परिस्थितियों को नहीं बदल सकते लेकिन अपनी मानसिकता को बदल कर अपने जीवन को सफल जरूर बना सकते हैं। सभी के जीवन में वह सफलता घटित हो और अपने जीवन में उस परम पवित्रता को प्रकट कर सकें।
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