पत्थर अहम् का गलता नहीं

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पत्थर अहम् का गलता नहीं

मैंने देखा, एक अंगीठी सुलग रही थी। लाल-लाल अंगारे दमक रहे थे। बड़ी तेज कांति और आभा थी उसमें। तभी एक अंगारे के मन में आया जब मुझमें इतनी चमक और इतनी तेजी है, इतनी चमक और दमक से मैं युक्त हूं तो इस अंगीठी में क्यों रहूं अपना अलग अस्तित्व क्यों ना बनाऊं। इसी प्रेरणा से वह उचट कर अंगीठी से नीचे गिर गया। फिर क्या था धीरे-धीरे उसकी चमक दमक निस्तेज होने लगी। उसके ऊपर राख की परत जमने लगी। उसका दम घुटने लगा और थोड़ी देर बाद देखा कि उसका मुंह काला हो गया। जो स्थिति अंगारे की है वह स्थिति कहीं ना कहीं इंसान की भी है। अंगार जब तक अंगीठी में था तब तक उसकी चमक दमक सब कुछ मेंटेन थी और जैसे ही वह अलग हुआ सब खत्म हो गया। मनुष्य जब तक सब में समाहित होकर जीने का आदी होता है तब तक उसकी सारी शक्तियां अभिव्यक्त होती है और जैसे ही वह अपना अलग अस्तित्व बनाने की कोशिश में लगता है उसकी प्रतिभा निस्तेज होने लगती है। अहंकार मनुष्य को अंदर से खोखला बनाता है।

विगत दिनों से “जीवन में दुखी बनाने वाले” कारकों की  चर्चा चल रही है और आज क्रम है अहंकार का।

यह अहंकार है क्या? हमें इसे थोड़ा समझना है। अहंकार के परिणाम से हर कोई परिचित है। आपने कभी देखने की कोशिश की कि इस अहंकार से मुझे मिला क्या है? एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है लेकिन अपने अहम को पुष्ट करने की भावना सब में होती है। जब हमारा अहम पुष्ट होता है तो छाती फूल जाती है। लेकिन संत कहते हैं कि पुष्टि से छाती फूलती जरूर है लेकिन मन कूल नहीं हो पाता। मन को कूल करना चाहते हो तो अहम को समझो। अहम को गलाओ। हम समझे कि अहंकार है क्या? सामान्य रूप में जब हम अहंकार की बात करते हैं तो अपने आप को बड़ा मानने की बात अहंकार मानते हैं और जो व्यक्ति अहंकारी होता है उसके अंदर यह स्वाभाविक तौर पर रहता हैं। अपने आपको बड़ा मानने की प्रवृत्ति, अपनी प्रशंसा करने और सुनने की प्रवृत्ति और ऐसा व्यक्ति केवल इतने तक सीमित नहीं रहता। मैं बड़ा हूं तो दूसरा मुझसे छोटा है यह साबित करने की चेष्टा भी करता है और जब वह अपनी प्रशंसा करता है तो औरों की निंदा करना भी शुरू कर देता है। और यह सब एक साथ न जाने कितने मानसिक दुर्बलताएं एक अहंकार के कारण मनुष्य के मन में भरती रहती है। मैं बड़ा हूं इस का मजा मनुष्य को तभी आता है जब दूसरा हमारे सामने छोटा दिखे। कोई छोटा नहीं हो तो बड़ा क्या? सब बराबरी के हो तो? कोई मजा नहीं। हम बराबरी से ऊपर उठना चाहते हैं। यह एक tendency है। लेकिन हम जब अहंकार को गहराई से समझते हैं तो हमें समझ में आता है कि यह तो केवल अभिव्यक्ति है इसकी जड़ कुछ और है। बुखार आता है, शरीर उत्तप्त होता है। थर्मामीटर के टेंपरेचर को देखकर आप समझते हैं बुखार है। तो थर्मामीटर और शरीर का ताप बुखार नहीं है। वह तो बुखार की अभिव्यक्ति है। उसकी जड़ में जाओ। समझो यह अहंकार है क्या? अहंकार जन्मता कैसे है? अहंकार पुष्ट कैसे होता है? और इसे नष्ट कैसे किया जाए? आज की चार बातें।

सबसे पहली बात “अहंकार क्या है?”

अहंकार पर विचार करते हैं। सीधी-सीधी बात है अपने साथ कुछ जोड़ लेने का नाम अहंकार है। अपने साथ हमने कुछ जोड़ा तो अहंकार का सृजन हुआ। मैं मुनि हूं यह मेरा अहंकार है। मैं एक अच्छा वक्ता हूं यह मेरा अहंकार है। मैं श्रेष्ठ हूं यह अहंकार है। मैं अधिकारी हूं यह अहंकार है। मैं स्त्री हूं, पुरुष हूं, बाल हूं, वृद्ध हूं, सुंदर हूं, बदसूरत हूं, पंडित हूं, मुर्ख हूं यह सब अहंकार की परिणतियां है। क्योंकि तुमने अपने आप को जैसा मान रखा है तुम वह हो ही नहीं। तुम हो बस यह सच है पर तुमने उसके साथ जो कुछ भी लगाया, जोड़ा वह सब आरोपण है और जब हमारे साथ अतिरिक्त आरोपित होता है वही अहंकार का सृजन होता है। आई एम मे कोई प्रॉब्लम नहीं लेकिन आई एम समथिंग प्रॉब्लम ही प्रॉब्लम। आई एम में कोई प्रॉब्लम नहीं लेकिन आई एम डुअर प्रॉब्लम शुरू। मैं हूं, तुम हो, सब हैं कोई दिक्कत नहीं। लेकिन मैं हूं, इतना नहीं और मैं कुछ हूं और क्या हूं सुपर हूं, तुमसे विशेष हूं, यह जो परिणति है यही अहंकार है। जो मनुष्य को अंदर से विचलित करती हैं। मनुष्य के भीतर जब भी ऐसी भ्रांत वृत्ति जन्म लेती है वह अपनी बेहतरी को साबित करने के लिए सारी शक्ति झोंक देता है और उसके पीछे न जाने कितने प्रकार की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है लेकिन अहंकार ऐसी ही चीज है वह पुष्ट होना चाहता है चाहे जैसे हो। हवा भरकर बलून को फुलाया जा सकता है लेकिन कितना? एक सीमा तक। ज्यादा हवा भरोगे तो क्या होगा? फूट जाएगा और आपने देखा एक बलून को जब हवा भरी जाती है तो वह फूलता है और जब उसकी हवा निकल जाती है तो बलून की क्या दशा होती है? उसकी स्वाभाविकता समाप्त हो जाती है। मनुष्य के मन में जब मान की हवा भरती है तो फूलता है और हवा निकलते ही उसकी हालत बिगड़ जाती है। ज्यादा हवा भरेगा तो फूट जाएगा और हवा तो एक दिन निकलनी ही है। उसे इसका आभास नहीं होता और वह अपने आप को कुछ विशेष मानने की प्रवृति से जुड़ जाता है। मैं घर का मुखिया हूं तो घर में जो कुछ भी हो वह मेरे हुकुम से होना चाहिए। मैं कमाता हूं तो मुझसे पूछे बिना कुछ भी नहीं होना चाहिए। मैंने पूरा घर बसाया है तो मेरी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलना चाहिए यह जो प्रवृत्ति है वह प्रवृत्ति क्या है? आप को सुखी बनाती है या दुखी? दुखी बनाती है फिर भी मनुष्य इसी में लगा रहता है।

एक गुरु से शिष्य ने पूछा- गुरुदेव संसार में सबसे श्रेष्ठ क्या है? गुरु ने उत्तर दिया- “मैं”। शिष्य ने पुनः पूछा- सबसे निकृष्ट क्या है? गुरु ने फिर उत्तर दिया- ‘मैं”। शिष्य अचरज में फंस गया। गुरुदेव “मैं” ही श्रेष्ठ “मैं” ही निकृष्ट कैसे? तो गुरू ने कहा- “मैं” जब स्वरूप नष्ट होता है तो सर्वश्रेष्ट बन जाता है और “मैं” में जब कुछ विशेषण जुड़ जाता है तो अहंकार की पर्याय बनता है और निकृष्ट हो जाता है।

“मैं” हूं, “मैं” कर्ता नहीं हूं, “मैं” कार्य का जनक नहीं हूं, “मैं” एक घटक हूं। घटक केवल घटक होता है। माना जो कुछ हो रहा है उसमें मेरी भूमिका दिख रही है पर मैं उसका कर्ता नहीं हूं। मैं तो एक छोटा सा निमित्त हूं। मेरी तरह न जाने कितने निमित्त जुड़े हुए हैं तब वह काम हो रहा है पर मैं यह मान लूं कि मैंने किया तो यह मेरा अज्ञान है और यही अज्ञान अहंकार को जन्म देता है।

मैं प्रवचन करता हूं, मेरा प्रवचन है। प्रवचन का कर्ता मैं हूं। अब बताओ मैं कहूं- मैं प्रवचन करता हूं और मेरी जीभ मेरा साथ ना दे तो क्या मैं प्रवचन कर पाऊंगा? मेरा मुंह काम ना करे तो क्या मैं प्रवचन कर पाऊंगा? बोलो। मेरा गला खराब हो गया तो क्या मैं प्रवचन कर पाऊंगा? यहां माइक ना हो तो क्या मैं प्रवचन कर पाऊंगा और आप श्रोता ही नहीं हो तो क्या प्रवचन करूंगा? बोलो। क्या हुआ? अब मैं कहता हूं कि मैं प्रवचन कर्ता हूं तो मेरे प्रवचन रूप क्रिया में कितने सारे निमित्त जुड़े है तब जाकर मैं प्रवचन कर पा रहा हूं। हां, देखने में आ रहा है कि प्रवचन का कर्ता मैं हूं पर यथार्थ में यह है कि मैं प्रवचन में एक निमित्त हूं और मैं आज तक अपने आपको एक निमित्त ही मानता हूं। मेरा अनुभव यह बोलता है कि मेरे मुख से जो शब्द निकलते हैं वह मैं नहीं बोलता, तुम्हारा पुण्य मुझसे बुलवाता है। श्रोता का पुण्य मुझसे बुलवाता है। तो एक कार्य की उत्पत्ति में अनेक कारण होते हैं। लेकिन अज्ञानी प्राणी उस पर खुद का आरोपण कर लेता है और यही आरोपण अहंकार है। इस से बचिए। समझिए। जब तक आपके ह्रदय में समझ विकसित नहीं होगी आप अहंकार से मुक्त नहीं हो सकते।

अहंकार जन्म कैसे लेता है? सबसे पहला प्रश्न। अहंकार का जन्मदाता है- “अज्ञान”।

अज्ञान से अहंकार जन्मता है। आप देखिए आपके अंदर अज्ञान है कि नहीं? चार प्रकार का अज्ञान है जिसके कारण अहंकार जन्मता है।

पहला- “स्वरुप बोध का अभाव”। स्वरूप बोध का अभाव- मैं कौन हूं, मेरा क्या है किसी को पता ही नहीं। अगर मैं आपसे पूछूं आप कौन? तो तुरंत आपकी जुबान पर आपका नाम आएगा। हमने नाम और रूप तक अपने आप को सीमित कर रखा है और जब हम किसी नाम, रूप से अपने आपको जोड़ लेते हैं एक इमेज अपने भीतर बना लेते हैं और उसकी पुष्टि में लगे रहते हैं। वह पुष्ट होता है तो हमारा मन प्रसन्न होता है और जब उस इमेज पर कोई आघात पहुंचता है तो हमारा मन क्षुब्ध हो उठता है। संत कहते हैं तुम्हारा कितना बड़ा अज्ञान है जो तुम हो नहीं, उसे तुम तुम मान रहे हो। तुम्हारे साथ जो नाम जुड़ा, तुम्हारा यह जो रुप जुड़ा, यह कब जुड़ा? महाराज यह रूप तो जन्म से है और नाम जन्म के बाद घर वालों ने मिलकर रख दिया तब से है। बोले कब तक रहेगा? मरने के बाद कुछ दिन लोग याद करेंगे फिर भूल जाएंगे और रूप चिता की आग में सुलग जाएगा। इसके बाद क्या होगा? जब तुम्हारा नाम नहीं था तब भी तुम थे, जब तुमने यह रुप नहीं धरा था तब भी तुम थे, यह नाम मिटेगा तब भी तुम रहोगे और यह रूप जलेगा तो भी तुम रहोगे। तुम क्या हो? तुम नाम नहीं, रुप नहीं। तुम अनाम, अरूप हो। वही तुम्हारा स्वरूप है। उसे पहचानो और उस स्वरूप को पहचानोगे तो फिर कुछ कहने जैसी बात शेष नहीं रहेगी और वह जो स्वरुप है वह केवल तुम्हारा ही नहीं सभी का है। स्वरूप को देखोगे तो सब समान है और रूप को देखोगे तो सब विशेष है। यहां जितने लोग बैठे हैं उनकी कद-काठी, रूप-रंग को देखोगे तो सब अलग-अलग दिख रहे हैं लेकिन भीतर की चेतना को पकड़ो तो तत्वतः सब सामान और जब हमें यह पता लग जाए तो फिर कौन किससे सुपर। कोई सुपर नहीं रहेगा, सब सामान और जब सब समान हो जाएंगे तो कोई प्रतियोगिता नहीं बचेगी और जहां कोई प्रतियोगिता ही नहीं वहां कोई प्रतिद्वंदिता नहीं और जहां कोई प्रतिद्वंदिता ही नहीं वहां अहंकार नहीं रहेगा। सब सामान बस स्वरूप का बोध हो जाए। पता लग जाए कि बस हमारा और सबका बराबर का है। मान लो कोई नेता हो और एक सामान्य सा नागरिक हो। जब मतदान की बारी हो और नेता कहे कि मेरा वोट का वजन ज्यादा है तो आप क्या कहोगे? भैया वोट तो वोट है इस घड़ी में तेरे वोट और मेरे वोट में कोई अंतर नहीं है। कोई नेता अपने वोट विशेष का अभिमान करता है? जब वोट चाहिए तो एक वोटर का मान करता है कि वोट दो, वोट दो क्योंकि एक वोट से भी सरकार गिर जाती है। जहां समानता का एहसास होता है वहां अहंकार खत्म हो जाता है। पर एक बात मैं आपसे कहूंगा- समानता का अनुभव करो, समाधिकार की भावना मत रखो। हम तुम सब समान कोई बड़ा नहीं, कोई छोटा नहीं, कोई ऊंचा नहीं, कोई नीच नहीं, कोई सुपीरियर नहीं, कोई इन्फीरियर नहीं, कोई औछा नहीं, कोई अच्छा नहीं। आज घर परिवारों में समानता कम समाधिकार की भावना ज्यादा दिखती है। स्त्री और पुरुष के बीच बात आती है। कहते हैं स्त्री पुरुष को समान मानना चाहिए। बिल्कुल मानना चाहिए और जैन धर्म तो सदैव स्त्री पुरुष को समानता की दृष्टि से देखता है। लेकिन समाधिकार गलत है जो काम पुरुष करें वही काम स्त्री करें तो दुनिया से स्त्री ही खत्म हो जाएगी और जिस दिन दुनिया से स्त्री खत्म हो जाएगी उस दिन दुनिया सबसे ज्यादा बर्बर दुनिया हो जाएगी। स्त्रियां कब तक स्त्री है? जब तक वह स्त्रियोचित गुणों से मंडित है और स्त्रियां कब तक स्त्रियोचित गुणों से मंडित रहेगी? जब तक वह स्त्रियोचित कर्म करेगी। जब स्त्रियां पुरुषों के कर्म करने लगेगी तो वह पुरुष बन जाएगी, स्त्री रह नहीं पाएगी और जिस दिन पूरी समाज में केवल पुरुषों की भरमार हो जाएगी उस दिन पूरी समाज का बंटाधार हो जाएगा। प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है, हमारा जीवन भीतर से विकृत होता है तो मैंने क्या कहा- स्वरूप विषयक ज्ञान जैसे ही मिलेगा तुम्हारा अहंकार खत्म होगा। तत्वतः सब सामान है। उपनिषदों में कहा-

ईशावास्य मिदं सर्वं, यत्किञ्च जगत्यां जगत्।

तेन त्यक्तेन भुन्जितः, माघृधः क्रसिद्धनं।।

सब इस संसार में उस ईश्वरीय शक्ति को देखो, ईश्वरीय सत्ता का अनुसंधान करो सब समान। जैन धर्म में कहा है-

“सव्वे सुद्धावु शुद्धनया”

जिसको मैं छोटा मान रहा हूं कल मुझसे आगे निकल जाएगा। यह तो पर्याय दृष्टि है, दिव्य दृष्टि रखो। जिसके भीतर का यह अज्ञान खत्म हो जाता है उसके अंदर स्वरूप विषयक कोई अहंकार नहीं पनपता। अहंकार की रीढ़ तोड़ने के लिए सबसे पहली आवश्यकता है स्वरूप का बोध करो, भेद विज्ञान करो तब सम्यग्दर्शन होगा। तब तुम्हारे कल्याण का रास्ता खुलेगा। अभी तो थोड़ी-थोड़ी बातों में तुम्हारे भीतर के अहंकार का सांप अपना फन फैलाता है और केवल फन ही नहीं फैलाता सामने वाले को मारता भी है। सावधान हो। उस ज़हर से अपने आपको बचाना चाहते हो, उसके दुष्परिणाम से बचना चाहते हो तो जीवन की धारा को मोड़ो। समानता का अनुभव करो। अपने आपको असमान मानोगे, आसमान में उड़ना चाहोगे, आसमान में तो उड़ नहीं पाओगे जमीन में जरूर दबा दिए जाओगे। कुछ पंक्तियां हैं, ध्यान से सुनो-

हरी-भरी सुन्दर सुमनो और कोमल कलियों से लदी टहनियों ने तने से कहा- हम कितने सुंदर हैं। तने ने कहा- हां बेटी, तुम सच में सुंदर हो। सौंदर्य का दर्प इससे तृप्त नहीं हो सका वह अपनी महत्ता की स्वीकृति तो चाहता ही है, सामने वाले की हीनता की स्वीकृति भी आवश्यक मानता है। और तुम कितने कुरूप हो, काला सा रंग और खुरदरी खाल। प्रतिक्रिया कंठ तक भर आई फिर भी तने ने अपने आप को यथासंभव मसोसकर कहा- हां बेटी, तुम सचमुच सुंदर हो, मुझमें सौंदर्य नहीं पर तुम अपने जिस सौंदर्य पर इतना इतरा रही हो उसके आधार रस का भंडार प्रकृति में मुझे ही दिया है। यदि मैं अपना झूठन तुम्हें ना दूं तो तुम्हारा सारा सौंदर्य पल भर में बिखर जाए। काश हम समझने की कोशिश करें। पहला अज्ञान स्वरूप विषयक (अपने आप की पहचान ना होना, अपने आप को औरों से विशेष मानना) यह हमारा अज्ञान है और जब तक ऐसा अज्ञान चलेगा अहंकार ज्वलंत रहेगा, पुष्ट होता रहेगा।

दूसरा कारण है-” भंगुर को शाश्वत मानना”। जो नश्वर है उसको अविनश्वर समझना। तुम्हारे पास धन है तुमने सोच लिया बहुत अच्छे! क्या चीज़ पाई है अब तो मैं चाहे जब तक राज करूंगा। रूप है, अभिमान में फूल गए। आहा! मेरे जैसा रूपवान तो कोई भी नहीं। कितने दिन का रूप? योवन है, उसके नशे में चूर हो गए। मुझसे जैसा योवन किसी का नहीं। कितने दिन रहेगा? सत्ता आई, तुम उसके नशे में फूल गए, शक्ति आई उसके नशे में फूल गए, संपदा पाई उसके नशे में फूल गए पर बताओ तुम्हारी सत्ता, तुम्हारी शक्ति, तुम्हारी संपत्ति, तुम्हारा शरीर कितने दिन का? बोलो। धन, जीवन, योवन सब जल बुलबुला समान। पानी के बुलबुले के समान हैं। पानी के बुलबुले को देखा है कैसे बनता है बुलबुला? जब जल की सतह के भीतर हवा घुस जाती है तो बुलबुला बनता है। वह बुलबुला कितनी देर तक रहता है? जब तक भीतर हवा भरी है तब तक बुलबुला है पर वह बुलबुला बुला-बुला कर कह रहा है- सावधान हो जाओ, हवा निकली तुम्हारी हवा निकल जाएगी। अच्छे-अच्छों की हवा खिसकती है। तुम ऐंठ रहे हो, तुम अभिमान कर रहे हो यह तुम्हारा ज्ञान है। अगर तुम्हें सत्ता मिली है, यदि तुमने शक्ति पाई है, यदि तुमने संपत्ति पाई है, अच्छा शरीर पाया है तो उसका अभिमान मत करो। सदुपयोग करो, स्वर के कल्याण में उसका इस्तेमाल करो। यह तो समझदारी है और इसको पाकर के अभिमान करने लगो तो क्या होगा? आज के जितने भी सत्ता नवीस होते हैं एक दिन जब उनके हाथ से सत्ता छिनती है तो क्या होता है? नाम के आगे “भूत” लग जाता है और क्या होता है “भूतपूर्व”। ध्यान रखो सत्ता का मान करोगे तो “भूतपूर्व” कहलाओगे और सत्ता का सही उपयोग करोगे तो “अभूतपूर्व” कहलाओगे। बोलो क्या बनना है भूतपूर्व या अभूतपूर्व? अभूतपूर्व वही बन सकता है जिसके भीतर सही समझ हो। समझ विकसित कीजिए। तुम्हारे पास जो कुछ भी है यह नाशवान है, भंगुर है, कभी भी मिट जाने वाला है। इनका मैं क्या गुमान करूं।

देखो, चक्रवर्ती को अपने रुप का मान हुआ और वास्तव में इतना रुप था कि स्वर्ग के देव उसके रूप की प्रशंसा करते थे। देवता उसके रूप से मोहित होकर ही नीचे आए और देखा क्या बात है इंद्र ने जैसा रूप कहा उससे भी अच्छा रूप है। लेकिन थोड़ी देर में रुप विद्रूप हो गया। कामदेव सी कंचन काया में कोढ हो गया। अब क्या करोगे? धन पाया, संपत्ति पाई, एक कर्म का झोंका ऐसा आया की एकदम अर्श से फर्श पर आ गए, शिखर से सतह पर आ गए। किसका मान? तुम्हारे पास सत्ता थी उसकी ऐंठ में तुमने कभी किसी को नहीं गिना और एक वक्त ऐसा आया कि सत्ता भी हाथ से गई, प्रतिष्ठा भी हाथ से गई, जेल के सींकचों में जाना पड़ा। “शशि कला” जो तमिलनाडु में मुख्यमंत्री बनने वाली थी कहां चली गई? अभी अभी जमानत नहीं हुई। किसका मान? सोचो। अगर तुम्हें लगने लगे कि मेरे पास जो भी उपलब्धियां हैं वह सब नाशवान है, क्षणभंगुर है, क्षणक्षयी है, कभी भी छूट जाने वाली है, विनाशक है तो तुम्हें उस का मान होगा? क्यों? मालूम है कि छूटने वाला है। यह वास्तविकता है, सच्चाई है। दुष्यंत कुमार ने बहुत अच्छी बात कही- यह जीवन है हकीकत में एक छल हो कि जैसे जल में झलकता हुआ महल हो। पानी में कोई महल प्रतिबिंबित हो कितनी देर तक टिकेगा? पानी हिलाओ महल खत्म। सब कुछ नश्वर है टिकने वाला कुछ नहीं है। रोज आंख खोलो पहला प्रश्न अपने मन से पूछो- मैं कौन हूं। दूसरी बात जब बाहर दिखे तो मेरे साथ जो जुड़ा है वह सब नश्वर है, क्षणक्षयी है, क्षणभंगुर है। अहंकार करने जैसी कोई चीज नहीं है।

किसी व्यक्ति को किसी बड़ी कंपनी में टेंप्रेरी डेपुटेशन में भेजा जाए तो? या उसकी परमानेंट पोस्टिंग कर दी जाए तो? दोनों में एक ही मानसिकता होती है क्या? जो डेपुटेशन में जाता है वह क्या करता है? अच्छे से अच्छा परफॉर्मेंस देने की कोशिश करता है और जिसकी परमानेंट पोस्टिंग हो जाती है वह सोचता है चलो अब तो 32 वर्ष की नौकरी हो गई। वह अपना रुतबा दिखाता है, बाॅस गिरी कर सकता है। संत कहते है- सच्चे अर्थों में तुम इस दुनिया में आए हो तो डेपुटेशन पर आए हो, टेंप्रेरी आए हो तो अच्छा परफॉर्म करो और यहां आकर अकड़ लगाओगे तो नरकों में सड़ोगे। अपने आपको बदलो। तो भंगुर को शाश्वत मानने का अज्ञान तोड़ो।

तीसरी बात- चलो महाराज भंगुर को भंग मान लें पर जितने दिन है उतने दिन तो मेरा है उसका तो कुछ मजा उठाएं। कहते हैं जितने दिन या जितने पल तुम्हारे पास है तुम्हारा नहीं है, पराए को अपना मानना भी अज्ञान है। तुम्हारा कुछ भी नहीं है। तुम्हारे पास है तुम्हारा नहीं है और तुम फूल रहे हो। तुम्हारी दशा कैसी है? कोई व्यक्ति बोलता है मुझे आहार देना है, धोती पहन रहा हूं तब तक तुम मेरा पर्स रख लो। थोड़ी देर के लिए पर्स रखा। मान लो उसमें लाख रुपए भी पड़े हो और सामने वाला उस पर्स को पकड़ कर नाचना शुरु कर दे, देखो मैं लखपति बन गया। तो आप क्या कहोगे? हंसोगे और बोलोगे देखो कैसा नादान आदमी है दूसरों के रुपयों पर इतना रोब दिखा रहा है अभी वह आएगा और रुपया वापस मांगेगा तो हवा खिसक जाएगी, सब समझ में आ जाएगा। इमानदारी से बोलो तुम जिस रुपए पर, जिस सत्ता पर, जिस शक्ति पर, जिस संपत्ति पर नाच रहे हो वह किसकी है? तुम्हारी है? किसने दी? यह कर्म की धरोहर है, पुण्य का फल है। और कर्म जिस पल चाहेगा उसी फल सब सिस्टम बदल जाएगा। तुम तो दूसरों का ले कर टाला-मटोली भी कर सकते हो लेकिन कर्म का सारा सिस्टम ऑनलाइन है। एक पल में अकाउंट ट्रांसफर हो जाता है। तुमको इतनी भी सुविधा नहीं कि कुछ मेंटेन कर लूं। दांया- बांया कर लूं। कुछ नहीं। बोलो। यह हकीकत है कि नहीं? तो तुम पराए को अपना क्यों मानते हो? तुम बोलते हो महाराज हमने तो यही सीखा है राम नाम जपना पराया माल अपना। यह ज्ञान नहीं तो क्या है। अपने अज्ञान को समझिए। क्या मैं ऐसी अज्ञानता की भूमिका में नहीं जी रहा हूं? यदि ऐसा अज्ञान है अहम पुष्ट होगा और जब तक अहम पुष्ट होगा जीवन दुखी बना रहेगा।

चौथी बात- “सपने को अपना मानना”।

तुम्हारे साथ जो भी है सब सपना है, माया है। रात सपने में कोई देखें कि राजा बन गया, बहुत बड़े राज्य का स्वामी बन गया, पुरा साम्राज्य और जागने के बाद अपने आप को राजा मान बैठे तो क्या होगा? क्या कहेंगे? बोलो। अरे! मैं तो राजा हूं। मुझे राज्य मिल गया। भगवान ने मुझे बहुत बड़ा साम्राज्य दे दिया। छः खंड का अधिपति हो गया। भरत चक्रवर्ती के बाद मेरा ही नाम आ गया। अब क्या करोगे? ऐसे व्यक्ति को हम पागल के अतिरिक्त कुछ नहीं कहेंगे। अरे! वह तो सपना था। सपना टूट गया खेल खत्म। जब तक तुम सपने में थे तब तक राजा थे। अब जाग गए वास्तविकता को स्वीकार करो। वह भ्रम था सच नहीं था तो जैसे सपना टूटने के बाद सच का साक्षात्कार होता है हमें सपने का कोई गम नहीं होता हम व्यर्थ में अभिमान कर रहे थे झूठा भ्रम हमने पाल रखा था यहां तो कुछ है ही नहीं। सच्चाई का पता लगते ही अहंकार चूर हो जाता है और भ्रम में जीने वाले लोग अहंकार पुष्ट करते रहते हैं। अहंकार को पुष्ट मत करो। स्वप्न को स्वप्न समझो।

राजा भोज रात्रि में सो रहे थे सोते-सोते उनके मन में विचार आया कि मैं अपनी सारी संपत्ति को एक छंद में निबंध करूं और और उस भावना से उन्होंने वसंततिलका छंद लिखना शुरू किया पहली लाइन लिखी-

“चेतो हरा युवतिः युवतिः न सचहदोनुकूला” मेरे चित्त को हरने वाली एक से एक युवतीयां है। मेरे श्रहद, मित्रजन बड़े अनुकूल है।

दूसरी लाइन लिखी- “सद बांधवाः प्रणय गर्भ गिरष्च भृत्या” मेरे भाई बंधु बड़े अच्छे हैं, मेरे नौकर-चाकर भी बड़े अनुकूल हैं।

तीसरी लाइन लिखी- “वलगन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तरंगा” मेरे घुड़साल में ढेर उत्तम-उत्तम नस्ल के घोड़े हैं और मेरी हाथी शाला मे बहुत सारे हाथी चिंघाड़ते रहते हैं। तीन लाइन बन गई अब छंद बनना है।

जब तक चार चरण पूरा ना हो तब तक छंद पुरा ना हो। वह बार-बार दोहरा रहा है-

“चेतो हरा युवतिः युवतिः न सचहदोनुकूला,

सद बांधवाः प्रणय गर्भ गिरष्च भृत्या,

वलगन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तरंगा..”

जब तक छंद पूरा ना हो राजा को नींद ना आए, संयोग से राजा के यहां एक चोर घुसा हुआ था चोर सोच रहा था कि राजा सोए तो मैं अपना काम करूं और राजा तब भी सोएगा जब उसकी कविता पूरी होगी। (अब यह सवाल मत कर करना कि चोर कैसे घुस गया, राजा के यहां चोर भले ही ना घुसा हो पर हमारी कहानी में तो चोर घुस गया) चोर सोच रहा था कि कब राजा सोए। वह चोर भी कवि  था।

“यथा राजा तथा प्रजा”

अबकी बार जैसे ही राजा ने कहा- “चेतो हरा युवतिः युवतिः न सचहदोनुकूला,

सद बांधवाः प्रणय गर्भ गिरष्च भृत्या,

वलगन्ति दन्ति निवहास्तरलास्तरंगा..”

कि नीचे से आवाज आई- “सम्मीलने नयनयो नही किंचि दस्ति”

ओह! आंखों के बंद हो जाने के बाद कुछ शेष नहीं। राजा हड़बड़ा के उठा- कौन है? यह किसने जवाब दिया? बोला- अभय हो तो मैं प्रकट होऊं। राजा- तुम्हें अभय है प्रकट होओ। तुमने बोला? कौन हो तुम? बोला- मैं चोर, चोरी करने के लिए आया हूं। चोरी करने के लिए आए हो लेकिन तुमने तो मेरी आंखें खोल दी अब तो तुम मेरे गुरु बन गए। तुमने सही कहा जिनका मैं इतना गर्व और गुरुर कर रहा हूं आंखें मूंद जाने के बाद उनका कोई मूल्य नहीं है, सब खत्म हो जाने वाला है। संसार में जो कुछ भी है सब एक सपना है। बंद आंख के सपने को तुम सपना मान लेते हो जिस दिन खुली आंख के सपने को सपना मानोगे उस दिन तुम्हारा अहंकार चूर-चूर हो जाएगा। यह सब सपना है कोई अपना नहीं। यह समझ अपने भीतर विकसित करो। ऐसे आध्यात्मिक समझ का विकसित होते ही चिंतन की धारा परिवर्तित होगी, तुम्हारा जीवन धन्य हो जाएगा। अपने अंदर वैसा डेवलपमेंट होना चाहिए।

राजा भोज से जुड़ा एक और प्रसंग याद आ गया। राजा भोज ने एक बार घोषणा करवाई कि जो मुझे एक नई कविता सुनाएगा मैं उससे सौ स्वर्ण मुद्राएं दूंगा। रोज़ कोई ना कोई आता उसे कविता सुनाता सौ स्वर्ण मुद्राएं ले जाता। उसके राज्य में चार वज्र मूर्ख थे। उन्होंने सोचा अच्छा इंतजाम हो गया। राजा भोज को एक कविता सुनाने की सौ मुद्राएं मिल जाएगी। वज्र मूर्ख थे। कवि हो तो कविता बनाएं लेकिन देखो कभी-कभी मूर्खों से भी हमें बहुत बड़ा बोध मिल जाता है।

चले। सुबह का टाइम था। एक जगह देखा तो चरखा चल रहा था। एक ने कहा मेरी कविता बन गई- “चरर मरर चरखा चल रहा है”। आगे चले तो तेली का बैल था, खली-भूस खा रहा था और दूसरे ने कहा- “तेली का बैल खली भूस खाए”। मेरी भी कविता बन गई और आगे बढ़े तो देखा एक आदमी तीर कमान लेकर आ रहा है तो उसने कहा- “इतने में आ गए तीर कमान”। तीन की लाइन पूरी हो गई।

“चरर मरर चरखा चल रहा है,

तेली का बैल खली भूस खा रहा है,

इतने में आ गए तीन कमान”।

चौथे से कहा तुम भी अपनी कविता बना लो। बोला- मैं वही बनाऊंगा। चारों राजा भोज के दरबार में पहुंच गए और कहा हमारी संयुक्त कविता है, हम चारों एक-एक लाइन सुनाएंगे। चारों लाइन से खड़े हो गए। पहले ने कहा- चरर मरर चरखा चल रहा है। दूसरे ने कहा- तेली का बैल खली भूस खाए। तीसरे ने कहा- इतने में आ गए तीर कमान। तो चौथे ने कह दिया- “राजा भोज मूसरचंद”। अब राजा भोज एकदम तमतमा उठा। यह कौन सी कविता। राजा के मंत्री ने कहा महाराज इनकी कविता रहस्यमई कविता है, इनका अर्थ आपको समझना पड़ेगा, बहुत महत्वपूर्ण कविता है, आप इसको समझे इसके प्रतीक को समझें। राजा ने कहा- क्या है? पहले ने कहा “चरर मरर चरखा चल रहा है” यानी संसार का चक्र चरखे की तरह चल रहा है। जन्म-मरण का यह चक्र अनादि से चल रहा है और यह संसारी प्राणी तेली के बैल की तरह खली भूस खाकर के कट रहा है। “इतने में आ गए तीर कमान” इसी बीच काल तीर कमान लेकर आ जाता है। चौथी लाइन में मैं मूसरचंद कैसे हुआ? इसीलिए तो कह रहे हैं “राजा भोज मूसरचंद” कि अभी तक समझ नहीं पा रहा है।

अब बोलो आप लोगों को मूसलचंद कह दूं तो बुरा तो नहीं लगेगा। इतना सब कुछ होने के बाद भी जिसे अपने जीवन की समझ ना हो वह सब मूसरचंद हैं। तो स्वरूप विषयक अज्ञान, भंगुर को शाश्वत मानने का अज्ञान, पर को अपना मानने का अज्ञान जिस दिन तुम्हें पता लग जाएगा कि तू क्या है तेरा क्या है उस दिन मैं और मेरा अपने आप छूट जाएगा। अहंकार आएगा तो ममकार आएगा यह दोनों सहोदर भाई हैं और अज्ञान के बेटे हैं। अज्ञान को खत्म करोगे  तो अहंकार, ममकार अपने आप समाप्त हो जाएगा और हमारे जीवन में एक अलग प्रकार का रस प्रकट होगा। आप अपने भीतर झांकने की कोशिश कीजिए। जिन चार कारणों की मैंने चर्चा की उन पर विचार करना शुरू कर दीजिए। अपने आप अहंकार शांत हो जाएगा। अहंकार को शांत करने के लिए समझिए- मैं बस एक चेतन आत्मा हूं, सब समान है, मैं किसी से विशेष नहीं, जो मेरे पास संयोग है वह सब नश्वर है, आज है कल रहे ना रहे कोई भरोसा नहीं और जब तक हैं वह मुझसे भिन्न है, मेरे नहीं हैं कर्म के संयोग हैं और यह दुनिया में एक प्रकार की जो भी चमक है, चकाचौंध है वह एक भ्रम है। इनको याद करोगे अहंकार कभी नहीं पड़ेगा चाहे आप रिश्तो के बीच हो, अपनों के बीच हो या दुनिया के किसी भी क्षेत्र में हो। अपने इस अहंकार को कम करने की कोशिश कीजिए। जिस दिन आपका अहंकार खत्म होगा उसी दिन आपका जीवन धन्य हो जाएगा क्योंकि मन की सारी अशांति का मूल कारण अहंकार है। मैं तो यह मानता हूं कि अहम की खूंटी पर ही अशांति टंगती है। उसको गला दोगे तो फिर अपनी प्रेस्टीज का इशू नहीं। अपने सामने कोई प्रॉब्लम नहीं होगी। अपनी शेखी बघारने की बात नहीं। किसी से कोई प्रतिस्पर्धा नहीं, कोई प्रतियोगिता नहीं, कोई प्रतिद्वंदिता नहीं। सोच लो जीवन का रूप क्या होगा। अपने थोथे अहम को दूर करो। अपनी असलियत को पहचानो। अपनी औकात को जानो तो जीवन धन्य होगा। लेकिन लोगों की क्या कहें?

एक आदमी अपने परिवार के साथ माउंट आबू गया। शाम के टाइम सनसेट पॉइंट पर गया। सूरज ढल रहा था। अपने चार साल के बेटे से कहता है देखो बेटा मैं तुझे अपनी पावर दिखाता हूं। सूरज ढल रहा था बिल्कुल अस्ताचल पर ही था। और बेटे को कहा देख मैं तुझे अपनी पावर दिखाता हूं। बेटे ने कहा दिखाओ। सूरज को देखते हुए कहता है- गो डाउन। सूरज डूब गया। देख लिया मेरा पावर। बाप ने ऐंठ करके कहा तो बेटे ने कहा पापा ट्राय वंस अगेन। अब उसको समझ में आ गया पावर क्या है। अब क्या करेंगे किसको पावर कहते हो तुम? ध्यान रखिए इस तरह की प्रवृति हम बनाकर रखेंगे जीवन दुखी बना रहेगा और हम अपने चिंतन की धारा को परिवर्तित करेंगे हमारा जीवन सुखी होगा हमें तय करना है। एक बात जरूर कहता हूं आध्यात्मिक समझ को विकसित किए बिना हमारे चिंतन में बदलाव नहीं आता और जब तक चिंतन में बदलाव नहीं तब तक जीवन में बदलाव नहीं आता। तो हम अपने चिंतन को बदलने की प्रक्रिया शुरू करें। अपनी सोच को बदलें और वह बात अपने मन मस्तिष्क में स्थापित हो जाए तो फिर हमारा जीवन निश्चिततः सुखी होगा, आनंद से भरेगा।

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