क्या जैन मुनि कपड़े पहन कर साधना नहीं कर सकतें?

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शंका

क्या जैन मुनि कपड़े पहन कर साधना नहीं कर सकतें?

समाधान

अन्य साधु भले ही निर्वस्त्र न रहते हों,पर जैन साधना में दिगम्बरत्व की अवधारणा अत्यन्त प्राचीन काल से हैI वैदिक युग से ही दिगम्बर साधुओं का विचरण इस धरा पर चलता रहा है। वेदों में वात-रसन और वात-वसन मुनियों की जो चर्चा है,वह दिगम्बर मुनियों की है। पौराणिक काल में भी दिगम्बर मुनियों की बड़ी महत्ता और प्रतिष्ठा हमारे समाज में रही है। 

मैं एक प्रसंग आपको कहता हूँ- ‘जब श्री कृष्ण कुरुक्षेत्र की ओर रथ लेकर जा रहे थे तो रास्ते में एक पर्वत पर एक दिगम्बर मुनि के दर्शन हुए। तो श्री कृष्ण ने अर्जुन को आश्वस्त करते हुए कहा था कि ‘अर्जुन! चिन्ता मत करो! “सर्वा विजयमयी यात्रा निर्ग्रंथो अत्र दृश्यते” हमारी यात्रा निश्चित रूप से विजयमयी होने वाली है क्योंकि सामने निर्ग्रन्थ मुनि दिख रहे हैंI’ तो ये निर्ग्रन्थों की महिमा, वैदिक काल से ही हमारे देश में रही हैI आज भी बहुत सारे साधु जन, जो जैन साधना से दूर है, जैन नहीं है, जैन साधक नहीं है, पर वे भी दिगम्बरत्व को अपनाते हैं, और उनके यहाँ उसे एक आदर्श साधना के रूप में देखा जाता हैI 

जैन धर्म मूलत: निर्ग्रन्थ धर्म है और इसके अनुसार दिगम्बरत्व को साधना का मूल आधार बताया है। इसके पीछे दो मूल भावनाएँ हैं- अहिंसा और वीतरागता! हम अगर अपने जीवन में अहिंसा की पूर्ण आराधना करना चाहते हैं और अपरिग्रह को पूरी तरह आत्मसात करना चाहते हैं, तो हमें चाहिए हम अपने पास तिल-तुष मात्र भी न रखें। अगर कुछ भी हम रखते हैं, वस्त्र आदिक, तो उनके धोने, साफ करने, उनका प्रबन्ध करने में हमारा बहुत सारा समय भी जाएगा, शक्ति भी जाएगी और जीव हिंसा भी होगी। साथ ही उनके संरक्षण का व्यामोह, हमारे मन को चंचल बनाएगा। हमारे मन में दुःख उत्पन्न करेगाI एक कहावत है “फाँस तनक सी तन में साले चाह लंगोटी की दुःख भाले” लंगोटी की चाह भी हमारे लिए बहुत दुःख देती है इसलिए तिल-तुष मात्र भी न रखो। यही वीतरागता का साधन है। आत्मस्थ होने के लिए निर्ग्रन्थ होना ज़रूरी है और उसके लिए इस रुप आना! 

दूसरी बात जैन साधना करने का मतलब है अपने प्राकृतिक रूप की ओर लौटना। प्रकृति ने हमें दिगम्बर जन्म दिया, नग्न नहीं, दिगम्बर!! यानि चर्म रुप वस्त्र प्रकृति ने हमें दिया है। हम इस चर्म के बल पर अपनी सारी मर्यादाओं को सुरक्षित रख सकते हैं। प्रकृति के आश्रित जितने भी प्राणी है, सब दिगम्बर रहते हैं। जब हम उन्हें सहज दृष्टि से देखते हैं तो उनका निर्वस्त्रपना हमें कभी चुभता नहीं है, सहज स्वीकार होता है। ऐसे ही दिगम्बर मुनि हैं जिसे प्रकृति ने जिस रूप में जन्मा, उस रूप में वह आने का प्रयास करते हैं। अपने प्राकृतिक रूप में रहना, प्रकृति के साथ तादात्म्य बनाकर के जीना, यही दिगम्बर साधना का मूल अभिप्रेत हैI अपनी सारी लज्जा, मर्यादाओं को, अपने इस मुद्रा के साथ ढाँक लेना, दिगम्बर हो जाना यानि नग्न नहीं, दिशाओं को अपना वस्त्र बनाकर के जीना है। नग्न होना कोई बड़ी बात नहीं है, नग्न तो भोगी विलासी भी होता है जो नग्न हो, निर्विकार नहीं रह सकता, पर जो दिगम्बर होगा वह निर्विकार भी होगा। दिगंबरत्व निर्विकारता का आधार है, इसी से प्रेरित होकर गांधी जी ने कभी कहा था दिगंबरत्व मनुष्यता का आदर्श है ये गांधी जी के शब्द है -दिगंबरत्व मानवता का आदर्श है, ये मनुष्य का आदर्श रूप है, इसे हमें समझने की जरूरत है। जो यह चीजें समझते हैं उन्हें कहीं कोई कठिनाई नहीं लगती। 

मेरे सम्पर्क में एक एडवोकेट महिला थी, वह कुछ वकील मित्रों को लेकर आई, बातचीत हुई, चर्चाएँ हुई। वे सभी एडवोकेट थे और लीडिंग प्रैक्टिशनर्स थे। चर्चाएँ होने के बाद जब सब सन्तुष्ट हुए तो उसके बाद उन्होंने एक रहस्य खोला। पहले तो उन लोगों से मैंने कहा- “आप लोगों को कैसा लगा?” वो बोले ‘बहुत अच्छा लगा, हमारी सारी धारणा बदल गई।’ मैंने बोला – “मामला क्या है?”, उन्होंने कहा-“महाराज जी! ये लोग हमसे प्रश्न करते थे कि ‘आपके साधु नंगे क्यों रहते हैं?’ तो मैंने उनसे एक ही बात कही कि-आप मेरे साथ चलो, मैं एक महिला होकर चलती हूँ, आप मेरे साथ चलो, उनके पास थोड़ी देर बैठो, फिर उसके बाद आप मुझे कहना कि आप किसी नग्न व्यक्ति के पास बैठे हैं या किसी साधु के पास? आपके प्रश्न का उत्तर वहीं मिल जाएगा।” उनको प्रेरित करके लाई और वे लोग मुझसे मिले, बातचीत की, और तो उन्होंने कहा- बाबा! आपके पास आने के बाद हमें तनिक भी एहसास नहीं हो रहा है कि हम किसी नग्न व्यक्ति के पास बैठे हैं। हमारी सारी धारणायें बदल गईं।

जो लोग ऐसा सोचते हैं, हमें चाहिए कि हम उन्हें दिगम्बरत्व का वास्तविक बोध कराएँ। गलती उनकी नहीं है, जैन साधु की चर्या का जब सही बोध होता है, तो लोग श्रद्धा से नत मस्तक हो जाते हैं। जब मैं बंगाल की यात्रा में था, क्योंकि वहाँ दिगम्बर साधुओं का उस समय विचरण बहुत कठिनाई से होता था, लोगों का दिगम्बर साधुओं के स्वरूप का ज्ञान न होने से, कई तरह के उपसर्ग भी हुए। जब मेरे साथ के लोगों ने मुझसे कहा, तो मैंने कहा ‘कुछ मत करो! दिगम्बर साधु के स्वरूप का बोध करा दो।’ एक हैंडबिल छपा और दिगम्बर साधु की अद्भुत चर्या हिंदी, बंगला और अंग्रेजी में प्रकाशित हुआ। लोगों ने पढ़ा, तो लोगों ने दिगम्बर साधु को भगवान की तरह पूजा। सुबह ४:०० बजे से हजारों-हजार लोग आकर के खड़े हो जाते थे, श्रद्धा से पूजा भक्ति करते थे। तो हमें चाहिए कि हम सही तरीके से उनके स्वरूप को बतायें। तो कहीं कोई भ्रमित नहीं होंगे। कुछ लोग हैं, जिन्होंने न तो दिगम्बर साधु के कभी दर्शन किए, न उनकी कभी चर्या और क्रिया को देखा, अपने किसी पूर्वाग्रह या द्वेषमूलक दृष्टि से प्रेरित होकर, जो जी में आया वैसा लिख देते हैं, वैसा बोल देते हैं, इसलिए लोग भ्रमित होते हैंI सत्य को समझिये तब आपको बातें समझ में आएँगी।

दिगम्बर साधु आज समाज में रहते हैं तो समाज की मर्यादाओं को सुरक्षित और संरक्षित करने में अपना योगदान दे रहे हैं। उनसे अश्लीलता नहीं फैल रही बल्कि अनाचार मिट रहे हैं। ये दृष्टिकोण सबका होना चाहिए। ऐसा दृष्टिकोण यदि विकसित होगा तभी हम अच्छा कुछ कर सकेंगे, अन्यथा नहीं। इसलिए हमें अच्छा करने की अच्छी पहल करनी चाहिए।

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