सम्यक् दर्शन कैसे प्राप्त करें और इसकी पहचान कैसे हो?

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शंका

रत्नकरण्डक श्रावकचार में प्रसंग आता है कि ‘श्रावक को भी सम्यक् दर्शन प्राप्त करना चाहिए।’ लेकिन सम्यक् दर्शन कैसे प्राप्त होगा और यदि प्राप्त हो गया तो कैसे मालूम चलेगा कि सम्यक् दर्शन हो गया है?

समाधान

सम्यक् दर्शन के बिना तो हमारा कल्याण है ही नहीं। जैसे अंक के अभाव में शून्य का कोई मूल्य नहीं होता वैसे ही सम्यक् दर्शन के अभाव में हमारे ज्ञान और चारित्र का कोई मूल्य नहीं होता है। हमारा ज्ञान और चारित्र हमारे सम्यक् दर्शन के बल पर ही बलवान बनता है। 

अब रहा सवाल कि हमें सम्यक् दर्शन कैसे प्राप्त हो और सम्यक् दर्शन हमें प्राप्त हो गया है, तो हमें कैसे पता हो? सम्यक् दर्शन के प्राप्ति के बाह्य निमित्तों में अनेक प्रकार के निमित्त बताये हैं। लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द के बताये गये जो मार्ग हैं उनके अनुसार 

सम्मतस निमित्तम तस जानिया…. 

सम्यक् दर्शन के निमित्त में बाह्य निमित्त ‘जिन सूत्र’ और उनके ज्ञाता पुरुष है। यानि जिनवाणी परायण, तत्त्व का चिन्तन, अनुशीलन व अध्ययन और उसके ज्ञाता पुरुषों, निर्ग्रन्थ गुरुओं का समागम, सानिध्य सम्यक् दर्शन का बड़ा सशक्त निमित्त है।

स्वाध्याय करने से और सद्गुरुओं के सानिध्य और संसर्ग से हमारे हृदय में जबर्दस्त परिवर्तन घटित होता है। भाव विशुद्धि हमारे सम्यक् दर्शन का कारण बन सकती है। जैसे व्यक्ति को अपनी आत्मा और अनात्मा का बोध होता है। जीवन के कल्याण का पथ दिखना प्रारम्भ हो जाता है। उस व्यक्ति के अन्दर सम्यक् दर्शन की भूमिका बनने लगती है। 

अब सवाल खुद के सम्यक्त्वी होने और न होने की पहचान का; इसकी स्थूल रूप से ही पहचान कर सकते है। सूक्ष्म दृष्टि से तो कोई नहीं बता सकता कि मैं सम्यक् दृष्टि हूँ या नहीं हूँ। ये दिव्य ज्ञानियों के ज्ञान का विषय है। पर हमें सम्यक्त्व है या नहीं है इसका एक आंकलन करना चाहें तो इसका बड़ा स्थूल रूप ये है कि सबसे पहले आप ये देखिये कि आपके अन्दर कहीं गृहीत मिथ्यात्व तो नहीं! जिन धर्म से बहिर्भूत कोई कार्य तो आप नहीं कर रहे है! जिनमत के प्रति आपकी श्रद्धा प्रगाढ़ है या नहीं है, और आत्मा के कल्याण की प्रबल अभिरुचि है या नहीं है! आप गृहीत मिथ्यात्व से बचें, सम्यक् क्रियाओं का आप पालन करें और ये मानकर चलें कि मैं सम्यक् दर्शन की भूमिका में जी रहा हूँ। इसके अलावा और कोई उपाय नहीं है।

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