धर्म और लोक व्यवहार में समन्वय कैसे बैठाएँ?

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शंका

धर्म और लोक व्यवहार में समन्वय कैसे बैठाएँ?

समाधान

धर्म कभी लोक व्यवहार में बाधा नहीं देता। धर्म है क्या? अपना लोक व्यवहार अच्छा बनाना आपका पहला धर्म है। 

धर्म के दो रूप हैं- एक है हमारी धार्मिक क्रियाओं का और एक है हमारे व्यावहारिक जीवन का। अगर मनुष्य के जीवन का व्यावहारिक पक्ष अच्छा नहीं है, तो मैं मानता हूँ कि व्यक्ति धर्म नहीं कर रहा है, भले ही वो घंटों मन्दिर में पूजा पाठ करता हो, गुरूओं के सत्संग सानिध्य में रहता हो, दान धर्म का कार्य करता हो; लेकिन व्यावहारिक पक्ष कमजोर है, तो धार्मिक नहीं है। जो धर्म करते हैं और इंसानियत से दूर हैं तो वो धर्मात्मा हैं ही नहीं। 

व्यावहारिक पक्ष रखने का मतलब आपका व्यवहार अच्छा हो, दूसरों के प्रति आप में संवेदना हो, स्नेह हो, सहनशीलता हो, करूणा हो, प्रेम हो, विनम्रता हो… ये गुण होने चाहिए। ये गुण यदि होंगे तो आपको मिलन सार और व्यावहारिक बनाऐंगे। व्यक्ति अपने जीवन को आगे बढ़ाएगा। आपको प्रश्न में ये भी पूछना हो कि घर की जिम्मेदारी, पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच धर्म की क्रिया कैसे करें? तो ये भी एक अहम प्रश्न है। मैं आपसे कहना चाहता हूँ कि आप धर्म का कार्य करें लेकिन आप एक बात को पहले ध्यान में रखे कि अगर एक स्त्री हो तो आप एक गृहिणी हो। अगर आप एक गृहिणी हो तो घर की जिम्मेदारी का ठीक ढंग से अनुपालन करने का आपका भी पहला धर्म है। पहला काम घर गृहस्थी को ठीक ढंग से संचालित करने का। यदि आप कोई गृहस्थ हो आपकी कोई अभिरूचि है, तो आपका पहला कर्त्तव्य है आप अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी को पूर्ण करें जिससे आपके घर परिवार के निर्वाह में कोई कठिनाई न हो। आप अपनी बिजनिस लाईफ को भी ठीक रखें, ये दोनों चीजें रखें, इसके बाद जो समय बचे उसमें धर्म करें। अब आप कहेंगे-‘महाराज! घर की जिम्मेदारियाँ इतनी होती हैं कि टाइम ही नहीं मिलता।’ कुछ जिम्मेदारियाँ होती हैं और कुछ जिम्मेदारियाँ ओढ़ ली जाती हैं! मेरे सम्पर्क में दो तरह के लोग मिलते हैं- कुछ लोग ऐसे होते हैं जो घर गृहस्थी के जंजाल में इस कदर उलझ जाते हैं कि उनसे जब पूछो कहते हैं कि ‘हमारे पास टाईम ही नहीं है’; और कुछ लोग ऐसे मिलते हैं कि धर्म के कार्य में इतने लग जाते हैं कि घर गृहस्थी का ख्याल ही नहीं रखते हैं। मैं कहता हूँ कि एक गृहस्थ की ये दोनों परिणतियाँ अच्छी नहीं हैं, न एकदम गृहस्थी में रचो-पचो और न ही एकदम धर्म में पागल हो जाओ। दोनों के बीच समन्वय अपनाओ, आप घर गृहस्थी के काम में ये देखो कि इसमें से मैं अपना कितना समय निकाल सकता हूँ और जो फालतू कार्यों में अपना समय लगाते हो उसको बचाओ और धर्म करो। 

दूसरी बात, कुछ प्राथमिकताएँ हमारी निश्चित होनी चाहिए-जैसे घर के कार्य करना हमारी प्राथमिकता में है, तो पूजन करना, सामायिक करना, जाप करना, स्वाध्याय करना उसको भी प्राथमिकता में डाल दें और अपने समय को बचाकर आप उस तरीके से करें ताकि परिवार के लोगों को भी कोई तकलीफ न हो, उनकी जिम्मेदारी पूरी हो। एक महिला हमेशा इस बात को लेकर परेशान रहती थी कि ‘महाराज! हमारे घर का माहौल कुछ ऐसा है कि हम सुबह से किचिन में घुसते हैं और दिन भर किचिन में ही रहते हैं और पूरे दिन किच किच रहती है, धर्म ध्यान नहीं हो पाता, मैं क्या करूं?’ मैंने कहा तुम अपनी चर्या बताओ? बोली- ‘पहले अपने बच्चों का टिफिन तैयार करती हूँ, ज्वाइंट फैमिली है, औरों का तैयार करती हूँ। साहब ऑफिस जाते है सबको विदा करते-करते दस बज जाते हैं फिर हम लोगों का खाने का टाईम होता है फिर १२ बज जाते हैं फिर शाम को चूल्हे में लग जाते हैं।’ हम बोले ‘१० बजे अपने पति को विदा कर देती हो, उसके बाद क्या करती हो?’ बोले-‘१० से १२ का तो समय मेरे पास है।’ हम बोले १० बजे अपने पति को विदा करने के बाद १० से १२ मन्दिर आ जाओ तुम्हारे पास २ घण्टे बचें हैं न? आप अपनी दिनचर्या ऐसी व्यवस्थित करो। मैं एक लाईन में कहता हूँ कि इस तरह से धर्म कभी मत करो कि पारिवारिक अन्तरकलह की स्थिति बन जाए, घर में झगड़ा हो इस तरह से धर्म मत करो। इस तरीके से धर्म करो कि घर के लोग सन्तुष्ट हो जाएँ। वह बोली कि ‘इस तरह से महाराज जी मुझे तकलीफ तब होती है, जब कोई साधु समागम होता है और गुरू-महाराज के प्रवचन सुनने की इच्छा होती है, उनके कार्यक्रम में जाने की इच्छा होती है और हमारे जो रोजमर्रा की जिंदगी है, तो हमें उनमें जाने में दिक्कत होती है।’ कुछ नहीं थोड़ा पहले उठकर कर दो। 

मेरे सम्पर्क में एक परिवार था और परिवार में कई लोग थे। हम लोगों ने भोपाल के पास भोजपुर में चार्तुमास किया। भोजपुर चार्तुमास के दौरान वो लोग रोज भोपाल से आहार देने आते थे, साढ़े आठ बजे बस चलती थी साढ़े नौ बजे वो आते थे, आकर आहार चर्या में शामिल होते थे, अपना भोजन करते थे। और बारह बजे जब हम लोग सामायिक में बैठते थे तो वो लोग निकलते थे और डेढ़ बजे घर पहुंचते थे। ये रोज का क्रम था। एक दिन किसी ने उनमें से एक के पति से पूछा कि ‘तुम्हारी पत्नी रोज-रोज आहार देने जाती है तुम्हारे घर की व्यवस्था नहीं बिगड़ती है? तब भी तुम उसको रोकते नहीं हो?’ वो बोले ‘मैं क्यों रोकू? क्योंकि वो सारा काम करके जाती है। वो रोज तीन बजे उठती है, अपनी सामायिक पाठ जाप सब करती है, हमारा लंच टिफिन सब तैयार कर देती है, उसके बाद साढ़े आठ बजे जाती है हमको क्या तकलीफ है? शाम को आकर हमारी तैयारी कर देती है और एक बात बताऊँ कि जब से वो महाराज के साथ जुड़ी है तब से उसकी सारी दवाइयाँ बंद हो गई हैं, अपने आप सब ठीक हो गया। मैं क्यों रोकू?’ यदि इस तरीके से आप काम करेंगे तो आपको इतनी कठिनाई नहीं होगी। और अगर खींचातानी होगी तो बहुत गड़बड़ होगा इसलिए तालमेल बनाकर चलें।

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